उषा राठौर
सुबह और शाम कुछ दोस्तों के नाम अक्सर याद करती हूं मैं।
कुछ झूठी मुस्कुराहटें कपट से भरे लबादा ओढ़े हुए लोग।
ऊपर से हितैषी से दिखते मगर पीठ के पीछे से छुरा घोंपते लोग।
अक्सर दिख जाते हैं हर महफिल में हर शहनाई में।
हर महफिल में वह हमें घेर लेते हैं और हर तनहाई में विलुप्त हो जाते हैं।
जब हम ताज होते हैं तो वह हमारे पास होते हैं
जब हम खंडहर हो जाते हैं तो वह अदृश्य हो जाते हैं।
जब बसंत आता है तो भागने की मानिंद
हमारे इर्द-गिर्द गुनगुनाते हैं कुछ लोग।
और पतझड़ के आने पर न जाने कहां चले जाते हैं वही लोग।
मगर कुछ लोग हमारी सूनेपन को खुद ओढ़ लेते हैं l
हर तन्हाई में वह हमारी आवाज बन जाते हैं
और हर पतझड़ में वह बहार बन जाते हैं।
जब हम टूट कर चूर-चूर हो जाते हैं
तो वह हमारा मजबूत सहारा बन जाते हैं।
वह हमारी खुशी में खुश होते हैं
हमारे दुख में वह हमसे ज्यादा दुखी होते हैं।
हमारे आंसू उन्हें विचलित कर देते हैं
हमारा दर्द वह महसूस करते हैं।
शायद नहीं यकीनन वही हमारे
अपनों से भी बढ़कर अपने होते हैं।
chhutmalpur Saharanpur
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