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गुरुवार, 16 दिसंबर 2021

अनुत्तरित

डॉ प्रतिभा त्रिवेदी 

 

" नहीं भवानी नहीं, तुम भैया की बराबरी नहीं कर सकती। " ये दादी ने टोकते हुए कहा था।
दादी ये तो गलत बात है, मुझसे मैथ्स नहीं बनती इसलिए ट्यूटर मुझे चाहिए । मैं परीक्षा में फेल हो जाऊंगी लेकिन पापा ने भैया के लिए कोचिंग लगवा दी और मेरे बारे में कोई सोचा ही नहीं। ये तो अन्याय है। तब तक माँ ने हस्तक्षेप कर दिया था।
" भवानी तुम आजकल बहुत वाचाल होती जा रही हो। दादी से इस तरह बहस नहीं करते चुप रहो। ज्यों-ज्यों बड़ी हो रही हो , मर्यादा ही भूलती जा रही हो। हर समय नहीं बोला जाता भले घर की लडकियां चुप रहती हैं - तुम भी चुप रहना सीखो। "
बस उस दिन से भवानी ने मुंह पर हाथ रख लिया यानी सब कुछ यदि गलत भी हो रहा है तब भी चुप ही रहना है क्योंकि भले घरों की बेटियों की भलाई इसी में है कि वो चुप रहें।
भवानी अब बड़ी हो रही थी, उसकी आंखें सजग हो चली थीं। अब वो उम्र के उस दौर से गुजर रही थी जहां मनचाहे सपने देखने की आजादी होती है और जुनून की हद तक कुछ कर गुजरने का हौसला भी अंकुरित होने वाले बीज की तरह अंकुआ गया था। उस बीच कोई ऐसा भी था जो आकर्षण का केंद्र बिंदु बनता जा रहा था। पहली बार भवानी ने आइने में खुद को निहारा था और सपनीली आंखें उनींदी हो चली थीं। ये परिवर्तन किसीने देखा हो या ना देखा हो लेकिन उसकी अपनी सहेली ने उसे परख लिया था। वो आहिस्ते से उसे समझा रही थी,
नहीं भूवी नहीं, तुम्हें ऐसे सपने नही देखने चाहिए। इन आंखों से तुम्हें वही देखना होगा जो तुम्हारे घर परिवार वाले चाहेंगे। इसलिए अपनी आंखें बंद कर लो, वरना जीवन भर तुम्हारी आंखें सपने नहीं बल्कि आंसूओं से रोती रहेंगी। बस भवानी ने अपनी आंखें बंद कर लीं।
एक समय ऐसा भी आया भवानी की धूमधाम से शादी हुई। ऐसा लगा मानो अब सपनों की रोक से प्रतिबंध हटा बल्कि ऐसा भी लगा अब वो अपने पिया की प्राणेश्वरी है - इसलिए अब
" बोल की लब आजाद हैं तेरे, बोल जुबां अब तेरी है"
वह अपने होठों पर लगे ताले खोल सकती है लेकिन यहाँ तो पतिदेव से उसने वो सब सुना जो शायद ना सुनती तो बेहतर होता। जब देखो तब केवल शिकायतों का पिटारा खोल देते। ये कैसा जीवन साथी था - जिसके सहारे उसे पूरा जीवन जीना था वो सहारा ही बेसहारा हो चला था। इधर सास ने भी ताने बाजी में मानो तडका लगा दिया था और सदैव यही घुट्टी पिलाया करती कि,
" अरे उसकी बातों पर ध्यान मत दो। बस एक कान से सुनोऔर दूसरे से निकाल दो। हमारे खानदान की बहुओं के कान केवल प्रशंसा के लिए नहीं होते बल्कि ये सब कुछ भी अनसुना करना होता है समझी।"
अब भवानी निश्चित ही एक सभ्य सुसंस्कृत और भली महिला के रूप में समाज में सम्मान पा रही है लेकिन एक यक्ष प्रश्न उसके जेहन में हर बार कौंध जाता है,
जब बोलना चाहा तो जिसने रोका वो भी एक स्त्री थी,
जब कुछ अपने लिए देखना चाहा तो उन आंखों को प्रतिबंधित जिसने किया - वो भी एक स्त्री थी।
जब कुछ गलत सुनकर विरोध करना चाहा तो सुनने से रोकने वाली भी एक स्त्री थी।
प्रश्न यही आज तक अनुत्तरित है जब वह देख, सुन और बोल नहीं सकती - तब क्या सचमुच वो अब भी जिंदा है? बोलो अब सब क्यों हुए शर्मिंदा हैं? है कोई जवाब?
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ग्वालियर

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