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सोमवार, 27 सितंबर 2021

धूप

धूप के स्वागत में

पहट जगे आदमी के आंगन

धूप नहीं उतरती

अटक जाती है अट्टालिकाओं में

जहां सुबह 

ग्यारह की सुई पर निकलती है ।

झाड़ बुहार करती बाई

कचरे की तरह गिरा जाती है धूप मेरे आंगन

तब तक मैं थककर निढाल

सुस्ता रहा होता हूं ।

दोपहरी आंगन में चुपचाप पड़ी धूप

सांझ के लिए सिमटकर

चली जाती है ।

न महल में पसर पाती है

न आंगन में बिखर पाती है

न जाने कैसे जमा-खर्च में

दफ्तर के संवर जाती है ।

अगले बरस लोकतंत्र को जीताने आसमान मे

छा जाती है ।

              - फत्तेलाल चंदेल घुमका

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