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गुरुवार, 16 दिसंबर 2021

अग्निपरीक्षा के दुर्गम पथ पर

अग्निपरीक्षा के दुर्गम पथ पर
समर्पण मेरा ध्वज लिए ही खड़ा है
अस्तित्व पर जब मेरे आ पड़ी है
प्रतिमान मैंने स्वयं का गढ़ा है
हुई न मैं भयभीत अग्निशिखा से
पावक को अंजुरी में भर लिया है
विलग कर प्राणों को गात से मैंने
अग्नि शय्या पर ही रख लिया है
झुका नहीं पायेगा ये गगन भी जिसे
स्वभिमान मेरा हिमालय से बड़ा है
ओ ! सृष्टि सृजन के कर्ता धर्ता
हे ! रघुवर मेरे जगपालन कर्ता
तर गए पापी जिस राम को रटकर
प्रति स्वास मैंने वही नाम जपा है
हुई कैसे स्वामी काया ये अपावन
ये तन मन सकल आप ही तो मेरा हैं
ये धरती, गगन और ये दिग दिशाएं
ये ऋतुएँ ये पंछी ये पुष्प लताएं
इस क्षण की सदा साक्षी ये रहेंगी
युग युग तक मेरी गाथा ये कहेंगी
प्रेम है ये मेरा विवशता नहीं है
प्रण है ये मेरा दीनता तो नहीं है
कभी अहिल्या कभी जानकी मैं रही हूँ
युग युग से अग्निपरीक्षा मैं दे रही हूँ
★★★
©प्राची मिश्रा

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