देवेन्द्र कुमार पाठक
मैंने तो मन के
दरवाजे सब बंद किये ,
तुमने आवाजों
की साँकल क्यों खड़का दी
सपनीली नींदों की
रातेे क्यों हड़का दी
सुवधावी कांधों पर
चढ़ बढ़ना आया न,
अपनी कद.काँठी
क़ूवत पर शरमाया न
बाधा विवदाओं से
समझौते किये नहीं
तुमने इन आँखों की
गागर क्यों ढरका दी
देख हवाओं के
अंखमुंद मैं चला नहीं
जड़ मानक मूल्यों के
साँचे में ढला नहीं
अपने मन चीते में
था मैं अधरोष्ठ सिये
तुमने खामोशी की
साँसें क्यों धड़का दी
लेखा - जोखा करना
क्या खोने पाने का,
ऊँचे कुल गोत्रों में
नामांकित होने का,
जिये मगर अपनी ही
शर्तों पर जिये सदा,
तुमने ललकातुर
ये बांहें क्यों फड़का दी’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’
गीत
सुन जरा येआहट
देवे कुमार पाठक
सुन जरा ये आहटें सम्भवनाओं के
मैं बहुत व्यवधान फिर भी
सतत गतिमय गतिमय पाँव भी हैं
शीश पर दुपहर खड़ी लेकिन
कहीं कुछ छाँव भी है
राह तेरी देखती आँखें दिशाओं की
ठोंकता क्यों भाग्य का माथा
अरे थक - हार कर तू
यूँ अधूरी राह चल कर,
बैठ मत मन मार कर तू
थामकर तू बाँह चल दे इन हवा की
रौशनी के बीज मुटठी में
अँधेरा है छुपाये,
हार को भी जीतकर
गलहार सा सीने सजाये
सीढ़याँ चढती सफलता विफलताओं के
गीत
हम तपसी सूरज
आड़ शखंडी तकों की ले
पितामहों पर शर साधगे,
इसी भाँत इस युग के अर्जुन
जीत का सेहरा सर बांधगे
कितनें क्रूर प्रहार वक्ष पर झेल
भीष्म प्रतिवार न करते
आहत होकर भूपर गिरकर,
इच्छा - मृयुवरण करते हैं
आत्मग्लानी का बोझ असहाृय
सिर पर अज्रन अर्जन अपने लादेेगे
चढ़ अनुकूल हवा के
कांधों पर कितनी दूर चलोगें
हम तपसी सूरज भू के
तुम हम शैलों की तरह गलोगे
हम ही तुम्हें वाष्पित कर के
नभ पर मेघों से छा देंगे
हम हक -हिस्से नहीं छिनते
और के कोई छल - बल से,
हम ने जो जितना पाया है,
अपने अनथक श्रम के बल से
जहां - जिधर चल पड़े उधर
हम राहें नई बना देंगे
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1315,सापुरम कॉलोनी, रोशननगर, वाड18; पोट- कटनी,483501;म..प्र
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