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शुक्रवार, 22 जनवरी 2021

सुमित दहिया की कविताएं


दसवां दिन 


चाँद की बमुश्किल उपस्थिति में
दीये की धीमी लौ के पास बैठी
एक युवा भावुक महिला
अपनी कोठरी की नंम दीवार के बीच स्थित
उस छोटी एकतरफा खिड़की से 
हर रात सरकारी सड़क का भूगोल निहारती है

अपनी आंखों से तरल गलतियां गिराती हुई
वह सुनती है मेंढकों की आवाज़
कुत्तों का भोंकना
और संवेदनशीलता के परिणाम
क्योंकि उसके जीवन मे कभी संगीत उत्पन्न नही हो पाया

उसके शराबी आदमी ने शादी के दसवें दिन ही
उसके जीवन संगीत को यह कहते हुए मुखाग्नि दे दी
कि खाली क्यूं बैठी है
चल लिफाफे बनाना शुरूकर
तब से रात-दिन चलती लिफ़ाफ़ों की मशीन
उसके जीवन का नया संगीत बन गई

उसने नही देखे हिलस्टेशन और वादियां
चिनार और देवदार के ऊंचे वृक्ष
और उन पर कूदते फांदते लंगूर,बंदरो से भी
उसका कोई परिचय नही
मनाली और लेह के पहाड़ो पर सरकती सफेद बर्फ की मोटी चादर
और ऊंचे पहाड़ी शहरो की चिमनियों पर जमे ठोस विचारों से भी
वह वाकिफ नही
कभी वह टॉय ट्रैन के टायरों पर लुढ़कती हुई 
किसी शानदार पहाड़ से नीचे नही उतरी
और न कभी मॉल रोड पर बैठकर आइसक्रीम खाने का आनंद लिया
जयपुर के किले और महल भी
उसकी युवा समस्याओं से हमेशा दूर ही रहे
उसे कभी नही मिले ताज़ा पानी छिड़के हुए लाल गुलाब
और रक्त में मौजूद कीटाणुओं को पोषित करने वाले
चंद प्रेम भरे मीठे शब्द

फिर भी उसने कुछ बुनियादी सपने देखे
शराबी आदमी की निरंतर मार खाकर
लिफाफे बनाते हुए
गहरे एकांत में अपनी ममता पिंघलाती रही
आत्मा पर लगे लकवे को ताउम्र ढोती रही
अपनी हथेली पर बने पीले निशान को लगातार चौड़ा होते देखती रही
युवा दिनों में लगी सांस की बीमारी को
जब तक संभव हो स्थगित करती रही
और प्रतिदिन पूरे शरीर की नए सिरे से
इस उम्मीद में चुनाई करती रही
कि कभी अपने गर्भ पर रंदा लगवाकर उत्पन्न होने वाले चेहरों की कामयाबी देखेगी
जीवन के किसी पड़ाव में अपनी मेहनत सार्थक होते देखेगी

हाँ
अब उसके बनाये हुए लिफाफे उड़ते है
चंडीगढ़ तक
और यक़ीनन वे एक दिन जरूर उड़ेंगे
दिल्ली तक

तुम कितने भी बड़े बुद्धिजीवी, वैज्ञानिक या डॉक्टर हो जाओ
यह कभी नही बता पाओगे
कि कितनी बार तुम्हारी माँ के आंसू
तुम्हारी हिचकी बने।।


दुलीचंद 

एक पीले दांतो वाला बूढ़ा आदमी
जिसके गले मे फटा हुआ अभागा गमछा पड़ा है
और धारीदार कमीज़ पर लहू की चंद बूंदे मौजूद है
अपना नाम दुलीचंद बताता है
वह प्रतिदिन अपनी झोपड़ी में 
मुझे चाय उबालता हुआ दिखाई पड़ता है
जब सांझ अमीरों की ठोकरों से टकराकर 
उसकी झोपड़ी की तरफ सरक रही होती है
और सूरज अपनी जिद्द छोड़कर
एक परिचित दिशा की तरफ लुढक रहा होता है

मेरे सैर करने वाली सड़क के किनारे स्थित 
उसकी झोपड़ी के निकट खड़ा मै यह दृश्य देखता हूं
कि वहाँ अंदर कुछ ठंडे बर्तन बिखरे पड़े है
जिन पर वक़्त की ऊबड़-खाबड़ धूल जमी हुई है
थकावट को लेटाने के लिए एक कोना आरक्षित है 
जिसके बगल से चींटियां कतारबद्ध अनुशासित गुजर रही है
स्टॉप के तीन तरफ लपेटा हुआ लोहे का टुकड़ा
तेज़ हवा में निरंतर बजता हुआ एकांत खंडित करता है

वह प्रतिदिन वहाँ फैली सब चीज़ों पर सांसे टपकाता हुआ
चाय में अपनी गरीबी उबालकर 
उसे खूब गाढ़ी करता जाता है

एक कतार में सिगरेट के पैकेट लगे हुए है
जिन पर लिखित चेतावनी नीचे की तरफ दब गई है
और लोगो द्वारा छोड़ा गया बेलगाम धुंआ 
उसके चेहरे की पुरानी झुर्रियों और चेचक के दागों में कैद है

वही झोपड़ी के आखिरी छोर पर
चंद पुराने बदहाल गीले अखबार पड़े है
जिनमे बहुमत खोने के कारण
एक राज्य सरकार गिर गई है
और मध्यावधि चुनावो की तारीखों का ऐलान हुआ है
युवाओं में नशे की लत तेज़ी से फैल रही है
सीज़फायर का लगातार उल्लंघन होने से जवानों की शहादत बढ़ गई है
एक बच्चा व्यवस्था के खुले बोरवैल में गिर गया है
जहाँ अब कुछ प्रशासनिक चेहरे ताक-झांक कर रहे है
और सबसे अंतिम पेज की अंतिम खबर में 
एक कर्ज़दार किसान फंदे पर झूल रहा है

तभी मै खुद को समेटकर अचानक 
उससे यह सवाल करता हूं
दुलीचंद क्या तुम्हें पता है
तुम्हारी झोपड़ी के चारो तरफ लिपटे हुए 
इस काले सफेद पोस्टर में क्या लिखा है
वह कहता है, नही बाबूजी
यह तो पास ही फटा हुआ नीचे पड़ा था
तो मैंने इससे अपनी चारदीवारी कर ली

मैंने कहाँ
इसमे लिखा है
          

फिर उसने पूछा इसका क्या मतलब है
और मै वहाँ से बेमतलब चल पड़ता हूं।


परिचय

अंधेरे से अंधेरे का परिचय होते ही
मैंने जाना
यह सब तो पहले भी कई दफा हो चुका
बहुत बार भरसक प्रयासों द्वारा
और कई बार अचानक मुठभेड़ की भांति
क्या फर्क है
इस तथाकथित नयेपन में

उसकी दमित जांघे जाते वक़्त छींकते हुए गई
उस आखिरी मुलाकात में
पूरे सफर के दौरान
पटरियों पर बिखरता गया एक और तरल सफर
और साथ ही बिखरता गया वह अंतिम दिन
जिसे उसके कमरे की दीवार पर चिपका छोड़ आया था

अब ये ताज़ा उपजाऊ कौमार्य आया है
उन्नत नस्ल के बीज की खुश्बू ओढ़कर
जिसके शरीर का दक्षिणी भाग लगभग अमेरिकी है
युवा शिलाओं से झड़ता अनुपातिक चुरा 
कितना गाढ़ा, दानेदार और खुरदरा होता है
हिलते परदों से आती तीव्र रोशनी
उम्मीदों के साथ मानो खिलवाड़ सा करती है

मगर फिर भी फर्क है
चौबीस घंटे मेरे साथ ठिठुरती हुई भावनाओं को
इक नई ताज़गी पुर्ण गर्माहट का एहसास है
आंखों में चुभ रहे अनेको शहरों, गलियों को
एक नया स्थिर पता मिल रहा है
नवजीवन का प्रवाह बह निकला है
हाँ सामने खड़े दिलकश तनाव का गहन फर्क है
और अंततः 
यह नयेपन से उदित फर्क तथाकथित भी नही लगता।


संपर्क :-
हाउस न.7सी, मिस्ट होम सोसाइटी, हाइलैंड मार्ग, 
जीरकपुर(140603), मोहाली ,पंजाब
मोबाइल - 9896351814

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