कविता -1
गोद में पलती पहचान
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वह दीवारों पर
बनाती है जंगल
फूल-पत्तियां ,
बेल बूटों के साथ
भरती है खुद के बनाए हुए रंग
संस्कृतियों की विरासत को सहेजती हुई
घर के कामों से निवृत्त होकर
उड़ेल देती है सारी कलात्मकता
बालों को सवाँरती हुई
खोंस देती है
मोर पंख
उसकी कला को परखते हैं
जंगल,नदी और वृक्ष
और घर के लोगों की कई जोड़ी आँखें
मुसकुराती हुई
गुनगुनाती है देसी गीत
जिंदगी के मुंह पर लगा देती है
बड़ी गोल बिंदी
उसकी मौजूदगी
करती है जंगल का श्रृंगार...
हर सुबह
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हर सुबह
जंगल उतना ही खुशनुमा होता है
जितना कि
उगता हुआ नारंगी सूरज
गिरता हुआ दूधिया झरना
बिखरता हुआ पराग
किसी पथिक की पहली यात्रा
गहरी आँखों में
एक हरापन उतरता जाता है
अपनी मस्त हरियाली लिए हुए
एक उगता जंगल
कभी अस्त नहीं होता
अलगे दिन की हरियाली को बचाकर
हंसता है एक मुकम्मल हंसी
कोई थका हुआ मुसाफिर
ज्यों गिर पड़ता है नींद के आगोश में
ठीक उसी तरह डूब जाते हैं हर वृक्ष और जीव
यहां किसी शहर सी नहीं जागती
निशाचर अपराधों की दुनियां...
कविता -3
हजार आँखों से देखता है
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वह हजार आँखों से देखता है
मिट्टी सी देह जल उठती है
कुछ और नहीं
मन में उठी गहरी आह है
मत छीनो
इनका हरापन
ये इसी रंग से बने हुए मनुष्य हैं
जीना चाहते हैं
इसी की परछईयों के तले
धीमे धीमे फैलती हुई एक सुगंध
फैलती जाती है
जंगली माहौल में
पत्ते और ज्यादा हरे
और दिन कुछ ज्यादा उजला हो जाता है
सूरज के चेहरे पर
उगती हुई परछाईयां उठ रही हैं
आकाश में छाए हैं बादल
कुछ और नहीं बारिश के संकेत हैं
जो चाहती है बहा लेना सारे दुख दर्द और पुरानी कहानियां
हर चीज से परे
ब्रह्मांड के दूसरे छोर पर
कविता -5
खूबसूरत हवा का पहला झोंका
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खूबसूरत हवा का पहला झोंका
उनींदे स्वप्नों को छूकर निकल जाए
कल्पनाएँ खो जाएं बिखरे हुए गीतों में
मस्तिष्कों में बची रह जाएं केवल खाली खिड़कियां
हवा भी वहे उल्टे रुख से
झरनों में घुल जाए कोई असहः पीड़ा
आकाश में उगे सितारों से
फैले हुए आकाश की कोरों तक
फैली हो सवालों की फेहरिस्त
तब भी अफवाह पर न जाना
देना एक आवाज
संवेदना की आखिरी बूँद के बचे रहने तक
सब्र का बांध टूटने से पहले
मैं बन जाऊंगी एक गहरी उम्मीद की नदी
बहूंगी चेतना के अंतिम प्रहर तक
बस वक्त से पहले
कर लेना दिए के बुझने के पूर्व का अनुमान
और महसूसना मुझे
आकाश की दूधिया रोशनी में
तारों की कतारों में
कहीं जो सिमट जाए रास्ता किसी शूल का रूप लेकर
पांव दुखने की वजह में कर दें नाफरमानी
तो याद करना मुझे
मैं वहीं मिलूँगी
जहां जहां तुम ढूँढोगे मुझे …
बोध का बरगद
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बोध का बरगद
घना होता चला गया
खुशियों भरी थालियों पर
बोझ सी लटकी हुई जड़ें मंडराती रहीं
हरियाली मात्रा में कम और हरी ज्यादा होती चली गई
हर समाधि में
निरंतर मौन जारी है
साधनाओं का गंभीर आंकलन चल रहा है
आस्था और गहराती जाती है
समय की चालों को मात देने और दावा ठोंकने वाले
धराशाही और बेदम
काले पंखों वाली चिड़िया आ बैठती है कमजोर शाखों पर
जो आकाश है पीले प्रकाश के पीछे
उम्र की बढ़ती मजबूरियों को जानता है
हंस रहा है
पृथ्वी की हीन दशा पर
देखता है सारे दृश्य नाटकों के
वो जो बनाना चाहते हैं
सीढ़ियाँ आकाश तक
बेदम हैं आविष्कारों की दुनियां में
जो उगता है चाँद
करवाचौथ और ईद पर
हमारी आस्थाओं की आँखों का काजल है
युगों युगों से उग रहा है चाँद
युगों युगों से घूम रही है पृथ्वी
मन विरक्ति का द्वार है
आसक्ति का भी
पर मुक्ति का मतलब हमेशा रंगहीन प्रकाश है
कविता -7
आस्था
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मुझे क्यों ढूंढते हो
मेरे गहरे हरेपन में
मैं आसान सीढ़ी नहीं तुम्हारे लिए
मुझे देखना है
तो मुझे मन की आँखों से देखो
धड़कनों में महसूस करो
जो मिलती है
तुम्हारी धड़कनों के साथ
बदलते समय में भी कभी न बदलने वाले संगीत की तरह
गूँथी हुई है
ब्रह्मांड के हर कण में
कविता -8
रंज
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सदियों से
पतझड़ को झेलता जंगल
नई जिंदगी की शुरुआत करते वक़्त
कभी नहीं रखता कोई रंज
रिश्ते जुड़े रहते हैं फिर भी
सामान्य दिनों की तरह
ये पुराने किस्से
याद दिलाते हैं पुराने दिनों की
जब हरियाली के वक़्त पत्तों ने किया था कोई वायदा
साथ निभाने का अंतिम सांस तक...
कविता -9
ये जंगल क्या कहता है
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मुझे देखना है तो
आओ मेरी लंबी बिखरी धूप में
मेरे अंधेरे में पसरे चांद की दूधिया रोशनी में
झाँको टिमटिमाते तारों के कोरों से
दिन रात बहती नदी के अनवरत प्रेम
और
लहराते झरने की गोद में रख दो अपना सर
ओस की बूंदों में सोई शीतलता
और टिटिपाती बारिश की बूंदों से कहो
कुछ संगीत रख दें हथेली पर
कुछ देर बैठो
और सुनो
हरी पंखों वाली चिड़िया की कहानी
कि ये जंगल क्या कहता है !
परिचय
नाम :- प्रतिभा चौहान
रचना कर्म :-
प्रकाशन- वागर्थ, हंस, समकालीन भारतीय साहित्य, समहुत, इंद्रप्रस्थ भारती, निकट, अक्सर, जनपथ, आजकल
"कविता कोश" ‘‘हिंदी समय’’ में कुछ कवितायें। आजकल ,अंतिम जन, विकल्प है कविता , इरावती, चौथी दुनिया, संवेदना एवं राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की संचयिका एवं जर्नल में लेख।
प्रकाशित कृतियां:- “चुप्पियों के हज़ार कंबल’’, "जंगलों में पगडंडियाँ " , "बारहखड़ी के बाहर “(प्रकाशाधीन)
"पेड़ों पर मछलियाँ" कविता संग्रह (बोधि प्रकाशन)
"स्टेटस को" कहानी संग्रह शीघ्र प्रकाश्य
बाल कविता संग्रह (प्रकाशाधीन)
पुरस्कार/ सम्मान - 1. लक्ष्मी
2. राम प्रसाद बिस्मिल सम्मान, 2018
3. स्वयंसिद्धा सृजन सम्मान ,2019
4. तिलका मांझी सम्मान, 2020
संप्रति- बिहार न्यायिक सेवा
संपर्क- 8709755377
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