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गुरुवार, 2 जून 2022

यह घेरे कुछ अलग से हैं

 

यह घेरे कुछ अलग से हैं, क्या सुखद सा अहसास है
हूँ धरा पर ही यहीं, या पाया स्वर्ग आज है
सिंदूरी आभा कहीं, सजती है दूर क्षितिज पर
फैली हैं पर्वत श्रृंखलाएँ, निहारती उसे अपलक
रवि भी शनैः शनैः, बढ़ रहा छटा वह देखने
राजा तो मैं ही हूँ, आ रहा वह किरणें बिखेरते
अंशुमान की वह किरणें, पड़ गईं थी नीली नदी पर
द्युतिमान होकर वह खिली, सुन्दर छवि थी वह उस पल
फूलों की वादियाँ कहीं, दूर पर इतरा रहीं
ठंडी हवा के झोंकों को, महक से महका रहीं
आ गईं हूँ आज मैं, प्रकृति के आगोश में
बँधी रहूँ यूँ ही यहीं, जाना न चाहूँ आज मैं ।।
आभा कुदेशिया
बरेली (यू॰पी॰)

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