अजय चन्द्रवंशी
डॉ रामविलास शर्मा हिंदी के श्रेष्ठ आलोचकों में से एक हैं. आचार्य शुक्ल और द्विवेदी जी के समकक्ष. विषय की विविधता, व्यापकता, परिमाण में उनसे आगे भी. इस दृष्टि से राहुल जी भी उनके आस-पास हैं. यहां तुलना नही है; सभी का अपना अलग महत्व है. केवल परिमाण श्रेष्ठता का मापदंड होता भी नही.मगर रामविलास जी के यहां परिमाण के साथ व्यापकता और गहराई भी है. एक तरफ भारतेंदु, रामचन्द्र शुक्ल, महावीर प्रसाद द्विवेदी, निराला पर उनका कार्य तो दूसरी तरफ भाषा विज्ञान पर तीन खण्डों में ' भारत की प्राचीन भाषा परिवार और हिंदी'. एक तरफ 'भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद' तो दूसरी ओर ऋग्वेद और दर्शन पर उनके कार्य. इतना वृहद कार्य कठिन अध्यवसाय, समर्पण और प्रतिबद्धता के बिना संभव नही था.बनावटी विद्वता से इतना महत्वपूर्ण कार्य नही किया जा सकता, पोल खुल जाती है.बहुतों की खुलती रही है. यह अकारण नही कि लोग जितना महत्व उनके लेखन को देते हैं, उतना ही उनके व्यक्तित्व को भी. जो उनकी स्थापनाओं से असहमत रहे हैं, वे भी इस मामले में उनका महत्व स्वीकार करते हैं. वैसे उनके समग्र लेखन से कोई असहमत हो ऐसा संभव नही लगता; उनके अलग-अलग स्थापनाओं से अलग-अलग लोगों की असहमति रही है, और उन्होंने इसे दर्ज भी किया है. इन पर उनके जीवन-काल से ही बहस होती रही है.
रामविलास जी के आलोचनात्मक लेखन का प्रारंभ निराला की कविताओं पर लग रहे आक्षेप का जवाब देने से प्रारम्भ हुआ.बाद में देखते हैं कि निराला उनके समग्र लेखन के केंद्र में रहे हैं. वे तुलसी के बाद निराला को ही सबसे बड़े कवि मानते हैं. तुलसी और निराला के काव्यगत विशेषताएं और मूल्य ही मुख्यतः उनके काव्य विवेचना के आधार बनते हैं.नामवर जी ने उचित ही लिखा है "निराला सम्बन्धी व्यवहारिक समीक्षा वस्तुतः डॉ रामविलास शर्मा के साहित्य सिद्धांत का भी दस्तावेज है-किसी भी सैद्धांतिक निबन्ध से अधिक जीवंत और सर्वांग सम्पूर्ण"(केवल जलती मशाल). इस पर मार्क्सवाद के द्वंद्वात्मकता जुड़ जाने से उनकी काव्य दृष्टि का विकास होता है.इस दृष्टि से वे तुलसी और निराला के अंतर्विरोधों को भी रेखांकित करते हैं. मगर वे किसी कवि में बारे में मूल्य निर्णय इस आधार पर देते हैं कि उसके काव्य की मूल प्रवृत्ति किस दिशा में है.यदि वह अपने युग के प्रमुख अंतर्विरोधों पहचानते हुए समाज के विकासमान शक्तियों के तरफ है तो वे कवि के अंतर्विरोधों को कम महत्व देते हैं. इसीलिए वे तुलसी के वर्णधर्म समर्थक उक्तियों को कम महत्व देते हैं. वे साहित्य को सामाजिक-वैचारिक परिवर्तन के लिए जरूरी मानते हैं, इसलिए काव्य में उदात्तता, संघर्षशीलता, आत्म- गौरव का भाव उन्हें पसंद आता है. वे काव्य में कर्महीन विलाप और दीनता को नापसंद करते हैं.यह दृष्टि उन्हें रामचन्द्र शुक्ल जी से जोड़ती है, और यह सर्वविदित है कि वे आलोचना के शुक्ल जी के परंपरा को आगे बढ़ाते हैं.मगर वे हर मामले में उनसे सहमत भी नही हैं. छायावाद पर, भक्तिकाल के उदय पर उनकी असहमति है. शुक्ल जी की लोकवादी दृष्टि जो साहित्य और कला को मनुष्य के जीवन से सम्बद्ध मानती है; उन्हें पसंद आता है.
छायावाद के पक्ष में उन्होंने काफी लिखा है.छायावाद ने जिस तरह रीतिवादी कविता के नायक-नायिका के क्रीड़ा के स्थान पर व्यक्ति के भावों और विचारों को प्रतिष्ठित किया उसका उन्होंने स्वागत किया.छायावाद में जिस हद तक रहस्यवाद से हटकर सामंती मूल्यों से व्यक्ति के मुक्ति की छटपटाहट है उसका उन्होंने समर्थन किया.यही कारण है कि उन्हें पंत जी की अपेक्षा निराला अधिक पसंद आते हैं, क्योकि शुरुआत से ही उनकी कविताएं छायावादी भावबोध का अतिक्रमण करती हैं. वे छायावाद की सीमा पहचानते हैं मगर नामवर जी की तरह उसे 'संतुलन का नाटक' नही मानते.नयी कविता सम्बन्धी विवाद में वे कई बार कहते हैं कि छायावाद के कमजोर पक्ष को छोड़कर उसके सार्थक पक्ष को ही अपनाना चाहिए.
नयी कविता की उनके द्वारा आलोचना का मुख्य कारण उसके व्यक्तिवादी-अस्तित्ववादी प्रभाव ग्रहण कर कविता का प्रगतिशील धारा से दूर हटना था. व्यक्ति के स्वतंत्रता और विशिष्टता के नाम पर जिस तरह कुंठा, निराशा, हताशा, पराजयबोध को कविता का स्वाभाविक विकास और युग का यथार्थ घोषित किया जा रहा था, इस पर उन्होंने तीखे प्रहार किए.लेकिन नयी कविता में इतना ही नही था;इसकी एक दूसरी धारा भी थी जिसके प्रतिनिधि मुक्तिबोध थें.उनकी कविताएं शिल्प के स्तर पर भले पहली धारा के करीब ठहरती है मगर उनकी विषयवस्तु आम-आदमी के जीवन संघर्ष, आत्म-संघर्ष, फासिस्ट शक्तियों के बढ़ते खतरे का अहसास कराने वाली, कुल मिलाकर संघर्षशील जनता के पक्ष में थी. डॉ शर्मा की आलोचना दृष्टि दोनों धाराओं को अलगाये बिना एक समान आलोचना की, जिससे मुक्तिबोध जैसे प्रगतिशील कवि का सही मूल्यांकन नही हो सका.
भक्तिकाल में जो व्यापक साहित्यिक जन उभार हुआ उसे उन्होंने 'लोक जागरण' कहा.यह अभूतपूर्व था.देशी भाषाओं को प्रतिष्ठा मिली, साहित्य में जन सरोकार की केन्द्रीयता बढ़ी, समाज के उपेक्षित वर्गों ने अपनी बात मुखरता से कही, सामंती मूल्यों को काफी हद तक चुनौती मिली. इस व्यापक बदलाव का कारण उन्होंने 'व्यापारिक पूंजीवाद' को बताया.यह भी की जाति(नेशन) का निर्माण भी व्यापारिक पूंजीवाद के साथ होता है.उन्होंने व्यापारिक पूंजीवाद की सीमा को भी रेखांकित किया "व्यापारिक पूंजीवाद सदा सामंती खोल के भीतर विकसित होता है इसलिए पुराने सामंती बंधनो से पूरी तरह मुक्त नही होता". भक्तिकाल के अपने अंतर्विरोध भी थें, सगुण-निर्गुण धारा में समानता और भिन्नता दोनों थी.वे समानता पर अधिक जोर देते हैं.
भक्तिकाल में जो व्यापक साहित्यिक जन उभार हुआ उसे उन्होंने 'लोक जागरण' कहा.यह अभूतपूर्व था.देशी भाषाओं को प्रतिष्ठा मिली, साहित्य में जन सरोकार की केन्द्रीयता बढ़ी, समाज के उपेक्षित वर्गों ने अपनी बात मुखरता से कही, सामंती मूल्यों को काफी हद तक चुनौती मिली. इस व्यापक बदलाव का कारण उन्होंने 'व्यापारिक पूंजीवाद' को बताया.यह भी की जाति(नेशन) का निर्माण भी व्यापारिक पूंजीवाद के साथ होता है.उन्होंने व्यापारिक पूंजीवाद की सीमा को भी रेखांकित किया "व्यापारिक पूंजीवाद सदा सामंती खोल के भीतर विकसित होता है इसलिए पुराने सामंती बंधनो से पूरी तरह मुक्त नही होता". भक्तिकाल के अपने अंतर्विरोध भी थें, सगुण-निर्गुण धारा में समानता और भिन्नता दोनों थी.वे समानता पर अधिक जोर देते हैं.
डॉ शर्मा ने परंपरा के मूल्यांकन और भारतीय संदर्भ में मार्क्सवाद पर काफी लिखा है. मार्क्सवाद को लेकर प्रगतिशील आलोचकों से उनकी बहस भी होती रही.उनका मानना था कि अपनी जातीय परम्परा से कट कर साहित्य का विकास नही हो सकता, इसलिए जरूरी है हैं कि परम्परा का मूल्यांकन कर उसके जनपक्षधर मूल्यों को ग्रहण करते हुए आगे बढ़ा जाए. इसका अर्थ परम्परावादी होना नही है, बल्कि परम्परा को आलोचनात्मक निग़ाह से देखना है. वे ख़ुद ऋग्वेद से निराला तक भारतीय साहित्य की पड़ताल करते हुए उसके श्रमवादी और भौतिकवादी मूल्यों को रेखांकित करते हैं. इस क्रम में वे भाववादी मूल्यों का खंडन भी करते हैं, मगर युग की सीमाओं को पहचानते हुए.परम्परा के मूल्यांकन में वे अलग से 'दूसरी परम्परा' पर जोर नही देतें;क्योकि वे जिस श्रमवादी परम्परा की बात करते हैं उसमें 'शुद्र' सहित तमाम शोषित वर्ग समाहित हैं.
वे मानते हैं कि साहित्य और ललित कलाएं उत्पादन के साधनों के बदलने पर तत्काल नही बदल जातीं, न ही उनका सम्बन्ध यांत्रिक रूप से सरलीकृत ढंग से होता है, बल्कि उनका सम्बन्ध जटिल और अपेक्षाकृत दूर का होता है.मार्क्सवाद के द्वंद्वात्मक चिंतन को अपनाते हुए उन्होंने ख़ुद मार्क्सवाद को आलोचनात्मक निग़ाह से देखने पर जोर दिया. उन्होंने लिखा है "मार्क्सवाद हमे सिखाता है हर चीज पर डाउट करो".उन्होंने मार्क्स के गतिहीन एशियाई समाज की अवधारणा से असहमति जताई और यह भी दिखाया कि मार्क्स ख़ुद अंतिम समय मे इस अवधारणा को छोड़ रहे थें.प्रसंगवश इरफ़ान हबीब और रोमिला थापर जैसे मार्क्सवादी इतिहासकार भी मार्क्स के इस स्थापना से असहमत रहे हैं.1857 की क्रांति के संदर्भ में भी उन्होंने मार्क्स की सूचनाओं की अपर्याप्तता को रेखांकित किया.
भाषा विज्ञान पर उनके कार्य का अभी यथेष्ट मूल्यांकन नही हो पाया है; बावजूद इसके जिन थोड़े लोगों ने इस पर लिखा है, इसे महत्वपूर्ण बताया है. वे किशोरीदास वाजपेयी जी के इस स्थापना को आगे बढ़ाते हैं कि हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाओं का स्वतंत्र विकास हुआ है, न कि उनकी उत्पत्त्ति संस्कृत से हुई है.उनमें आदान- प्रदान का सम्बंध अवश्य रहा है. वे संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश की सीढ़ी को सही नही मानते. भाषा-विज्ञान के अपने अध्ययन में उन्होंने नस्ल के आधार पर भाषा परिवार के विभाजन को अस्वीकार किया तथा सघोष महाप्राण ध्वनि के विश्लेषण के आधार पर इंडो-यूरोपियन भाषा परिवार की भारतीय पृष्टभूमि को रेखांकित किया. उन्होंने दिखाया कि वृहत भारतीय क्षेत्र केवल भाषाओं के आयात का केंद्र नही रहा है, यहां से निर्यात भी हुआ है, मगर उपनिवेशवादी दृष्टि इसे महत्व नही देता. उन्होंने भाषा के आधार पर 'जातियों' के गठन को भी दिखलाया.
उपनिवेशवादी दृष्टि के खण्डन के क्रम में वे अंग्रेजी राज के 'प्रगतिशीलता' को भी प्रश्नांकित करते हैं. उन्होंने दिखाया कि भारत मे अंग्रेजी राज के कायम होने के बाद उसका और ग्रामीणीकरण होता है, देशी उद्योग-धंधे नष्ट होते हैं,जमीदारी प्रथा से किसानों का शोषण बढ़ता है, अकाल बढ़ते हैं, साम्प्रदायिक-भाषायी समस्या बढ़ती है.उनका मानना है कि अंग्रेज न भी आतें तो भारत स्वाभाविक रूप से औद्योगिक-पूंजीवाद के दौर में पहुंचता.साम्राज्यवाद विरोध का डॉ शर्मा के चिंतन में केंद्रीय स्थान है। वे भारतीय समाज के आंतरिक द्वंद्व को स्वीकार करते हैं मगर साम्राज्यवाद के विरोध को प्राथमिक मानते हैं,इसलिए कई जगह जातिवाद के प्रश्नो की तुलना में साम्राज्यवाद विरोध पर अतिरिक्त बल देते हैं और इसके लिए कई मार्क्सवादी लेखकों से भी वैचारिक बहस करते हैं।इसका मतलब यह नही की वे जाति के प्रश्नों से आँख चुराते हैं; उनका समस्त लेखन जातिवाद और पुरोहितवाद के विरोध में है। अवश्य वे समस्याओं का हल 'जाति संघर्ष' में नही वर्ग संघर्ष में देखते हैं।
उपनिवेशवादी दृष्टि के खण्डन के क्रम में वे अंग्रेजी राज के 'प्रगतिशीलता' को भी प्रश्नांकित करते हैं. उन्होंने दिखाया कि भारत मे अंग्रेजी राज के कायम होने के बाद उसका और ग्रामीणीकरण होता है, देशी उद्योग-धंधे नष्ट होते हैं,जमीदारी प्रथा से किसानों का शोषण बढ़ता है, अकाल बढ़ते हैं, साम्प्रदायिक-भाषायी समस्या बढ़ती है.उनका मानना है कि अंग्रेज न भी आतें तो भारत स्वाभाविक रूप से औद्योगिक-पूंजीवाद के दौर में पहुंचता.साम्राज्यवाद विरोध का डॉ शर्मा के चिंतन में केंद्रीय स्थान है। वे भारतीय समाज के आंतरिक द्वंद्व को स्वीकार करते हैं मगर साम्राज्यवाद के विरोध को प्राथमिक मानते हैं,इसलिए कई जगह जातिवाद के प्रश्नो की तुलना में साम्राज्यवाद विरोध पर अतिरिक्त बल देते हैं और इसके लिए कई मार्क्सवादी लेखकों से भी वैचारिक बहस करते हैं।इसका मतलब यह नही की वे जाति के प्रश्नों से आँख चुराते हैं; उनका समस्त लेखन जातिवाद और पुरोहितवाद के विरोध में है। अवश्य वे समस्याओं का हल 'जाति संघर्ष' में नही वर्ग संघर्ष में देखते हैं।
डॉ शर्मा के चिंतन का ध्येय वैश्विक परिप्रेक्ष्य में 'भारतीय देन' को रेखांकित करना भी रहा है. इसलिए उन्होंने दर्शन, कला, साहित्य, सौंदर्यबोध, में भारतीय परिप्रेक्ष्य को वैश्विक संदर्भ में मूल्यांकित किया और उसे दृढ़ता से रखा. और इस विवेचन में उन्होंने भारत को हमेशा बहुजातीय बहुसांस्कृतिक राष्ट्र के रूप में उल्लेखित किया.उनका एक और ध्येय हिंदी को समृद्ध करना रहा है, इसलिए उन्होंने अपना लगभग सम्पूर्ण लेखन हिंदी में किया और अपने आखिरी दिनों तक लेखन नही छोड़ा.उन्होंने जितना विस्तृत क्षेत्र अपने लेखन के लिए सोच रखा था वह एक अकेले व्यक्ति के लिए सम्भव प्रतीत नही होता. कुछ जगह उनके विवेचन में कमी रह जाती है तो इसका एक कारण यह भी लगता है.जो लोग कहते रहें हैं कि डॉ शर्मा इन कार्यों को करने में 'सक्षम' नही थें, उससे ध्वनित होता था कि यह कार्य वे ख़ुद करेंगे अथवा बतायेंगे कि कौन यह कार्य कर सकता है;मगर इतने समय बाद भी उनका 'काम' दिखाई नही देता.बहरहाल अपने तमाम सीमाओं के बावजूद रामविलास जी का कार्य किसी के लिए भी चुनौतीपूर्ण और प्रेणास्पद है, और इस देश की जनता को अपना भविष्य तय करने के लिए उपयोगी भी.
कवर्धा(छत्तीसगढ़)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें