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गुरुवार, 3 मार्च 2022

जब मनुष्य की करुणा का विस्तार होता है तभी वो सच्चे अर्थों में मनुष्य बनता है

सीताराम गुप्ता,
 
     प्रसिद्ध कवि नरोत्तमदास की चर्चित रचना है सुदामाचरित। उसकी कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं:
देख सुदामा की दीन दसा, करुना करि कै करुनानिधि रोए,
पानी परात को हाथ छुयो नहिं नैनन के जल सौं पग धोए।
     जब सुदामा अपने मित्र कृष्ण से मिलने द्वारका पहुँचे तो उनकी विपन्नता व कृशकाय अवस्था देखकर कृष्ण जो स्वयं करुणा के सागर थे करुणा से भर उठे और रो दिए। उनके पैर पखारने के लिए परात में जो पानी लाया गया था उसे हाथ लगाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी क्योंकि कृष्ण की आँखों से इतने आँसू गिरे कि सुदामा के पैर धुल गए। यदि साहित्य की दृष्टि से देखें तो ये करुण रस का अनुपम उदाहरण है। करुण रस का स्थायीभाव शोक होता है अर्थात् मन में शोक के कारण करुण रस की उत्पत्ति होती है। हिन्दी ही नहीं समस्त भारतीय साहित्य इस प्रकार की रचनाओं से भरा हुआ है। करुणा मनुष्य के हृदय को किस प्रकार उदात्त बना देती है आदि कवि बाल्मीकि इसका प्रखर उदाहरण हैं। कहा जाता है कि एक बार बाल्मीकि ने देखा कि एक बहेलिए ने प्रेमरत क्रौंच पक्षियों के जोड़े में से नर पक्षी का वध कर दिया जिसे देखकर मादा ज़ोर-ज़ोर से विलाप करने लगी। इस विलाप को सुनकर बाल्मीकि का हृदय रो पड़ा। वे अत्यंत व्यथित व आहत हो उठे और अचानक उनके मुख से निकला:
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः,
यत्क्रोंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्।
     अरे बहेलिए तूने कामविमोहित मैथुनरत क्रौंच पक्षी को मारा है अतः तुझे कभी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं होगी। इस घटना से बाल्मीकि का कवित्व जाग उठा। उन्होंने संसार की महानतम कृति रामायण की रचना की। इस सबका श्रेय उनके अंदर उत्पन्न करुणा को ही जाता है। कविवर सुमित्रानंदन पंत की कविता की निम्नलिखित पंक्तियाँ भी इसी ओर संकेत कर रही हैं:
वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान,
निकलकर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अंजान।
इसी संदर्भ में सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की एक कविता भिक्षुक का स्मरण हो रहा हैः
वह आता-
दो टूक कलेजे के करता, पछताता पथ पर आता।
पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्टी-भर दाने को-भूख मिटाने को,
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता-
दो टूक कलेजे के करता, पछताता पथ पर आता।
साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाए,
बाएँ से वे मलते हुए पेट को चलते,
और दाहिना दया-दृष्टि पाने की ओर बढ़ाए।
भूख से सूख ओंठ जब जाते
दाता-भाग्य-विधाता से क्या पाते?
घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।
चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए।
     क्या ये मात्र कुछ शब्द हैं? नहीं, ये केवल शब्द नहीं हैं। एक भिक्षुक व उसके बच्चों की दुर्दशा व पीड़ा को देखकर कवि के हृदय में उपजी करुणा का चित्रांकन हैं ये पंक्तियाँ। करुणा की इससे मार्मिक अभिव्यक्ति क्या होगी?
      अब थोड़ा करुणा के अर्थ पर विचार करते हैं। जब हम दूसरों की पीड़ा को देखते हैं तो हमारे अंदर भी पीड़ा का भाव उत्पन्न होना स्वाभाविक है। यह भाव हमें दूसरों की पीड़ा को दूर करने की प्रेरणा देता है। दूसरों के दुख को देखकर दुखी होना और उसको दूर करने के लिए उद्यत हो जाना ही वास्तविक करुणा है। यदि दूसरों की पीड़ा को देखकर हमारे अंदर पीड़ा के भाव तो उत्पन्न होते हैं लेकिन तत्क्षण विलीन हो जाते हैं और हम उसके विषय में सोचते ही नहीं तो वो कैसी करुणा? जब हमारी संवेदना अथवा सहवेदना कुछ करने के लिए उद्यत करती है तभी हम करुण बन पाते हैं अन्यथा वह संवेदना अथवा सहवेदना दिखावा मात्र है।
अन्य क्षेत्रों की तरह करुणा के क्षेत्र में भी हमारे मानदंड हमारी सुविधानुसार अलग-अलग होते हैं। अपने निकटस्थ व्यक्तियों अथवा स्वजनों के लिए हममें करुणा का होना स्वाभाविक है लेकिन हम अपने नज़दीकी व्यक्तियों के लिए दुख में ही नहीं दुख की कल्पना मात्र से भी द्रवित अथवा करुणाद्र हो उठते हैं। कहने का तात्पर्य ये है कि दूसरों के वास्तविक दुख और अपने स्वजनों के दुख की कल्पना से दुखी होना करुणा ही कहलता है। जो भी हो आज समाज में करुणा नामक तत्त्व कम होता जा रहा है। हमारी करुणा दिखावा बनकर रह गई है। बेशक हम अपनों के लिए चिंतित अथवा व्याकुल हो उठते हैं लेकिन समाज के लिए हमारी चिंता का स्तर निरंतर कमज़ोर होता जा रहा है। किसी व्यक्ति को पीड़ा में देखकर हम उसकी मदद करने की बजाय चुपचाप खड़े तमाशा देखना अधिक उचित समझते हैं। हद तो तब हो जाती है जब हम किसी पीड़ित अथवा असहाय की मदद करने की बजाय उस घटना का वीडियो बनाना ज़्यादा ज़रूरी समझते हैं।
पिछले दिनों दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में ओलावृष्टि हुई। कई स्थानों पर काफी बड़े-बड़े और काफी मात्रा में ओले गिरे। कई समाचार पत्रों ने लिखा कि दिल्ली में बर्फबारी अथवा दिल्ली शिमला बना। दिल्ली में शिमला का आनंद। लोग भी धड़ाधड़ ओलावृष्टि के वीडियो बनाकर इधर से उधर भेजे रहे हैं। उनके आनंद की सीमा नहीं। वास्तव में उन्हें ओलावृष्टि और बर्फबारी में अंतर नहीं मालूम। ये दोनों अलग-अलग एवं परस्पर विरोधी स्थितियाँ हैं। बर्फबारी पर्वतीय जीवन और फसलों के लिए अनिवार्य है लेकिन ओलावृष्टि चाहे पहाड़ों पर हो अथवा मैदानी भागों में बर्बादी लाती है। अब ऐसे ज्ञानवान लोग करुणा को किस रूप में लेंगे कहना मुश्किल है।
      एक पक्षी के वध और उसकी मादा के क्रंदन पर बाल्मीकि अंदर तक हिल जाते हैं। आज समाज में विभिन्न वर्गों पर हो रहे अत्याचार को देखकर हमारा कलेजा नहीं दहलता। देश में हर शहर और क़स्बे तक में और कुछ हो या न हो देह व्यापार की गलियाँ ज़रूर मिल जाएँगी। देश में हर रोज़ न जाने कितनी मासूम लड़कियों को यातनाएँ देकर इस धंधे में उतार दिया जाता है? ये हमारे लिए केवल समाचार होते हैं। पढ़ते हैं और समाचार पत्र उछालकर दूर फेंक देते हैं। उनके प्रति संवेदना कब उत्पन्न होगी? उनके प्रति कब करुणा के भाव जगेंगे? कब उनके अच्छे दिन आएँगे? और भी बहुत सी समस्याएँ हैं। बहुत सारी बातें हैं जिनके लिए अच्छे लोगों का मन करुणार्द्र हो जाना चाहिए।
      हम बड़ी आसानी से कह देते हैं कि ये उनके कर्मों का फल है। जैसे कर्म किए थे भोगने पड़ेंगे। हमें तो भगवानों की सेवा और पूजा-पाठ से फुर्सत नहीं। वैसे हम बड़े लोगों के लिए इनका होना भी ज़रूरी है। यदि भिखारी, ग़रीब अथवा पीड़ित नहीं होंगे तो हम किसके प्रति करुणार्द्र होंगे? हम किसे दान देंगे? हम कैसे उनकी मदद करते हुए वीडियो बनवाएँगे? करुणा क्या होती है इसे समझना है तो कैमरों की फौज के साथ दान करनेवालों की बजाय वास्तविक नायकों के जीवन को देखने का प्रयास करना अपेक्षित है। एक प्रेरक व अनुकरणीय व्यक्तित्व आपके सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूँ।
      तेज़ बारिश हो रही थी। इस तेज़ बारिश में एक कुष्ट रोगी खुले में असहाय पड़ा हुआ बुरी तरह से कराह रहा था। उसकी मदद को कोई आगे नहीं आ रहा था। ऐसे में वहाँ से गुज़रने वाला एक व्यक्ति इस कुष्ट रोगी की दयनीय दशा देखकर अंदर तक हिल गया। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। वो बस यही सोच रहा था कि इस कुष्ट रोगी की जगह अगर वो होता तो? इस घटना ने उसे इतना प्रभावित किया कि उसने उसी क्षण से जीवन भर कुष्ट रोगियों की सेवा करने का व्रत ले लिया। उसने उस कुष्ट रोगी को उठाया और अपने घर की ओर चल पड़ा। उसने कुष्ट रोगियों की सेवा और चिकित्सा करने का व्रत तो ले लिया लेकिन वो ख़ुद नहीं जानता था कि कुष्ट रोग कैसे होता है और इसका उपचार कैसे किया जाता है? उस दिन के बाद से वो कुष्ट रोग और उसके उपचार के अध्ययन में जुट गया। हमारे समाज में कुष्ट रोगियों को उपचार के दौरान अथवा बाद में भी आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता अतः उनका पुनर्वास भी ज़रूरी था अतः उसने महाराष्ट्र के चंद्रपुर ज़िले के घने जंगलों में आनंदवन नामक एक आश्रम की स्थापना की ताकि कुष्ट रोगियों का उपचार ही नहीं उनका पुनर्वास भी किया जा सके।
      वो चाहता था कि कुष्ट रोग का शीघ्र ही कोई अच्छा सा उपचार मिल जाए। इसके लिए वो लगातार प्रयोग करता रहता रहा। एक बार तो उसने कुष्ट रोग के बैक्टीरिया को चिकित्सीय प्रयोग के लिए स्वयं अपने शरीर में ही प्रविष्ट करा लिया ताकि कुष्ट रोग पर उचित शोध कार्य करके शीघ्र इसके उपचार में सफलता प्राप्त कर सके। कुष्ट रोगियों के इस हमदर्द व मानवता के महान सेवक का नाम था मुरलीधर देवीदास आमटे जिन्हें अधिकांश लोग बाबा आमटे के नाम से जानते हैं। गाँधीजी जिन्होंने स्वयं कुष्ट रागियों के उपचार व पुनर्वास के लिए बहुत काम किया ने कुष्ट रोग के क्षेत्र में बाबा आमटे के अथक प्रयासों के लिए उन्हें अभय साधक कह कर पुकारा। उनका समस्त परिवार आज भी उनके इस महान कार्य के लिए निस्स्वार्थ भाव से सेवा में रत है। सचमुच करुणा से ओतप्रोत व्यक्ति ही ऐसा कार्य कर सकता है।
      बाबा आमटे का महत्त्व मात्र इसलिए नहीं है कि उन्होंने अपना सारा जीवन कुष्ट रोगियों की सेवा और उनके पुनर्वास में लगा दिया अपितु इसलिए अधिक है कि इसके लिए वो अपने शरीर के साथ भयंकर प्रयोग करने व अपने प्राणों को संकट में डालने से भी नहीं हिचकिचाए। ऐसे बहुत से उदाहरण हमारे सामने हैं। मदर टैरेसा हों अथवा कैलाश सत्यार्थी हों सबके अंदर करुणा का अजस्र स्रोत प्रवाहित है तभी उन्होंने लोगों को दुख से बचाने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। सूची बहुत लंबी है लेकिन करुणा के बिना उदात्त भाव और महान कार्य संभव ही नहीं। इसी भावना के अंतर्गत लोग रक्तदान, दृष्टिदान अथवा देहदान करते हैं। करुणा मनुष्य को उदात्त बना देती है। निस्संदेह हम सबमें अपने स्वजनों के प्रति करुणा की कमी नहीं लेकिन इसमें विस्तार अपेक्षित है। जब हम करुणा के संकुचित भाव या क्षेत्र से ऊपर उठ जाते हैं अथवा हमारी करुणा असीमित होकर विस्तार पा जाती है तभी हम सही अर्थों में मनुष्य बन पाते हैं।

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