समीक्षक : डॉ. राजेन्द्र वर्मा
पुस्तक
दोहाकार : डॉ. ब्रह्मजीत गौतम (मो. 9760007838)
प्रकाशक : नैस्ट बुक बडीज़ पब्लिकेशन, नई दिल्ली
प्रकाशक : नैस्ट बुक बडीज़ पब्लिकेशन, नई दिल्ली
मूल्य : 200 रु., प्रथम संस्करण – 2019
हिंदी काव्य-जगत के जाने-पहचाने हस्ताक्षर हैं। मुक्तक, गज़ल, दोहा आदि विधाओं में उन्होंने साधिकार सफल काव्य रचा है। समीक्षक के रूप में भी उन्होंने अपनी पहचान बनायी है। ‘एक बहर पर एक गज़ल’ नामक गज़ल-संग्रह से उन्होंने काफी प्रतिष्ठा अर्जित की है। हाल ही में उनका दोहा-संग्रह आया है जिसका शीर्षक है—दोहे पानीदार। इसमें विविध विषयों पर कवि के 520 दोहे संगृहीत हैं, जो वर्णक्रमानुसार (संख्या सहित) व्यवस्थित हैं, अर्थात ‘अ’ से ‘ह’ तक। यह एक अभिनव प्रयोग है।
एक सजग रचनाकार होने के नाते, दोहाकार ने पुस्तक की भूमिका में दोहे के शिल्प के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी दी है। कथ्य में दुहराव, अस्पष्टता, पूर्वापर सम्बंध आदि पर सोदहरण चर्चा है, तो शिल्प की दृष्टि से भी मात्रा-गणना, यति-दोष, ग्यारहवीं मात्रा लघु न होने से लय में बाधा, तुकांत-दोष आदि पर नये रचनाकारों तथा असावधान पुराने दोहाकारों के लिए सोदाहरण उपयोगी जानकारी है। एक दोहा देखिए—
अगर व्याकरण पंगु है, और शिथिल है छंद ।तो फिर पाठक सृजन का, लेंगे क्या आनन्द ॥ 5 ॥
संग्रह में विसंगतिपरक साम्प्रतिक यथार्थ, उद्बोधन, विश्वबंधुत्व, कर्मयोग का महत्त्व, पाखंड पर प्रहार, पर्यावरण-रक्षा आदि विविध विषयों पर एक से बढ़कर एक दोहे हैं। राजनीतिक दाँव-पेंच, अपराधियों को संरक्षण, पूँजीपतियों का स्वार्थ, मानवीय मूल्यों में गिरावट आदि अनेकश: विसंगतियों और विद्रूपताओं पर उनकी बेबाक अभिव्यक्ति देखिये —
बहस नहीं, बस शोरगुल, या शब्दों के तीर ।यह है अपने देश की, संसद की तस्वीर ॥349॥
सारी नदियाँ पी गया, फिर भी बुझी न प्यास ।
रे समुद्र ! तू आज का, पूँजीपति है ख़ास ॥476॥
दोहाकार के सृजन का उद्देश्य केवल विसंगतियों के चित्रण तक सीमित नहीं है, वह संसार को सुंदर देखने की साध रखता है। श्रम की महिमा पर एक प्रेरक दोहा देखिये —
श्रम है जिसका देवता, है श्रम ही आराध्य ।जीवन में उसके लिए, कुछ भी नहीं असाध्य ॥452॥
संग्रह में विविध रसों का समावेश है — वह चाहे शृंगार हो, हास्य हो अथवा वीभत्स। व्यंग्यपरक दोहों की तो भरमार है, जिससे पठनीयता समृद्ध हुई है। विभिन्न रसों में पगे अलग-अलग विषयों पर ये दोहे देखिये —
हरे नोट की ओट में, क्या-क्या होती चोट ।मुर्दा भी चलकर स्वयं, डाल गया निज वोट ॥509॥
पीते हैं घी-दूध नित, पत्थर के भगवान ।
शिल्पकार उसके मगर, तजें भूख से प्रान ॥315॥
दोहों की भाषा अधिकांशत: तत्सम है लेकिन अभिव्यक्ति की सुगमता के लिए उसमें उर्दू के बोलचाल के शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं। कवि को अग्रेज़ी के प्रचलित शब्दों से भी परहेज़ नहीं है, जिससे दोहों में अपेक्षित व्यंजना के साथ सामयिकता का सम्यक समावेश हो सका है-
रखिये अंडरवर्ल्ड से, हर पल मेल-मिलाप ।ये ही तो सरकार के होते, माई-बाप ॥412॥
हमको हिंदी मीडियम, उनको है कॉन्वेंट ।
जनता अब अभ्यस्त है, खाने को यह डेंट ॥493॥
यद्यपि दोहाकार ने दोहे के पहले और तीसरे चरण की ग्यारहवीं मात्रा लघु होने की बात सशक्त ढंग से की है, लेकिन कहीं-कहीं इसका पालन नहीं हुआ है। इसी प्रकार कुछ दोहों में अस्पष्टता भी द्रष्टव्य है, जैसे दोहा सं. 235 – तेल-पगी बाती लिये, दीप जले दिन-रात / दृढ़-संकल्पी को भला, क्या आँधी, बरसात। दोहा सं. 274 – नदी, ताल, पोखर, कुएं, हुए ग्रीष्म में रेत / हृष्ट-पुष्ट जन को लगे, ज्यों मसान के प्रेत। दोहा क्र. 514 – हुईं तुषारापात से, फसलें सभी तबाह / आजादी के बाद ज्यों, राम-राज्य की चाह। दोहा सं. 49 और 125 का एक ही कथ्य है, बल्कि बाद वाले दोहे में पहले वाले दोहे के तीसरे और चौथे चरण की पुनरावृत्ति भी है, तो निम्नलिखित दोहे के पहले चरण में, बाँचने के स्थान पर देखने का भाव आना अधिक सार्थक होता —
अंधा बाँचे फ़ारसी, गूँगा भाषण-वीर ।पंगु कबड्डी खेलता, कुर्सी की तासीर ॥9॥
निम्नलिखित दोहे में कबीर के एक प्रसिद्ध दोहे की स्पष्ट छाया है—
जो करना है आज कर, कल पर छोड़ न काम ।पता नहीं कब काल का, आ जाये पैग़ाम ॥199॥
उपर्युक्त छोटी-मोटी कमियों के बावज़ूद संग्रह की उपादेयता कम नहीं हो जाती। संग्रह न केवल पठनीय, मननीय और संग्रहणीय है, बल्कि इसके दोहे, वर्तमान दोहा-साहित्य को समृद्ध करने वाले हैं। रंगीन कवर की 120 पृष्ठीय पुस्तक (पेपरबैक संस्करण) का मूल्य रु. 200/- मात्र है जो आजकल की प्रचलित दरों के हिसाब से ठीक ही है। पुस्तक प्राप्त करने के लिए बेस्ट बुक बडीज़ के सेल्फ प्रकाशन विभाग के प्रमुख श्री राहुल शिवाय के व्हाट्सऐप नं. 82954-09649 पर सम्पर्क किया जा सकता है।
चट्टानों को चीरकर, ऊपर आती घास
जीवन में संघर्ष का, पाठ पढ़ाती घास
सोच सकारात्मक रखें, फिर देखें परिणाम
‘मरा-मरा’ कहते हुए, मुख से निकले ‘राम’ !
बीच नदी होकर खडा, पाल रहा पुल धर्म
दोनों कूल मिला दिये, किया लोकहित कर्म !
धूप पड़े, देता तभी, तरुवर छाँव ललाम
भयवश ही करता मनुज, जग-हितकारी काम !
गरज-गरज कर कल तलक, गिरा रहे थे गाज
पानी-पानी हो गये वे सब बादल आज !
पानी सूखा ताल का, तल में पडीं दरार
ज्यों सज्जन का उर फटा, खा धोखे का वार !
पानी की लहरें गिनें, या पानी के मोड़
रिश्वतख़ोरों के लिए, हर धंधा बेजोड़ !
आज मनुज है हो गया, सूरजमुखी समान
लाभ जिधर है देखता, करता उधर रुझान !
हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख हैं, है कोई ख्रिस्तान
इन सब में ढूँढ़ू कहाँ, अपना देश महान !
लोकतंत्र पर चढ़ गयी तंत्र-लोक की बेल
नेता बाज़ीगर बने, जनता देखे खेल !
जातिवाद, क्षेत्रीयता, मज़हब, भाषा-भेद
लोकतंत्र की नाव में हुए हज़ारों छेद !
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यार क्यों है ख़फ़ा बताये तो
अपने शिकवे-गिले सुनाये तो
गीत खुशियों के गाऊँ मैं कैसे
बे-वफ़ा ! दिल तुझे भुलाये तो
दूर कैसे हों ग़म मुहब्बत के
चारागर कुछ दवा खिलाये तो
चाँद बे-वक़्त डूब जायेगा
मेरी छत से गुज़र के जाये तो
बंद कलियाँ भी मुस्करा देंगी
इस चमन में बहार आये तो
दूर होंगे अँधेरे पल-भर में
एक दीपक कोई जलाये तो
नूर छा जायेगा फ़ज़ाओं में
‘जीत’ कोई ग़ज़ल सुनाये तो
लेखक : डॉ. ब्रह्मजीत गौतम
युक्का-२०६, पैरामाउण्ट सिंफनीक्रॉसिंग रिपब्लिक, ग़ाज़ियाबाद – २०१०१६
चलभाष : ९७६०००७८३८, ९४२५१०२१५४
bjgautam2007@gmail.com
समीक्षक
डॉ. राजेन्द्र वर्मा
3/29, विकास नगर
डॉ. राजेन्द्र वर्मा
3/29, विकास नगर
लखनऊ – 226-60096
चलभाष : 80096 60096
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