1
धूप बनकर कभी हवा बनकर।
वो निभाता है क़ायदा बनकर।
पास लगता है इस तरह सबके,
काम आता है वो दुआ बनकर।
राह मुश्किल या दूर मंज़िल तक,
साथ आता है रहनुमा बनकर।
तपते- जलते हुए महीनों का,
मन खिलाता है वो घटा बनकर।
बात उसकी क़िताब जैसी है,
याद रखता है वो सदा बनकर।
है उसी का यहाँ सभी रुतबा,
ये जताता है वो ख़ुदा बनकर।
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2
उनकी रहती आँख तनी।
जिनकी हमसे है बिगड़ी।
होती अक़्सर आपस में,
बातों की रस्सा- कस्सी।
सुनकर झूठी लगती है,
बातें सब चिकनी-चुपड़ी।
सम्बन्धों पर भारी है,
जीवन की अफ़रा-तफ़री।
चेहरा जतला देता है,
अय्यारी सब भीतर की।
आगे - पीछे चलती है,
परछाई सबकी ,अपनी।
चाहे थोड़ी लिखता हूँ,
लिखता हूँ सोची-समझी।
3
सोचते हैं सब यहाँ।
कब रुकेगा कारवाँ।
दे रहें हैं लोग क्यों,
बेसबब के इम्तिहाँ ।
फ़िक्र है ज़मीन की,
कब झुकेगाआसमाँ।
होंठ भी ख़ामोश है,
ग़म-ख़ुशी के दरमियाँ।
लड़ रही है रात भर,
तीरगी से बिजलियाँ।
जिंदगी का सिलसिला,
वक़्त की है दास्ताँ।
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4
सुनकर जिससे हल निकलेगा।
फ़िकरा वो ही चल निकलेगा।
जब भीतर की गाँठ खुलेगी ,
तब बाहर का सल निकलेगा।
आज बिताया हमनें जैसा ,
वैसा अपना कल निकलेगा।
टकसालें जो सूरत देगी ,
सिक्का वैसा ढल निकलेगा।
खून-पसीना ,काम के ज़रिए,
अक़्सर मीठा फ़ल निकलेगा।
रस्सी आख़िर जल जाएगी,
फिर भी उसमें बल निकलेगा।
भूली -बिसरी यादों के संग,
कैसे लम्हा- पल निकलेगा ।
नवीन माथुर पंचोली
अमझेरा धार मप्र
9893119724
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