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रविवार, 17 अक्तूबर 2021

अरविन्द यादव की कविताएं


(1)

युद्ध स्थल
__________

युद्ध स्थल, धरती का वह प्रांगण
जहां धरती की प्रवृति सृजनात्मकता के उलट
खेला जाता है महाविनाश का महाखेल
सहेजने को क्षणभंगुर जीवन का वह वैभव
जिसका एकांश भी नहीं ले जा सका है साथ
आज तक सृष्टि का बड़े से बड़ा योद्धा

युद्ध स्थल, इतिहास का वह काला अध्याय
समय जिनके सीने पर लिखता है
क्रूरता का वह आख्यान
जिसे सुन,जिसे पढ़
कराह उठती है मनुष्यता
सदियां गुज़र जाने के बाद भी

युद्ध स्थल दो पक्षों के लहू से तृप्त वह भूमि
जहां दो शासक ही नहीं
लड़ती हैं दो खूंखार प्रवृत्तियां
लडती हैं दो खूंखार विचारधाराएं
बहातीं हैं एक-दूसरे का लहू
बचाने को अपना अपना प्रभुत्व

युद्ध स्थल, प्रतिशोध और बर्बरता की वह निशानी
जहां दौड़ती हुई नंगी तलवारें निर्ममता से
धरती को लहूलुहान कर
छोड़ जातीं हैं न जाने कितने जख्म
मनुष्यता के सीने पर
जिन्हें भरने में कलैण्डरों की कितनी ही पीढ़ियां
थक हार लौट जाती हैं वापस
सौंपकर अगली पीढ़ी को वह उत्तरदायित्व

युद्ध स्थल, गवाह, कमान होती पीठों पर
असमय टूटे, दुःख के उन पहाड़ों के
जहां विजयोन्माद में
निर्ममता से कुचले गए थे वह कन्धे
जिनका हाथ पकड़ करनी थी उन्हें
अनन्त तक की यात्रा

युद्ध स्थल, कब्रगाह उन संवेदनाओं की
जो युद्ध स्थल में रखते ही कदम शायद
होकर क्रूरता के भय से भयभीत
स्वयं ही कर लेती हैं आत्महत्या

युद्ध स्थल,चिह्न उन धड़कती सांसों की वफादारी के
जिन्होंने अपनी निष्ठा की प्रमाणिकता के लिए
ओढ़ ली धरती समय से ही पहले

युद्ध स्थल, स्मारक उस वीरता व शौर्यता के
जिनके सामने घुटने टेकने को हो जाती है मजबूर
अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित
जीवन की अदम्य जिजीविषा

ऐसे समय में जब कि अनेकानेक अश्वत्थामा
संचित ब्रह्मास्त्रों के दुरपयोग से
फिर बनाना चाहते हैं
विश्व को एक युद्ध स्थल
ऐसे भयावह समय में भी
एक कविता ही तो है जो शान्ति की मशाल थामे
निभा रही है अपना दायित्व
ताकि बचाया जा सके विश्व को
बनने से युद्ध स्थल ।

(2)

युद्ध
___

युद्ध परिचायक होते हैं
राज्य लिप्सा की उस प्रवृत्ति के
जिसका हाथ थाम शासक
बने रहना चाहते हैं
सत्ता के शिखर पर

युद्ध चिह्न होते हैं उस क्रूरता के
जो धीरे-धीरे बढ़कर
घोंट देती है गला
सिंहासन की संवेदनाओं का

युद्ध अंकित हो जाते हैं हमेशा हमेशा को
इतिहास के सीने पर
स्याही से नहीं बल्कि
मानव के शरीर से निसृत लहू से

युद्ध नहीं होते हैं क्षणिक उन्माद
युद्ध होते हैं
सनकी शासकों की सोची समझी साज़िश
करने को मनुष्यता का कत्ल
जिसकी पीढ़ा से कराहती रहती है सदियां
सदियों तक।

(3)

तानाशाह
________

तानाशाह नहीं सुनना चाहते हैं सवाल
वे सुनना चाहते हैं सिर्फ
सिर झुकाए सिंहासन की जयकार

तानाशाह नहीं देखना चाहते हैं
अपने बरक्स उठा कोई इंकलाबी हाथ
वे देखना चाहते हैं सिर्फ
सिंहासन के सामने
करबद्ध नतानन

तानाशाह कुचल देना चाहते हैं
उन विचारों को भी
जो भूल कर भी होते हैं उठ खड़े
प्रतिपक्ष में तानाशाही प्रवृत्ति के

तानाशाह सिर्फ कहते हैं अपने मन की बात
जारी करते हैं सिर्फ अपने फरमान
बिना विचारे इस आशा के साथ
कि जनगण ब्रह्म वाक्य की तरह
उसे सुने उसे माने

तानाशाह नहीं चूकते हैं
करने से भी उनका कत्ल
जो अनसुनी करते हैं उनकी बात
अनदेखे करते हैं उनके फरमान

क्यों कि वे भूल जाते हैं तानाशाही में
अतीत के तानाशाहों का वह हश्र
जो दफन है
इतिहास के सीने में ।

(4)

लोकतंत्र
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अचानक देखते ही लाश टूट पड़ते हैं न जाने कहां से
मशीनी पंख फैलाकर असंख्य गिद्ध
कुचली लाश पर

कुछ मंडराते ही रहते हैं निरंतर
पर अज्ञात,सुरक्षा का भाव या उत्सव
बेरहम हत्या पर

देखते ही देखते कौवे भी होने लगते हैं शरीक
इस महाभोज में
और खींचकर ले जाते हैं बोटी-बोटी घोंसलों तक
ताकि खा सकें परिवार संग मिल बांटकर

उत्सव समझकर पहुंचने लगते हैं कुत्ते भी
और खींचने लगते हैं अवशेष
भौंकते हुए गिद्ध और कौवों पर
कि उनका तो जन्म सिद्ध अधिकार है
इस पर

इन सबके बीच दूर स्तब्ध बैठा एक बगुला
देख रहा है इस दृश्य को
टकटकी लगाए

सहसा हड्डी चूसता कुत्ता लपकता है उसकी ओर
और बगुले के पैर के नीचे की
खिसक जाती है जमीन

आगे फिर वही दृश्य
वैसी ही लाश, गिद्ध,कौवे और कुत्ते ।

(5)

वे नहीं करते हैं बहस
___________________

वे नहीं करते हैं बहस जलमग्न धरती
और धरती पुत्र की डूबती उन उम्मीदों पर 
जिनके डूबने से डूब उठती है धीरे-धीरे
उनके अन्तर की बची-खुची जिजीविषा

वे नहीं करते हैं बहस जब न जाने कितने धरती पुत्र 

अपने खून-पसीने से अभिसिंचित फसल
बेचते हैं कौड़ियों के भाव
जिसको उगाने में डूब गए थे
गृहलक्ष्मी के गले और कानों में बची
उसके सौन्दर्य की आखिरी निशानी

वे नहीं करते हैं बहस जब न जाने कितने अन्नदाता
कर्ज के चक्रव्यूह में फंस मौत को लगा लेते हैं गले
जिनके लिए सड़कें पंक्तिबद्ध होकर नहीं थामती हैं मोमबत्तियां
और चौराहे खड़े होकर नहीं रखते हैं दो मिनट का मौन

वे नहीं करते हैं बहस संसद से सड़क तक
तख्तियां थामे चीखते चिल्लाते उन हाथों पर
देश सेवा के लिए तत्पर उन कन्धों पर
जिन्हें जिम्मेदारियों के बोझ से नहीं
कुचल दिया जाता है सरे राह लाठियों के बोझ से

वे नहीं करते हैं बहस बर्फ के मुंह पर कालिख मलती रात में
ठिठुरते, हाथ फैलाए उन फुटपाथों की दुर्दशा पर
जिन्हें नहीं होती है मयस्सर
दो वक्त की रोटी और ओढ़ने को एक कम्बल

वे नहीं करते हैं बहस अस्पताल के बिस्तर पर
घुट-घुटकर दम तोड़ती भविष्य की उन सांसों पर
जिन्हें ईश्वर नहीं
निगल जाती है व्यवस्था की बदहाली
वक्त से ही पहले

वे नहीं करते हैं बहस कभी बदहाल और बदरंग दुनियां पर
आर्तनाद करते जनसामान्य की अन्तहीन वेदना पर
वे करते हैं बहस कि कैसे बचाई जा सके
सिर्फ और सिर्फ मुट्ठी भर रंगीन दुनियां ।

परिचय
अरविन्द यादव
जन्मतिथि-  25/06/1981
शिक्षा-  एम.ए. (हिन्दी), नेट , पीएच-डी.

प्रकाशन - समाधान खण्डकाव्य, विश्व हिन्दी साहित्य वार्षिकांक 2020,  वागर्थ,पाखी,परिकथा,समहुत,कथाक्रम,छत्तीसगढ़ मित्र,अक्षरा,नईधारा, कथा समवेत, विभोम स्वर ,परिन्दे  सोचविचार, यथावत, बहुमत, पुरवाई, सेतु ,स्रवंति,समकालीन अभिव्यक्ति, किस्सा कोताह, तीसरा पक्ष, ककसाड़, प्राची, दलित साहित्य वार्षिकी, रचना उत्सव,डिप्रेस्ड एक्सप्रेस, विचार वीथी, लोकतंत्र का दर्द, शब्द सरिता,निभा, मानस चेतना, अभिव्यक्ति, जन सन्देश टाइम्स,ग्रेस इंडिया टाइम्स, विजय दर्पण टाइम्स आदि  पत्र- पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशितसम्मान- कन्नौज की अभिव्यंजना साहित्यिक संस्था से सम्मानितअखिल भारतीय साहित्य परिषद् द्वारा सम्मानित 

सम्प्रति- असिस्टेंट प्रोफेसर - हिन्दी,

जे.एस. विश्वविद्यालय शिकोहाबाद ( फिरोजाबाद), उ. प्र.।
पता- मोहनपुर, लरखौर, जिला - इटावा (उ.प्र.)
पिन -  206130
मोबा.-9410427215
ईमेल-arvindyadav25681@gmail.com

 

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