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रविवार, 10 जनवरी 2021

लोक चेतना और साहित्य

 अजय चन्द्रवंशी 

लोक चेतना साहित्य के लिए महत्वपूर्ण जीवन दृष्टि है.मगर लोक और इससे उत्पन्न लोक चेतना, लोकवाद, लोक कविता को लेकर बहस होती रही है.हाल के दिनों में इसमें और भी तीव्रता आयी है. पहले वैदिक परंपरा और लौकिक परंपरा की बात होती थी, जिसमे समन्वय के लिए तुलसीदास जी ने 'लोकहुँ वेदहु नही कछु भेदा' कहा था. हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने इस पर काफी लिखा है और नामवर जी 'दूसरी परंपरा की खोज' में इसी लौकिक परंपरा की बात करते हैं. ये और बात है कि जब वे कविता के नये प्रतिमान रचते हैं तब इसे भूल जाते हैं. रामचन्द्र शुक्ल जी भी जब कविता में 'लोकमंगल' और 'लोक-सत्ता' की बात करते हैं तो उनके सामने भी यह 'अनेक रूपात्मक जगत' ही होता है. रामविलास जी भी जब ऋग्वेद से निराला तक भारतीय साहित्य का मूल्यांकन करते हैं तो इसी भौतिकवादी श्रमवादी परंपरा की तलाश करते हैं. इस तरह हमारे यहां लोक का अर्थ यह रूपमय भौतिक दुनिया और उसमें रहने वाले लोग ही हैं, न की किसी 'रहस्यमय शक्ति' के कल्पित विश्वास पर रचे साहित्य से.इसलिए कोई कवि उस सीमा तक ही लोक कवि है, जिस सीमा तक वह इस यथार्थ जगत और उसके प्रपंचो का कविता में चित्रण करता है.हमारे यहां लोक और परलोक का इसी अर्थ में प्रयोग होता है.

'रहस्यवाद' अपने युगीन सीमा और अंतर्विरोध के परिप्रेक्ष्य में ही सार्थक हो सकता है, जैसे भक्तिकाल में.मगर वहां भी यह ज़मीनी हकीकत से असंपृक्त नही था; वहां 'मोक्ष' की चाह इस कर्ममय जीवन से अलगाव नही है, बल्कि बहुत हद तक इसके सांसारिक दुखों से मुक्ति की चाह ही है, जो सामंती व्यवस्था की विडंबना से उपजती है. छायावादी दौर में भी एक सीमा तक रहस्यवाद का प्रभाव है, जो भक्तिकाल से घटते क्रम में है।यह नयी परिस्थितियों से प्रभावित है।औद्योगिक पूंजीवाद के प्रभाव से सामंती बंधन ढीले पड़ रहे हैं, मगर खत्म नही हुए हैं। इसलिए कवियों में व्यक्तिक अभिव्यक्ति की छटपटाहट तो है मगर अभी सामंती मूल्यों के द्वंद्व से  पूरी तरह मुक्त नही हो सके हैं।

हमारे यहां एक और संप्रत्यय का प्रयोग होता है, 'लोक' और 'शिष्ट'.यह विभाजन मुख्यतः समाज के वर्गीय विभाजन पर आधारित है.समाज का सम्पन्न वर्ग जिसमे शिक्षा का प्रतिशत अधिक रहा है, के साहित्यकारों द्वारा रचित साहित्य मुख्यतः इसमें आता है. यह वर्ग चूँकि साधन सम्पन्न होता है, इसलिए इनके साहित्य की चिंता अलग होती है, जो मुख्यतः व्यक्तिगत अस्मिता की पहचान और कला की 'उत्कृष्टता' की होती है. अवश्य इनमे से कुछ अपने उत्कट संवेदनात्मक लगाव के कारण श्रमजीवी वर्ग से खुद को जोड़ने में सफल रहते हैं।दूसरा वर्ग (लोक) में समाज के निम्न मध्यवर्ग, श्रमिक, किसान,जनजाति वर्ग के लोग आते हैं, जिनकी प्राथमिक चिंता जीवन यापन के साधनों(रोटी, कपड़ा, मकान) को जुटाना होता है.इनके लिए साहित्य में जीवन के जद्दोजहद, साधनों के आभाव की पीड़ा, शोषण के विरोध की अभिव्यक्ति मुख्य होती है, 'कलात्मकता' की चिंता यहां द्वितीयक होती है. हमारी दृष्टि में यही लोक साहित्य का सही प्रयोग है.

उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी में मानव शास्त्रियों ने जनजातीय और ग्रामीण समाजों के अध्ययन के दौरान उनके मौखिक(अलिखित) कथा, गीत के लिए 'फोक' शब्द का प्रयोग किया;तदनुरूप उन्हें फोक सांग, फोक टेल कहा गया और हिंदी में उसके लिए लोकगीत, लोक कथा शब्द का प्रयोग किया गया.इसे ही ध्यान में रखते हुए कुछ लोग केवल ग्रामीण या जनजातीय समाज और उसके समस्याओं, विडम्बनाओं, चुनौतियों, क्षमताओं पर लिखे गए कविता को ही लोक चेतना सम्पन्न कविता मानते हैं, और नगरीय जीवन और उसके विडम्बनाओं पर रचित कविता को इससे अलगाते हैं, जो उचित नही है.हमे लोक का प्रयोग व्यापकता में करनी चाहिए.और इस दृष्टि से निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन, धूमिल, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन,भगवत रावत आदि  लोक चेतना के कवि हैं, क्योकि इनका रचनाकर्म इस हाड़-मांस के श्रमजीवी मनुष्य के सुख-दुख, प्रेम, आत्मसंघर्ष,आशा-निराशा, संघर्ष, उनकी आकांक्षाओं को व्यक्त करता है. 

चूँकि लोकचेतना एक दृष्टि है इसलिए कोई कवि सिर्फ इसलिए लोक कवि नही हो जाता की वह किसानों या जनजातियों का अपनी कविताओं में चित्रण करता है.यदि उसकी दृष्टि 'रोमैंटिक' है तो उसे इनका केवल सौंदर्य पक्ष ही दिखाई देगा, संघर्ष नही.वह अपनी रचनाओं में इनका मात्र सांस्कृतिक विवरण ही प्रस्तुत करेगा.लोक चेतना से सम्पन्न कवि इनके अंतर्विरोधों को पहचानते हुए, इनके शोषण, इनके संघर्ष को भी चित्रित करता है.इस तरह लोकचेतना एक राजनितिक चेतना भी है,जो श्रमजीवी वर्ग का पक्षधर होता है.यहां यह भी स्पष्ट होना चाहिये कि कवि का प्रकृति से रागात्मक संबंध कोई बुराई नही है;यह सहज है.आदिम युग से मनुष्य प्रकृति से साहचर्य में रहता आया है, उसका इंद्रियबोध प्रकृति से प्रभावित होता है, इसलिए प्रकृति के उल्लास से उसका आह्लादित होना या उसके विध्वंश से उसका भयभीत या निराश होना स्वाभाविक है. लेकिन यदि कवि प्रकृति के उद्दीपनों तक ही सिमित रह जाये और उसके प्रपंचो में रहस्य का आरोपण करे और जिस समाज में वह रहता है, उसके अंतर्विरोधों, विडम्बनाओं , उसके यथार्थ से नज़रे चुराये तो यह उचित नही.यह एक प्रकार से लोक से पलायन है.

भाषा के स्तर पर भी लोकचेतना से सम्पन्न कवि न तो अभिजात वर्ग के गढ़े हुए भाषा के अमूर्तन का शिकार होता है, न ही क्षेत्रीय भाषाओं जे बेधड़क, निरुद्देश्य, असहज रूप से खपाने का पक्षधर होता है. क्षेत्रीय भाषाएं/लोकभाषा हिंदी को समृद्ध करती रही हैं, मगर इनके प्रयोग के लिए धैर्य, सावधानी, और उचित अवसर की जरूरत होती है. लोक के नाम पर महज शब्दों को खपाने से कविता निरर्थक और खिचड़ी हो जाती है.लोक चेतना यथार्थवादी चेतना ही है, कभी-कभी यथार्थ की जटिलता औऱ भयावहता को व्यक्त करने के लिए कवि नयी शिल्प या कहन के नए ढंग का प्रयोग भी करता है जैसे मुक्तिबोध के यहां फैंटेसी, रघुवीर सहाय और धूमिल के यहां व्यंग्यात्मकता का जो पुट है, वह भी एक हद तक लोक चेतना को सम्पन्न करता है.मगर इसमे सावधानी की जरूरत होती है, वरना महज चमत्कृत करने के लिए प्रयोग रूपवाद की तरफ ले जाता है.

दरअसल 'लोकचेतना' के लिए किसी शैली विशेष का आग्रह उचित नही है, अलग-अलग समयों में देशकाल के अनुरूप, भाषा-शिल्प के विकासमानता के कारण भी चित्रण में विविधता आती है.इसलिए कबीर से केदारनाथ अग्रवाल तक शिल्प में विविधता सहज है; मूल बात है आमजन के सुख-दुःख, उनके शोषण, उनके आकांक्षाओं समयानुकूल चित्रण. हाँ इतना अवश्य है कि भाषा की 'सहजता' जितनी अधिक होगी उसकी 'बोधगम्यता' की संभावना भी उतनी ही अधिक होगी.लेकिन 'सहजता' हमेशा 'सरलता' नही होती.केवल 'आवेश का बयान' या 'घटना का चित्रण' मात्र कविता नही है, उसमे कवि की बेचैनी और अभिव्यक्ति की छटपटाहट भी होनी चाहिए. आज लोकधर्मिता की दावेदारी करने वाले कई कवियों में इसकी कितनी कमी है; आसानी से देखी जा सकती है.यह नागार्जुन-केदार की परंपरा नही, छद्म लोकवाद है.

 लोक केवल 'जनपद' नही है,वह भी है, मगर उससे अधिक है. कुछ लोग लोक कविता को जनपदीय भावबोध की कविताओं तक सीमित करते हैं; जो पूर्ण सत्य नही है . जरूर महानगरीय भावबोध के बरक्स जनपदीय चेतना को रेखांकित करने के लिये और उसके महत्व को दर्शाने के लिये इस प्रत्यय का प्रयोग होता रहा है, लेकिन लोकचेतना का उचित प्रयोग 'जनचेतना' के संदर्भ में ही अधिक सार्थक है; और लोक की चिंता अंततः 'जन' की चिंता ही है.बावजूद इसके कि लोक एक व्यापक अवधारणा है, जिस तरह कविता में महानगरीय नकली संवेदना,चमक-दमक और बौद्धिक मसीहाई हावी होती रही है,कविता में जनपदीय, कस्बाई,ग्रामीण संवेदना से संपृक्त कविताओं को पहचानने और रेखांकित करने की आवश्यकता है; और जैसा कि शुक्ल जी ने भी कहा है कि जब साहित्य में एकरसता (या नीरसता) आने लगता है तो वह लोक (उनका संकेत जनपद से है) से ही जीवन ऊर्जा प्राप्त करता है.

कवर्धा(छ. ग.)   मो. 9893728320

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