आज के रचना

उहो,अब की पास कर गया ( कहानी ), तमस और साम्‍प्रदायिकता ( आलेख ),समाज सुधारक गुरु संत घासीदास ( आलेख)

सोमवार, 23 नवंबर 2020

आप कहने की आदत क्यों बदल रहे है.गौतम

 गोपेंद्र कु सिन्हा गौतम
उच्च पदों पर आसीन लोगों में अपने सहयोगियों और अन्य कनिष्ठ कर्मचारियों को आप कह कर संबोधन करने की प्रवृत्ति तेजी से विलुप्त हो रहा है।
सबसे दुखद बात शिक्षा जुड़े शैक्षणिक संस्थानों में भी यह गलत परंपरा जगह बनाना शुरू कर दिया हैण्ण्ण्ण् जिन लोगों पर दूसरों में नैतिकता और संस्कार पैदा करने की जिम्मेवारी है वे भी किसी के सम्मान में कटौती करके अपने आप को सम्मानित महसूस करने लगे हैंण्ण्ण्
 इसके पीछे मुख्य कारण जो मुझे लगता है अब शैक्षणिक और प्रशिक्षण संस्थाओं में इन बातों पर ध्यान नहीं दिया जाना हो सकता है या उच्च पदों पर आसीन लोगों के मन में अपने आपको सुपर पावर समझने की प्रवृत्ति या झूठी शान है।इस जहां में सभी के ऊपर कोई न कोई है फिर अपने आप को दूसरों के सामने गलत तरीके से पेश करने से भला लाभ तो किसी को भी होगा नहींएफिर भी लोग दूसरे को सम्मान देने से हिचकते क्यों है घ् हमारे भारतीय सभ्यता और संस्कृति हमेशा से हमें दूसरों को सम्मान देना सिखलाता है।लेकिन वर्तमान समय में यह प्रवृत्ति बिल्कुल विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गया है खास करके उच्च पदों पर आसीन लोगों में। यह बीमारी अब कार्यालयों से घर तक पहुंचने लगा है जहां छोटे बड़े के संबोधन में कोई फर्क नहीं रह गया।धड़ल्ले से तुम शब्द का प्रयोग किया जाने लगा है।ष्आपष् कहीं किसी कोने में दुबक कर सिसकने लगा है।
पिछले दिनों मेरे एक मित्र ने बताया कि आजकल कार्यालयों में काम करना बहुत मुश्किल हो गया है उसका उसने एक उदाहरण दिया वह जहां आजकल वह कार्य करता है वहां पिछले 38 वर्षों से लगातार काम कर रहे हैं ज्ञानदेवसिंह को उनके उच्च पद पर आसीन व्यक्ति जो बमुश्किल से 30 वर्ष के हैं आप की जगह दूसरे अनादर व्यक्त करने वाले शब्दों का प्रयोग कर संबोधित करते हैं। मेरे मित्र ने बताया इस बात से ज्ञानदेव सिंह हमेशा दुखी रहते हैं।वे बताते हैं आज के उच्च पदों पर आसीन लोगों में आदर सम्मान के साथ साथ नैतिकता की घोर कमी है।इसके कारण अपने उच्च पदाधिकारियों से वह आत्मीय संबंध नहीं जुड़ पाता जो कभी जुड़ा हुआ वह महसूस करते थे ।ऐसा नहीं है कि सिर्फ इसका खामियाजा कनिष्ठ कर्मियों को ही भुगतना पड़ता है बल्कि उसका खामियाजा वरिष्ठ कर्मियों और पदाधिकारियों को अपने सहयोगी यों से 100ः काम लेने में भुगतना भी पड़ता है।फिर भी वे लोग अपनी आदत से बाज नहीं आते।इस बारे में मेरा मानना है किसी को इज्जत और सम्मान देने से किसी व्यक्ति या संस्था का सम्मान कम नहीं होता बल्कि इसके उलट बढ़ जाता है। वैसे उच्च पदों पर कुछ लोग आज भी हैं जो दूसरे लोगों को सम्मान देना जानते हैं और उनसे सम्मान लेना भी जानते हैं और इसका लाभ भी उन्हें अपने सहयोगी से भरपूर मिलता रहता हैण्ण्ण्ण्

गौतम द गेम चेंजर
सामाजिक और राजनीतिक चिंतक
दाऊदनगर औरंगाबाद बिहार

9507341433

.क्षितिज जैन '' अनघ '' की दो रचनाएं

  टीसते छाले 

छल छंद के रोग प्रबल

यहाँ सभी ने रखे पाले हैं

जो भी मन टटोला गया

दिखे टीस मारते छाले हैं।

मिला जहाँ भी अवसर

निज स्वार्थ साधने का

बक भक्तों ने निस्संकोच

मुखौटे बाहर निकाले हैं।

प्रतिहिंसा की आँच में

झुलस गया हर मानव

घाव घृणा और क्रोध के

हमने सहेजे.सम्हाले हैं।

श्वेत उत्तरीयों में ढँकी

सुनिर्मित सुडौल देह

पर उन वसनों के पीछे

छिपे हृदय बड़े काले हैं।

सर्वत्र होती सुवासित

उच्छृंखलता की मादकता

बिखरे पड़े चारों ओर

अभिमान के प्याले हैं।

क्षुद्रता की कसौटी पर

सर्वोपरि कहलाया अवसर

हमने अब सिद्धान्त सभी

इसी कसौटी में ढाले हैं।

 कवि की चेतना

जहाँ सत्ता मृत्यु सी मूर्च्छा की

चेतना की जाग्रति प्रतिषिद्ध है।

उन्हीं काली दीवारों के तल में

नन्हा दीपक टिमटिमाया है

नए प्राण भरने सोये विश्व में

विद्रोही कहलाता कवि आया है।

सृजन की जय को किया पुनरू

निज रचना से सत्य सिद्ध है।

उसके स्वर को कुचलने का

हर संभव था प्रयास हुआ

जैसे जैसे उसे दबाया गया

कविता का विकास हुआ।

भूगर्भ का लावा बनकर 

वह कविता हुई प्रसिद्ध है ।

जब भी कोई चेतन मानव

सृजन के वे गीत गाता है

जीवन का वह अमर कवि

जय का उत्सव मनाता है।

चेतना में खुद विलीन होकर

कवि ने जीवन किया समृद्ध है।

kshitijjain415@gmail.com

सोमवार, 2 नवंबर 2020

मौत ताँडव मचा रही है

✍जितेंद्र सुकुमार  'साहिर ' शायर
 
मौत  ताँडव   मचा   रही  है  अभी
सब की दहशत में  ज़िंदगी है अभी

एक   मुद्दत   से  हूँ   असीरे   ग़म
क़ैद  जाने   कहाँ   ख़ुशी  है  अभी

मेरी  तफ़्तीश  में   तो सब  कुछ है
जाने किस चीज़ की कमी है अभी

शह्र वाक़िफ़ है उस की अज़्मत से
जिस के हाथों में हथकड़ी है अभी

गाँव    वाले     भले     तरसते   हैं
शह्र  में   बाक़ी   रौशनी   है  अभी

गाँव   क़स्बे   की   छोड़िये  साहब
पूरी  दुनिया  में  खलबली  है अभी

कल तलक ख़ौफ़  नाक लगता था
जिस  के चेहरे  पे सादगी  है अभी

वक़्त  नाजुक है  आ भी  जाओ तुम
साँस रूकरूक के चल रही है अभी

ख़ुद  ही उलझन  में हैं  घिरे  साहिर
दूसरों   की   किसे   पड़ी   है  अभी

 *एकांत विला*  पदमा तालाब के सामने
 थाना पारा राजिम,पोस्ट  राजिम,
 जिला गरियाबंद (छत्तीसगढ़ )493885
व्हाट्सएप नंबर 90091 87981,9827345298

 

नीरज सिंह कर्दम की रचनाएं

नीरज सिंह कर्दम की रचनाएं
यह संसार नही दरिंदो का मेला है
ऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋ

यह संसार नही दरिंदो का मैला हैए
हर गली नुक्कड़ पर शैतान डाले यहां पहरा है ।
कैसे बाहर निकले बेटियांए हर तरफ खतरा गहरा है
खुले घूमते हैं यहां भेड़ियाए घात लगाए बैठे हैं ।

बेटियों का जीवन कैसे बच पाएगा
हर सपना अब कैसे साकार हो पाएगा ।
घर के दरवाजे पर ही खूनी दस्तक होती है
घर में सुरक्षा नहीए बाहर कैसे सुरक्षित रह सकती है ।

किसके भरोसे निकले बाहर अपने घरों से
सत्ता में बैठे नेता मंत्री भी दरिंदे बन बैठे हैं ।
पुलिस सुरक्षा के रूप में भी भेड़िया अब दिखता है
रातों रात चिता जलाकर पुलिस अपना फर्ज निभाती है ।

यह संसार नही दरिंदो का मैला है ए
आजादी है यहां बेटियों को कागजों के टुकड़ों पर ।
जमीं पर बेटियों की नोची गई लाश का चिथड़ा है
कैसी बचेंगी बेटियांए सुरक्षा बस एक जुमला है ।

आज मानवता शर्मसार हुई हैए देशभक्ति बदनाम हुई है
देश की बेटियों सरकारें भी तो शामिल हैंए तुम्हारी बर्बादी में ।
उन्होंने देखी जाति पहले फिर दो शब्द वो बोले
बलात्कारियों पर होगी कार्रवाईए कहकर मन ही मन डोले ।

हर क्षण उगते हैं खरोंच के नए निशान इन नितम्बों पर
अब तो इनके सबूत के तौर पर खून के धब्बे भी नही बनते ।
ना जाने कितने अरमानों का बलात्कार होता है यहां रोज 
यह संसार नही दरिंदो का मैला है ।
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मैं कातिल हूं
ऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋ

यह तो साफ हो चुका है कि
इंसान की शक्ल चमचे जैसी ही नही होती हैए
दोनों हाथों में तलवार लिए
लाल आंखें ए
शेर जैसी दहाड़ मारती हुई वो तस्वीरें भी
मोम की बनी होती है
जिन्हें जरा सी आग की सेंक दी तो
पिघल जाती है ।

अब तुम ही देख लो आज
चमचे कैसे चापलूसी में लगे रहते हैं
हथियार बनकरए अपनों का ही कत्ल कर देते हैं
कुछ भी पाने की खातिर वो
तलवे भी बड़ी शान से चाटते रहते हैं ।

मैं मौन नही रह सकताए मै एक कवि हूं
मेरी कलम ही मेरा हथियार है
मैं लिखता हूंए लिखता रहूंगाए
अगर तुम कहते हो कि मैं कातिल हूं
तो हां हूं मैं कातिल ।

मैने अपनी कलम से बार किया है उन पर
जो सबकुछ देखते हुए भी मौन थे
मैंने अपनी कलम से कत्ल किया है उनका
जो कर रहे थे कत्लेआमए लूटपाट
हक का क़त्ल कियाए सच को किया लहूलुहान ।

चमचों पर चलती है कलम मेरी
उनकी सच्चाई लिखने कोए
अपनी ही नजरेंए अपनी आंखों से मिलाओ
और देखोए क्या सामना कर सकती हैं
तुम्हारी इस सच्चाई काए कि तुम तलवा चाटी कर रहे हो ।

मुझे देशद्रोही भी कहा जाएगाए
मुझे हत्यारा भी कहा जाएगा
और कटघरे में खड़ा कर दिया जाएगा मुझको
पूछे जाएंगे मुझसे बहुत से सवाल
मगर मै सच कहता हूंए मैं सही कहता हूं
चमचोंए तलवा चाटूकारों पर कलम चलाई मैंने
कलम चलाता रहूंगा मैंए
अपनी कलम से कत्ल किया है उनकाए उनके जमीर का
तो मैं कातिल हूंए मैं कातिल हूं ।
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जाति की खातिर
.........................

जाति की खातिर
बचा रहे हैं बलात्कारी को
न्याय कैसे मिलेगा
अपराधी बना रहे हैं पीड़िता को ।

दलित की बेटीए दलित की बेटी
मीडिया रोज चिल्लाती है
गुनाहगारों की जाति बताने से
मीडिया क्यों कतराती हैं ।

वो कौन है घ्
क्यों उन्हें सरंक्षण दिया जा रहा है घ्
जो बलात्कारियों के पक्ष में उतरा है सड़कों परए
रोज कई कई गांवों की पंचायत लगा रहा है ।

अपराधी को बचाने में जुटे अब लोग हैं
पंचायत फरमान सुनातीए वो लोग निर्दोष हैं
घर वालों ने ही मारा बेटी कोए
बलात्कारी नही वो सब निर्दोष हैं ।

दोषियों को बचाने की कोशिश पूरी है
इंसाफ कैसे मिलेए शासन प्रशासन की हां हुजूरी है
लोकतंत्र अब रोता हैए कत्लेआम जब होता है
संविधान पर हर प्रहार गहरा होता है ।
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चुप्पी
ऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋ

चुप्पी तोड़िए
मीडियाए
क्यूं खामोश बैठे होए
क्यूं मौन है आज
तुम्हारे केमरे और माईकए
क्या आज कोई 
ब्रेकिंग न्यूज नही मिली ।
या तुम्हारे आकाओं ने
इजाजत नहीं दी तुमकोए
हाथरस पर खबर
चलाने की ।
मनीषा के साथ हुए
अन्याय परए
मनीषा को इंसाफ
दिलाने के लिए
आवाज क्यों नही 
उठाते हो आजए
क्यूं
मनीषा देश की
बेटी नही है घ्
या किसी
ठाकुर ब्राह्मण
की बेटी नही है घ्
मनीषा के हत्यारे
दलित समाज से
नही है घ्
वो बेटी है
दलित समाज
उसके हत्यारे हैं
ठाकुर समाज के ।
अरे कुछ तो शर्म करो
घर में तुम्हारे भी बेटी है
एक बेटी की खातिर
इंसाफ के लिए लड़ो ।
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ख़ामोशी
ऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋ

खामोश बैठे हो
नेता जी
क्या आज तुम नही बोलेंगे
अपने समाज की बेटी के
साथ हुए अन्याय परए
आज वो दहाड़
नहीं निकलेगी
तुम्हारी ज़ुबान से
गरजती है जो
चुनाव के वक्त
समाज के लिए
बहन बेटियों के लिए
आज लाल आंखें
नही दिखाओगे
दुश्मन कोए
तुम्हें सुनाई नहीं देती
आज मनीषा की चीखेंए
आज तुम
अंधे गूंगे बहरे हो गए हो ।
क्योंकिए
तुम दलाल बन चुके हो
तुम गुलाम हो
तुम चाटते हो तलवे उनकेए
कहीं छीन ना जाए
तुमसे पद तुम्हारा
इसलिए तलवे चाटते हो ।
अपने पद की खातिर
इज्जत का सौदा करते हो ।
मनीषा के साथ हुए
अन्याय के लिए
तुम जैसे निकम्मे नेता जिम्मेदार हो ।
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विनती
ऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋ

न्यायालय भी मौन है
सरकार भी मौन है
मीडिया भी मौन है
मैं मनीषा कौन हूं घ्
मैं एक दलित की बेटी हूं
आज इसलिए सब मौन है ।
दिखाई दी इन सबको
एक हथिनी
दिखाई दी इनको
सुशांत की मौत ।
मुझ दलित की बेटी के साथ
हुआ घिनौना अपराध
पर कानून भी मौन हैए
हड्डियां तोड़ीए जुबान काटी
नोचा खरोंचा जिस्म को ।
इंसान नहीए थे वो दानव
मार डाला मुझ बेबस कोए
पर आज सब मौन है ।
जला दिया गया मुझको
चुपचापए
मेरे शरीर को भी नहीं सोपा
मेरे परिवार को ।
यहां न्याय भी जाति से मिलता है
ख़बरें भी जाति से चलती है ।
इंसानियत मर चुकी है
इसकी कोई परवाह नहीं ।
आज मेरी मौत पर 
वो भी मौन है ए
कल तक दहाड़ रहे थे जो
बेटियों की सुरक्षा के लिए ।
नोचा खरोंचा जिस्म मेरा
तोड़ दिया हर सपना मेरा
दर्द से चीखता चिल्लाता
लहुलूहान शरीर मेरा ।
आखिर इच्छा मेरी 
कर दो तुम पूरी
मेरे दोषियों को मत छोड़ना तुमए
लटका देना उन्हें जब तक
फांसी परए तब तक
ना निकल जाए
प्राण शरीर से उनकेए
देना इतनी पीड़ा उनको
जो पीड़ा सहन की मैंने
ताकि आने वाले कल को
फिर कोई और मनीषा
शिकार ना हो जाए इनकी ।
तुम मौन मत बैठना उनकी तरह
अपने समाज से यही विनती है मेरी ।
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मुझे न्याय चाहिए
ऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋ

मर गई मैं
तड़पते तड़पते
जला दी गई
रातों.रात मेरी लाशए
ठंडी हो गई
चिता की राखए
कैसे मिलेगा इंसाफ
जहां हर तरफ
भेड़ियों का है राज।
चारो तरफ से
घिरा हुआ है गांवए
क्या उस गॉव में
कोई आतंकवादी आ गया हैए
नही वो मेरा गांव है
उसे घेरने वाले
वहीं लोग हैंए
जिनसे मैं न्याय मांग रही हूंए
पुलिस प्रशासन ।
मेरे परिवार से
मिलने नहीं दिया जा रहा है
किसी को ।
मीडिया पत्रकार
आम नागरिकए
किसी को भी नहींए
सबको रोक दिया जा रहा है
गांव से बाहर ।
ऐसे कैसे मिलेगा
मुझे इंसाफ घ्
कैसे उन भेड़ियों को
लटकाया जाएगा फांसी पर घ्
क्या आप
मुझे न्याय दिलाएंगे घ्
हां आप मुझे न्याय दिलाएंगेए
मुझे न्याय चाहिए
अपने साथ हुए अन्याय का ।
मेरी चिता की राख तो
ठंडी हो चुकी है ।
पर उसकी आग को
तुम अपने दिल में
लगाकर रखना
उसे ठंडा मत होने देनाए
वरना इंतजार कीजिए
एक और ऐसी ही
जलती हुई चिता का ।
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हमारी बेटी को न्याय दो
ऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋ

काका चिल्लाते हुए
घर में बढ़े .
ये सब हो क्या रहा है
क्या हो रहा है ये सब
कानून कहां है घ्
क्या हुआ घ्
क्यों इतना चिल्ला रहे होए
चिल्लाऊ नही तो क्या करूं ए
तुमने देखा ना 
देश में क्या हो रहा है
सरकार गूंगी बहरी
हो गई है ।
हमारी बहन बेटियां के साथ
गैंगरेप हो रहे हैं
उनकी हत्या की जा रही है ।
और रातों.रात
उनकी लाश को जला दिया जाता है ।
जलाने वाले भी
कानून वाले ए
तो तुम ही बताओ
न्याय कैसे मिलेगा ।
सब नेता मंत्रियों के मुंह में
दही जम गई है अब
क्योंकि वो दलित की बेटी है ।
अच्छा एक बात बताओ
क्या दलित की बेटी
देश की बेटी नही है ।
अब किसी का दर्द
नही छलकता
अरे इन जैसे नेताओं
का दर्द भी
जाति देखकर छलकता है ।
हां काका सही कहा आपनेए
जाति देखकर ही
दर्द छलकता है इनका ।
सब निकम्मे है ।
हमारे साथ हो रहे अन्याय के लिए
हमारे लोग भी जिम्मेदार है ।
ये कैसी बात कर रहा है तूं
भला हमारे लोग क्यूं
जिम्मेदार होंगे ।
जिम्मेदार है वो
क्योंकि हम उन्हें चुनकर
संसदए विधानसभा भेजते हैं
मगर वो वहां जाकर
मौन रहते हैं ।
कुछ नही बोलते हैं
समाज पर हो रहे
अत्याचार के विरुद्ध
एक शब्द नहीं बोलते वो लोग ।
वो पद की खातिर
अपने समाज का सौदा कर देते हैं।
उनके तलवे चाटते है
गुलाम बन जाते हैंए
उसी गुलामी को स्वीकार
करते हैंए जिस गुलामी से
बाबा साहेब ने हमें
मुक्ति दिलाई थी ।
ऐसे लोग ही समाज के
गद्दार होते हैं ।
इनकी वजह से ही
संविधान की धज्जियां
उड़ाई जा रही हैए
पर ये मौन हैए गुलाम जो ठहरे।
बहुत दर्द होता है
जब देखते हैं कि
फिर से एक बेटी के साथ
गैंगरेप और फिर हत्याण्ण्
अच्छा बेटा एक बात बताओ
कुल कितने सांसद हैं
हमारे समाज से 
131 सांसद हैं काका
और एक राष्ट्रपति ।
फिर भी इतना ज़ुल्म
ढाया जा रहा है ।
हां काका ।
देश के प्रधानमंत्री कुछ बोले 
या नहीं 
नही काकाए कुछ नहीं बोले ।
उन्हें क्या फर्क पड़ता है
बेटी उनकी थोड़ा ही है ।
और वो जो
महिलाएं नेता हैं सरकार मेंए
वो भी कुछ नहीं बोली
हथिनी की मौत से उन्हें
गहरा सदमा लगा है 
इसलिए एक दलित बेटी
के साथ हुई दरिंदगी पर
कुछ नहीं बोलेंगी ।
फिर ये
ष्बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओष्
अभियानण्ण्ण्ण्ण्
सब कागजों के टुकड़ों पर है ।
जमीं पर तो
ष्बेटी जलाओ अपराधी बचाओष्
अभियान चल रहा है काका ।
पूरे परिवार को
धमकाया जा रहा है बेटाए
हां काका अब तो बिल्कुल
अति हो चुकी है ।
सरकार हमारे लिए
बस जुमले फेंकती हैए
जब शासन . प्रशासन ही
जाति देखकर न्याय करें
वहां न्याय कैसे मिलेगा ।
जब समाज के नेता ही
आवाज उठाने की बजाय
अपना मुंह बंद करले
वहां उस समाज को
न्याय कैसे मिलेगाए
बिल्कुल सत्य कहा बेटा ।
बेटा शासन प्रशासन
इतना बेरहम हो गया हैए
क्या उनके घर में
बेटियां नही है ।
जो अपराधियों को
बचाया जा रहा है ।
अरे अगर तुम्हारे अंदर
जरा भी शर्म बची है तो
लटका दो उन्हें फांसी पर ।
कर दो बेटी के साथ न्याय ।
और मेरे समाज के नेताओं
कल अगर यही सब
तुम्हारी बेटी के साथ होता तो
क्या जब भी तुम
ऐसे ही मौन बेठे रहते ।
अरे तुम साथ नही आ सकते तो
इस्तीफा दे दो अपने पद सेए
छोड़ दो राजनीति ।
तुम समाज के लिए
आवाज नही उठा सकते
कोई हक नहीं है तुम्हें
समाज में रहने काए
गद्दार हो तुम ।
बेटा शासन प्रशासन निकम्मा है
जातिवादी हैए
हमे एकता में रहकर
लड़ना होगाए
इस संविधान को जिंदा रखना होगा ।
तभी मिल पाएगा हमे न्याय
उन बेटियों को
यही हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी ।
और एक आवाज दो
हमारी बेटी को न्याय दो
हां जी काका 
आप बिल्कुल सही कह रहे हैं ।
हमारी बेटी को न्याय दोण्ण्ण्ण्ण्
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मै भारत बोल रहा हूं
...........................

मै मर रहा हूं
मै डर रहा हूं
तड़प रहा हूं
मै बिलख रहा हूं
आंखों से आंसूओं का
बहता सेलाब है
पैरों से जख्मी हूं
घावों से हरा भरा हूं
मै निशब्द हूं पड़ा हूं
इतना पीड़ित हो गया हूं मैंए
कदम कदम पर
ज़ख्म है
ऐसा लगता है जैसे
मैं बूढ़ा हो गया हूं !
ऐसा यहां का राजा है
जो घूम रहा मस्ती में
विदेश में घूम रहा है
और बढ़.चढ़कर 
भाषण देता हूं
मेरे ऊपर बढ़ता बोझ
तुम्हारे भ्रष्टाचार का !
ना प्रजा की
ना देश की
फ़िक्र तुझको होती है
यहां कत्लेआम रोज होते हैं
बलात्कार की चीख.पुकार
से कान मेरे फट जाते हैं
आंखों से आंसू
दरिया बन बहते है
सड़कें लाल है
इंसानों के खून से
बहता खून किसका है
वो खून भी मेरा हैए
ढेर लगे हैं लाशों के
चारों तरफ आग लगी है
इन सबसे बेखबर यहां का राजा है
सांस क्या यहां कोई
आश नही है जीने की
ताली बजाकर माईक
पर चिल्लाता है
सूट बूट पहन कर
छेला वो बन जाता हैए
ऐसी व्यवस्था बनाई है
जहां न्याय नहीं दुत्कार है
न्याय व्यवस्था का बुरा हाल हैए
कोर्ट कचहरी हो या
राशन की दुकान
सब में घोर भ्रष्टाचार हैए
यहां का ऐसा ये राजा है
जो राजा कम
व्यापारी ज्यादा है
व्यापारी का व्यापार बढ़ाया
जमकर अपना मुनाफा कमाया
गरीब के घर का
चुल्हा तक बुझा डाला
ग़रीबी का मजाक बनाया
ये कैसा बेश बनाया
मै हैरान हूंए मैं परेशान हूं
कहता था जोए बढ़.चढ़कर
भाषण देता था वो
हर घर होगा खुशहाल
आज उस राजा को मैं
ढूंढ रहा हूं
जो तुमने दिया है मुझको
उस बदलते भारत का
गिरता स्तर बोल रहा हूं
जो जख्म दिया है
तुमने मुझको
मै वो जख्म बोल रहा हूं
मैं भारत बोल रहा हूं ।
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मीडिया
ऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋ

सरकार के हर ज़ुल्म को
देश हित में उठा महत्वपूर्ण कदम
बताकर दिखाती है मीडिया
उस महत्वपूर्ण कदम से
लोगों को कितनी झेलनी पड़ती है परेशानियां
ये कभी नही दिखाती मीडिया ।

पुलवामा हमले पर
चार दिन चर्चा करती है मीडिया
चार दिन में गायब हो जाती है
पुलवामा हमले की सुर्खियां ।
सुशांत के मरने पर रोज
होती है छानबीन
पुलवामा हमले पर क्यों न हुई
अब तक कोई कार्रवाई ।

दलाल मीडिया ने पूरा साथ निभाया है
देश में हो रहे भ्रष्टाचार को खूब बढ़ाया हैए
रिया चक्रवर्ती की कब करवटें बदली
पूरी रात कवरेज करता है मीडिया ।
खेत में किसान सीमा पर जवान
घर में भूख से मरता है मजदूर
पर कोई कवरेज नहीं करता है गुलाम मीडिया ।

पाकिस्तान की जीडीपीए महंगे टमाटर
बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था दिखाते हैंए
भारत की गिरती जीडीपीए
चौपट अर्थव्यवस्था को छिपाते हैं।
तलवा चाटी में सरकार की नाकामी छिपाते हैं ।

प्रधानमंत्री जी चार कदम चले तो
पूरे दिन यही बताते हैं कि प्रधानमंत्री पैदल चलेए
पैदल चलकर जो मरेए उन मजदूरों को नही दिखाते हैं ।
तलवा चाटी इन्हें खूब रास आई
दुनिया में देश की इज्जत इन्होंने लुटाई ।
’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’


इनकार
ऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋ

वो जब आ जाए एन सिर पर
और हथियारों से धमकाने लगे तुमको
इनकार कर देना तुम उनके आगे झुकने से ।
वो तुम्हें डराएंगे तुमको तेज 
गोलियों की आवाजों से
पर आंखें कान बंद मत करना उनके डर से ।
वो मारेंगे तुम्हारे पैरों में
पर तुम घुटने मत टेकना उनके आगे ।
शैतानी आंखों से डराएंगे
तुम इनकार कर देना उनके वश में आने से ।
दुनिया गोल गोल घूमती नजर आए
यातना सहते हुए
साफ इनकार कर देनाए अपने दिल को मुरझाने से ।
वो सुनाएंगे बच्चों की आवाजों को
ताकि तुम सर झुका सको उनके आगेए
पर तुम मन ही मन नाच उठनाए गर्व करना 
समर्पण की मौत पर ।
जब वो नोच रहे हो तुम्हारे
शक्तिशाली शरीर को और
चुन रहे हो तिनके शासन के 
तुम इनकार कर देना घुटने टेकने से 
छल और कपट के सामने ।
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फिर भी तुम खामोश हो
ऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋ
आलीशान बंगले में बैठे नेताओं
तुम्हारे समाज पर मार पड़ रही हैए
और तुमने अपनी
आंखों पर पट्टी बांध ली हैए
उन्हें पीटा जा रहा है
मारा जा रहा है ए
फिर भी तुम खामोश हो ।
वो जंगली जानवरों की तरह
मार रहे हैंए
क्योंकि
तुमने इसका विरोध नहीं किया ।
ये कैसी राजनीति है
तुम कैसे समाज के नेता होए
जब जुल्म बढ़ता है तब
विरोध होना चाहिए संसद में
आवाज उठनी चाहिए
इस अत्याचार परए
अगर विरोध ना कर सको
आवाज ना उठा सको तो
बेहतर होगा कि तुम
इस राजनीति से संन्यास ले लो ।
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गॉव व पोस्ट असावर
जिला बुलन्दशहरए उत्तर प्रदेश
पिनकोड . 203408
मोण्नण् .9997662992
ईमेल . दाांतकंउ1993/हउंपसण्बवउ
शिक्षा . इंटरमिडिएट
सम्मान . डॉ भीमराव आंबेडकर नेशनल फैलोशिप अवार्ड 2019 ;भारतीय दलित साहित्य अकादमी दिल्लीद्ध
डॉ भीमराव आंबेडकर नेशनल फैलोशिप अवार्ड 2020 के लिए चयनित ; भारतीय दलित साहित्य अकादमी दिल्लीद्ध

शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2020

नाचा के सियान - मंदराजी दाऊ

ओमप्रकाश साहू" अंकुर "
 
          धान के कटोरा छत्तीसगढ़ के लोक कला अउ संस्कृति के अलग पहचान हवय । हमर प्रदेश के लोकनाट्य नाचा, पंथी नृत्य, पण्डवानी, भरथरी, चन्देनी के संगे संग आदिवासी नृत्य के सोर हमर देश के साथ विश्व मा घलो अलगे छाप छोड़िस हे। पंथी नर्तक स्व. देवदास बंजारे ,पण्डवानी गायक झाड़ू राम देवांगन, तीजन बाई, ऋतु वर्मा, भरथरी गायिका सुरुज बाई खांडे जइसन कला साधक मन हा छत्तीसगढ़ अउ भारत के नाम ला दुनिया भर मा बगराइस हवय. रंगकर्मी हबीब तनवीर के माध्यम ले जिहां छत्तीसगढ़ के नाचा कलाकार लालू राम (बिसाहू साहू),भुलवा राम, मदन निषाद, गोविन्द राम निर्मलकर, फिदा बाई  मरकाम, माला बाई मरकाम हा अपन अभिनय क्षमता के लोहा मनवाइस. ये नाचा के नामी कलाकार मन हा एक समय नाचा के सियान मंदराजी दाऊ के अगुवाई मा काम करे रिहिन ।मंदराजी दाऊ हा नाचा के पितृ पुरुष हरय. वो हा एक अइसन तपस्वी कलाकार रिहिस जउन हा नाचा के खातिर अपन संपत्ति ला सरबस दांव मा लगा दिस ।
             नाचा के अइसन महान कलाकार मंदराजी का जन्म संस्कारधानी शहर राजनांदगांव ले 5  किलोमीटर दूरिहा रवेली गांव मा एक माल गुजार परिवार मा होय रिहिस ।मंदरा जी के पूरा नांव दुलार सिंह साव रिहिस । 1922 मा ओकर प्राथमिक शिक्षा हा पूरा होइस।दुलार सिंह के मन पढ़ई लिखई मा नई लगत रिहिस । ओकर धियान नाचा पेखा डहर जादा राहय । रवेली अउ आस पास गांव मा जब नाचा होवय तब बालक दुलार सिंह हा रात रात भर जाग के नाचा देखय ।एकर ले ओकर मन मा घलो चिकारा, तबला बजाय के धुन सवार होगे. वो समय रवेली गांव मा थोरकिन लोक कला के जानकार कलाकार रिहिस । ऊंकर मन ले मंदराजी हा चिकारा, तबला बजाय के संग गाना गाय ला घलो सीख गे । अब मंदरा जी हा ये काम मा पूरा रमगे ।वो समय नाचा के कोई बढ़िया से संगठित पार्टी नइ रिहिस । नाचा के प्रस्तुति मा घलो मनोरंजन के नाम मा द्विअर्थी संवाद बोले जाय ।येकर ले बालक दुलार के मन ला गजब ठेस पहुंचे ।वोहा अपन गांव के लोक कलाकार मन ला लेके 1928-29 मा रवेली नाचा पार्टी के गठन करिस ।ये दल हा छत्तीसगढ़ मा नाचा के पहिली संगठित दल रिहिस ।वो समय खड़े साज चलय । कलाकार मन अपन साज बाज ला कनिहा मा बांधके अउ नरी मा लटका के नाचा ला करय ।
         मंदराजी के नाचा डहर नशा ला देखके वोकर पिता जी हा अब्बड़ डांट फटकार करय ।अउ चिन्ता करे लगगे कि दुलार हा अइसने करत रहि ता ओकर जिनगी के गाड़ी कइसे चल पाही । अउ एकर सेती ओकर बिहाव 14 बरस के उमर मा दुर्ग जिले के भोथली गांव (तिरगा) के राम्हिन बाई के साथ कर दिस ।बिहाव होय के बाद घलो नाचा के प्रति ओकर रुचि मा कोनो कमी नइ आइस ।शुरु मा ओकर गोसइन हा घलो एकर विरोध करिस कि सिरिफ नाचा ले जिनगी कइसे चलही पर बाद मा वोकर साधना मा बाधा पड़ना ठीक नइ समझिस ।अब वोकर गोसइन हा घलो वोकर काम मा सहयोग करे लगिन अउ उंकर घर अवइया कलाकार मन के खाना बेवस्था मा सहयोग करे लगिन ।
 सन् 1932 के बात हरय ।वो समय नाचा के गम्मत कलाकार सुकलू ठाकुर (लोहारा -भर्रीटोला) अउ नोहर दास मानिकपुरी (अछोली, खेरथा) रिहिस ।कन्हारपुरी के माल गुजार हा सुकलू ठाकुर अउ नोहर मानिकपुरी के कार्यक्रम अपन गांव मा रखिस ।ये कार्यक्रम मा मंदरा जी दाऊ जी हा चिकारा बजाइस ।ये कार्यक्रम ले खुश होके दाऊ जी हा सुकलू अउ नोहर मानिकपुरी ला शामिल करके रवेली नाचा पार्टी के ऐतिहासिक गठन करिस ।अब खड़े साज के जगह सबो वादक कलाकार बइठ के बाजा बजाय लागिस ।
          सन् 1933-34 मा मंदराजी दाऊ अपन मौसा टीकमनाथ साव ( लोक संगीतकार स्व. खुमाम साव के पिताजी )अउ अपन मामा नीलकंठ साहू के संग हारमोनियम खरीदे बर कलकत्ता गिस ।ये समय वोमन 8 दिन टाटानगर मा  घलो रुके रिहिस ।इही 8 दिन मा ये तीनों टाटानगर के एक हारमोनियम वादक ले हारमोनियम बजाय ला सिखिस ।बाद मा अपन मिहनत ले दाऊजी हा हारमोनियम बजाय मा बने पारंगत होगे । अब नाचा मा चिकारा के जगह हारमोनियम बजे ला लगिस ।सन् 1939-40 तक रवेली नाचा दल हमर छत्तीसगढ़ के सबले प्रसिद्ध दल बन गे रिहिस ।
             सन् 1941-42 तक कुरुद (राजिम) मा एक बढ़िया नाचा दल गठित होगे रिहिस ।ये मंडली मा बिसाहू राम (लालू राम) साहू जइसे गजब के परी नर्तक रिहिस । 1943-44 मा लालू राम साहू हा कुरुद पार्टी ला छोड़के रवेली नाचा पार्टी मा शामिल होगे ।इही साल हारमोनियम वादक अउ लोक संगीतकार खुमान साव जी 14 बरस के उमर मा मंदराजी दाऊ के नाचा दल ले जुड़गे ।खुमान जी हा वोकर मौसी के बेटा रिहिस ।इही साल गजब के गम्तिहा कलाकार मदन निषाद (गुंगेरी नवागांव) पुसूराम यादव अउ जगन्नाथ निर्मलकर मन घलो दाऊजी के दल मा आगे ।अब ये प्रकार ले अब रवेली नाचा दल हा लालू राम साहू, मदन लाल निषाद, खुमान लाल साव, नोहर दास मानिकपुरी, पंचराम देवदास, जगन्नाथ निर्मलकर, गोविन्द निर्मलकर, रुप राम साहू, गुलाब चन्द जैन, श्रीमती फिदा मरकाम, श्रीमती माला मरकाम जइसे नाचा के बड़का कलाकार मन ले सजगे ।
             नाचा के माध्यम ले दाऊ मंदराजी हा समाज मा फइले बुराई छुआछूत, बाल बिहाव के विरुद्ध लड़ाई लड़िस अउ लोगन मन ला जागरुक करे के काम करिस ।नाचा प्रदर्शन के समय कलाकार मन हा जोश मा आके अंग्रेज सरकार के विरोध मा संवाद घलो बोलके देश प्रेम के परिचय देवय ।अइसने आमदी (दुर्ग) मा मंदराजी के नाचा कार्यक्रम ला रोके बर अंग्रेज सरकार के पुलिस पहुंच गे रिहिस । वोहर मेहतरीन, पोंगा पंडित गम्मत के माध्यम ले छुअाछूत दूर करे के उदिम, ईरानी गम्मत मा हिन्दू मुसलमान मा एकता स्थापित करे के प्रयास, बुढ़वा बिहाव के माध्यम ले बाल बिहाव अउ बेमेल बिहाव ला रोकना, अउ मरानिन गम्मत के माध्यम ले देवर अउ भौजी के पवित्र रिश्ता के रुप मा सामने लाके समाज मा जन जागृति फैलाय के काम करिस ।
1940 से 1952 तक तक रवेली नाचा दल के भारी धूम रिहिस
          सन् 1952 मा फरवरी मापिनकापार (बालोद मंड़ई के अवसर मा )वाले दाऊ रामचंद्र देशमुख हा रवेली अउ रिंगनी नाचा दल के प्रमुख कलाकार मन ला नाचा कार्यक्रम बर नेवता दिस । पर ये दूनो दल के संचालक नइ रिहिस । अइसने 1953 मा घलो होइस ।ये सब परिस्थिति मा रवेली अउ रिंगनी (भिलाई) हा एके मा शामिल (विलय) होगे ।एकर संचालक लालू राम साहू बनिस ।मंदराजी दाऊ येमा सिरिफ वादक कलाकार के रुप मा शामिल करे गिस । अउ इन्चे ले रवेली अउ रिंगनी दल के किस्मत खराब होय लगिस ।रवेली अउ रिंगनी के सब बने बने कलाकार दाऊ रामचंद्र देशमुख द्वारा संचालित छत्तीसगढ़ देहाती कला विकास मंडल मा शामिल होगे ।पर कुछ समय बाद ही छत्तीसगढ़ देहाती कला विकास मंडल के कार्यक्रम सप्रे स्कूल रायपुर मा होत रिहिस।ये कार्यक्रम हा गजब सफल होइस ।ये कार्यक्रम ला देखे बर प्रसिद्ध रंगककर्मी हबीब तनवीर हा आय रिहिस ।वोहर उदिम करके रिंगनी रवेली के कलाकार लालू राम साहू, मदन लाल निषाद, ठाकुर राम, बापू दास, भुलऊ राम, शिवदयाल मन ला नया थियेटर दिल्ली मा शामिल कर लिस ।ये कलाकार मन हा दुनिया भर मा अपन अभिनय ले नाम घलो कमाइस अउ छत्तीसगढ़ के लोकनाट्य नाचा के सोर बगराइस । पर इंकर मन के जमगरहा नेंव रवेली अउ रिंगनी दल मा बने रिहिस ।
             एती मंदरा जी दाऊ के घर भाई बंटवारा होगे ।वोहर अब्बड़ संपन्न रिहिस ।वोहर अपन संपत्ति ला नाचा अउ नाचा के कलाकार मन के आव भगत मा सिरा दिस ।दाऊ जी हा अपन कलाकारी के सउक ला पूरा करे के संग छोटे छोटे नाचा पार्टी मा जाय के शुरु कर दिस । धन दउलत कम होय के बाद संगी साथी मन घलो छूटत गिस । वोकर दूसर गांव बागनदी के जमींदारी हा घलो छिनागे ।स्वाभिमानी मंदरा जी कोनो ले कुछ नइ काहय ।
मंदराजी दाऊ ला नाचा मा वोकर अमूल्य योगदान खातिर  जीवन के आखिरी समय मा भिलाई स्पात संयंत्र के सामुदायिक विकास विभाग द्वारा मई 1984 मा सम्मानित करिस । अंदर ले टूट चुके दाऊ जी सम्मान पाके भाव विभोर होगे ।
            सम्मानित होय के बाद सितंबर 1984 मा अपन दूसर गांव बागनदी के नवापारा मा पंडवानी कार्यक्रम मा गिस । इहां वोकर तबियत खराब होगे ।वोला रवेली लाय गिस । 24 सितंबर 1984 मा नाचा के ये पुजारी हा अपन नश्वर शरीर ला छोड़के सरग चल दिस ।
स्व. मंदरा जी दाऊ हा एक गीत गावय - "
            दौलत तो कमाती है दुनिया पर नाम कमाना मुश्किल है ".दाऊ जी हा अपन दउलत गंवा के नांव कमाइस ।
 मंदराजी के जन्म दिवस 1 अप्रैल के दिन हर साल 1993 से लगातार मंदरा जी महोत्सव आयोजित करे जाथे ।1992 मा ये कार्यक्रम हा कन्हारपुरी मा होय रिहिस ।जन्मभूमि रवेली के संगे संग कन्हारपुरी मा घलो मंदराजी दाऊ के मूर्ति स्थापित करे गेहे ।वोकर सम्मान मा छत्तीसगढ़ शासन द्वारा लोक कला के क्षेत्र मा उल्लेखीन काम करइया लोक कलाकार ला हर साल राज्योत्सव मा मंदराजी सम्मान ले सम्मानित करे जाथे ।नाचा के अइसन महान कलाकार ला कोटि कोटि नमन हे। विनम्र श्रद्धांजलि।

    🙏🙏🙏💐💐💐
          
राम + पोष्ट - सुरगी (हाई स्कूल के पास) 
तहसील + जिला - राजनांदगांव (छत्तीसगढ़) 
मो. न.  7974666840

 

कवि की पीड़ा

रीझे यादव

          हमारे कस्बे में एक कवि हैं सूर्यकांत"सुकून"! लेकिन नाम के अनुरूप उनका व्यक्तित्व नहीं है।ना तो सूरज के जैसा तेज उनके चेहरे में है और ना ही  उनकी लेखनी में आग लगाने की क्षमता। ।मैं उसे कस्बे का ही कवि समझता हूं पर वे अपने आपको हमारे अंचल के नामचीन कवि होने के गर्व से गर्वित महसूस करते हैं।
            आज अचानक रास्ते में उनसे मुलाकात हो गई।उनके मुखमुद्रा से व्यग्रता झलक रही थी जो उनके साहित्यिक तखल्लुस"सुकून"को झूठा साबित कर रही थी।वैसे मैंने उनको जब भी देखा है परेशान-हलाकान ही देखा है।पता नहीं किस साहित्यिक समिति ने या साहित्यकार ने उनको"सुकून"उपनाम से नवाजा है। भगवान जाने!!
          वैसे उपनाम रखने का रिवाज रहा है शायद साहित्य जगत में।निराला,हरिऔध,सुमन,नीरज आदि साहित्यिक उपनाम वाले साहित्यकार आज भी साहित्य के आकाश में दैदीप्यमान नक्षत्र की तरह जगमगा रहे हैं।कुछ लोगों ने अपने नगर को ही अपना उपनाम बना रखा है,जैसे-काका हाथरसी,वसीम बरेलवी आदि। मुझे लगता है कि जब कविता में भाव हुआ करती थी तब प्रकृति पर आधारित उपनाम रखा जाता था।जब से कविता में भाव खत्म हुआ है तब से साहित्यकारों में मनोभाव को उपनाम रखने का चलन बढ़ा ।उग्र,बेचैन,सुकून,निराश,अकेला,थकेला और ना जाने क्या-क्या? अजीबोगरीब तखल्लुस!!!प्रकृति की सौगातों वाले उपनाम से लेकर आज गाली गलौज वाले उपनाम तक रखने लगे हैं कुछ कलमकार।
          खैर, मुद्दे पर आते हैं।जैसे ही मैंने सुकून जी को देखा मुझे अपना चैन-सुकून में खलल पड़ता महसूस हुआ,पर क्या करते? पहचान के आदमी हैं तो उनसे बिना दुआ सलाम के आगे भी नहीं बढ़ा जा सकता था।
अभिवादन के बाद मैंने उनसे पूछा-और कविराज क्या हाल है?लाकडाऊन में तो आपको कविता लिखने को पर्याप्त समय मिला होगा।
          उन्होंने सहमति में सिर हिलाते हुए जवाब दिया-हां भाई।खूब लिखा।इतना लिखा-इतना लिखा कि कलम टें बोल गई।अब लिखे हुए को किसी को सुनाना चाहता हूं तो कोई मिल नहीं रहा।सरकार ने सोशल डिस्टेंसिंग के नाम पर बेड़ा गर्क कर रखा है। भीड़ ना करने के नाम पर साहित्यिक आयोजनों पर रोक लगी है जबकि मधुशाला में लोग दारू के लिए गुत्थम-गुत्था हुए जा रहे हैं।सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ रही है।
          उनकी तकलीफ को समझकर मैंने उनको सलाह दिया-घर में बच्चों को,भाभीजी को या नहीं तो पड़ोसियों को अपना शिकार बनाया करो।मतलब सुनाया करो।
          मेरी बात सुनकर सुकून जी ने अताउल्लाह खान वाली दर्दभरी आवाज में बताया-बच्चे को कुछ सुनाने के लिए जैसे ही मुंह खोलता हूं।बच्चे कान में ईयरफोन लगा लेते हैं।श्रीमती को सुनाने का प्रयास करता हूं तो वो मेरा हुक्का-पानी बंद करने की धमकी देती है।पडोसी मुझे देखकर ऐसे बिदकते हैं मानो मैं ही चलता-फिरता कोरोना वायरस हूं।
          उनकी मन की व्यथा समझकर मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा-तब तो एक ही उपाय है सुकून जी।आप आनलाईन कवि सम्मेलन में भाग लिजिए।
          अंधा क्या चाहे?दो आंख!!उनको तो जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई।वो मुझे संतोषी माता के व्रत विधि की तरह आनलाईन कवि सम्मेलन की प्रक्रिया पूछने लगे।
          मैंने उनको पूरी प्रक्रिया बताई और उनको एक आनलाईन कवि सम्मेलन के ग्रुप से जुडवा दिया।सुकून जी मोहक मुख मुद्रा के साथ मुझसे विदा लेकर सुकून के साथ चले गए।सुना है अब उनका आनलाईन कवि सम्मेलन जोरों से चल रहा है।उनके पास थोक मात्रा में आनलाईन प्रमाणपत्र की भरमार है।पर एक दुखद खबर भी मिली कि आनलाईन रहने के लिए नेटपैक भराने के चक्कर में उन्होंने अपनी साइकिल बेच दी है और अब पैदल ही रास्ता नापते हैं,मतलब आवागमन करते हैं।


रीझे यादव
टेंगनाबासा(छुरा)

शनिवार, 19 सितंबर 2020

अंग्रेजी हटाए बिना हिंदी कैसे लाएँगे ?

वेदप्रताप वैदिक

         भारत सरकार को हिंदी दिवस मनाते-मनाते 70 साल हो गए लेकिन कोई हमें बताए कि सरकारी काम-काज या जन-जीवन में हिंदी क्या एक कदम भी आगे बढ़ी? इसका मूल कारण यह है कि हमारे नेता नौकरशाहों के नौकर हैं। वे दावा करते हैं कि वे जनता के नौकर हैं। चुनावों के दौरान जनता के आगे वे नौकरों से भी ज्यादा दुम हिलाते हैं लेकिन वे ज्यों ही चुनाव जीतकर कुर्सी में बैठते हैं, नौकरशाहों की नौकरी बजाने लगते हैं। भारत के नौकरशाह हमारे स्थायी शासक हैं। उनकी भाषा अंग्रेजी है। देश के कानून अंग्रेजी में बनते हैं, अदालतें अपने फैसले अंग्रेजी में देती हैं, ऊंची पढ़ाई और शोध अंग्रेजी में होते हैं, अंग्रेजी के बिना आपको कोई ऊंची नौकरी नहीं मिल सकती। क्या हम हमारे नेताओं और सरकार से आशा करें कि हिंदी-दिवस पर उन्हें कुछ शर्म आएगी और अंग्रेजी के सार्वजनिक प्रयोग पर वे प्रतिबंध लगाएंगे? यह सराहनीय है कि नई शिक्षा नीति में प्राथमिक स्तर पर मातृभाषाओं के माध्यम को लागू किया जाएगा लेकिन उच्चतम स्तरों से जब तक अंग्रेजी को विदा नहीं किया जाएगा, हिंदी की हैसियत नौकरानी की ही बनी रहेगी।
          हिंदी-दिवस को सार्थक बनाने के लिए अंग्रेजी के सार्वजनिक प्रयोग पर प्रतिबंध की जरुरत क्यों है? इसलिए नहीं कि हमें अंग्रेजी से नफरत है। कोई मूर्ख ही होगा जो किसी विदेशी भाषा या अंग्रेजी से नफरत करेगा। कोई स्वेच्छा से जितनी भी विदेशी भाषाएं पढ़ें, उतना ही अच्छा! मैंने अंग्रेजी के अलावा रुसी, जर्मन और फारसी पढ़ी लेकिन अपना अंतरराष्ट्रीय राजनीति का पीएच.डी. का शोधग्रंथ हिंदी में लिखा। 55 साल पहले देश में हंगामा हो गया। संसद ठप्प हो गई, क्योंकि दिमागी गुलामी का माहौल फैला हुआ था। आज भी वही हाल है। इस हाल को बदलें कैसे?
          हिंदी-दिवस को सारा देश अंग्रेजी-हटाओ दिवस के तौर पर मनाए! अंग्रेजी मिटाओ नहीं, सिर्फ हटाओ! अंग्रेजी की अनिवार्यता हर जगह से हटाएं। उन सब स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों की मान्यता खत्म की जाए, जो अंग्रेजी माध्यम से कोई भी विषय पढ़ाते हैं। संसद और विधानसभाओं में जो भी अंग्रेजी बोले, उसे कम से कम छह माह के लिए मुअत्तिल किया जाए। यह मैं नहीं कह रहा हूं। यह महात्मा गांधी ने कहा था।
सारे कानून हिंदी और लोकभाषाओं में बनें और अदालती बहस और फैसले भी उन्हीं भाषाओं में हों। अंग्रेजी के टीवी चैनल और दैनिक अखबारों पर प्रतिबंध हो। विदेशियों के लिए केवल एक चैनल और एक अखबार विदेशी भाषा में हो सकता है। किसी भी नौकरी के लिए अंग्रेजी अनिवार्य न हो। हर विश्वविद्यालय में दुनिया की प्रमुख विदेशी भाषाओं को सिखाने का प्रबंध हो ताकि हमारे लोग कूटनीति, विदेश व्यापार और शोध के मामले में पारंगत हों। देश का हर नागरिक प्रतिज्ञा करे कि वह अपने हस्ताक्षर स्वभाषा या हिंदी में करेगा तथा एक अन्य भारतीय भाषा जरुर सीखेगा। हम अपना रोजमर्रा का काम—काज हिंदी या स्वभाषाओं में करें। भारत में जब तक अंग्रेजी का बोलबाला रहेगा याने अंग्रेजी महारानी बनी रहेगी तब तक आपकी हिंदी नौकरानी ही बनी रहेगी।
           कुछ लोग अंग्रेजी को अनिवार्य बनाने के पक्ष में यह तर्क देते हैं कि वह विश्व-भाषा है। विश्व-भाषा का विरोध करना अपने आप को संकुचित करना है। यह तर्क गलत है। हम अंग्रेजी का विरोध नहीं कर रहे हैं। उसकी अनिवार्यता, उसके थोपे जाने का, उसके अनावश्यक वर्चस्व का विरोध कर रहे हैं। यदि वही विश्व-भाषा है तो हमें बताइए कि संयुक्त राष्ट्र संघ, जो विश्व का सबसे बड़ा संगठन है, उसकी एकमात्र भाषा अंग्रेजी क्यों नहीं है ? इस विश्व संगठन की भाषा तो इस तथाकथित विश्व-भाषा को ही होना चाहिए था। लेकिन संयुक्तराष्ट्र की आधिकारिक भाषाओं की संख्या 6 है, सिर्फ 1 नहीं। उसकी भाषाएं हैं- अरबी, चीनी, रुसी, फ्रांसीसी, अंग्रेजी और हिस्पानी। इनमें से प्रत्येक भाषा के बोलनेवालों से कहीं ज्यादा संख्या हिंदी बोलने और समझने वालों की है। चीनीभाषियों से भी ज्यादा। 1999 में जब संयुक्तराष्ट्र संघ में भारतीय प्रतिनिधि के तौर पर मेरा भाषण हुआ था तब मैंने हिंदी में बोलने की कोशिश की थी। अटलबिहारी वाजपेयी सरकार ने हिंदी को भी संयुक्तराष्ट्र संघ की भाषा बनाने की पहल की थी। इस कोशिश को मोदी सरकार अंजाम नहीं देगी तो कौन देगा ?
          जहां तक भाषा के तौर पर अंग्रेजी की समृद्धता का सवाल है, मेरा निवेदन है कि उसकी लिपि, उसका व्याकरण, उसका उच्चारण उसके पर्यायवाची शब्द हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के मुकाबले आज भी बहुत पिछड़े हुए हैं। हिंदी तो संस्कृत की पुत्री है और दर्जनों भारतीय भाषाएं उसकी बहने हैं। संस्कृत की एक धातु में पाणिनी ने लगभग दो हजार धातुओं का उल्लेख किया है। एक धातु में प्रत्यय, उपसर्ग, वचन, पुरुष, लिंग, विभक्तियां आदि लगाकर लाखों शब्द बना सकते हैं। हिंदी ने संस्कृत, प्राकृत, पाली, अरबी, फारसी, यूनानी, मिस्री, पुर्तगाली और अन्य भारतीय भाषाओं के शब्द ऐसे और इतने हजम कर लिये हैं कि उसका शब्द-कोश अंग्रेजी के शब्द-कोश से कई गुना बड़़ा है। अंग्रेजी भाषा के विचित्र व्याकरण और अटपटी लिपि को सुधारने के लिए महान ब्रिटिश साहित्यकार बर्नार्ड शा ने एक न्यास भी बनाया था।
          अंग्रेजी दुनिया के सिर्फ चाढ़े चार देशों की भाषा है। आधा कनाडा, अमेरिका, ब्रिटेन, न्यूजीलैंड और आस्ट्रेलिया या फिर वह भारत और पाकिस्तान- जैसे पूर्व-गुलाम देशों (काॅमनवेल्थ) में चलती है। मैं दुनिया के 80-90 देशों में जाकर देख चुका हूं। उनकी सरकार, संसद, अदालत और ऊंची पढ़ाई में वे अपनी भाषा ही चलाते हैं। दुनिया का कोई भी महाशक्ति राष्ट्र विदेशी भाषा के जरिए आगे नहीं बढ़ा है। यदि भारत को महाशक्ति और महासंपन्न बनना है तो उसे अपने देश से अंग्रेजी के वर्चस्व को खत्म करना होगा और सब कामों में स्वभाषाओं को बढ़ाना होगा।
(लेखक, भारतीय भाषा सम्मेलन के अध्यक्ष हैं)


स्वीडिश महामारीविद् व चिंतक जोहान गिसेके की टिप्पणी “एक अदृश्य वैश्विक महामारी”

 
[स्वीडन के महान महामारीविद् व  चिंतक जोहान गिसेके और उनके सहयोगी एंडर्स टेगनेल कोरोना-विजय के अप्रतिम नायक के रूप में उभरे हैं। इनकी ही सलाह पर विश्व स्वास्थ संगठन (डब्लूएचओ)  के दवाब के बावजूद स्वीडन सरकार ने लॉकडाउन लगाने इंकार कर दिया था। स्वीडन के इस कदम ने न सिर्फ लोगों को अफरातफरी से होने वाली मौंतों से बचाया, बल्कि उनकी अर्थव्यवस्था भी आगे बढ़ रही है।
शर्मिंदा विश्व स्वास्थ संगठन ने भी 1 मई, 2020 को ‘किंतु-परंतु’ के साथ स्वीकार किया है कि स्वीडन का मॉडल, कोरोना महामारी के मामले में दुनिया के लिए आदर्श हो सकता है।
70 वर्षीय जोहान गिसेके स्टॉकहोम स्थित प्रतिष्ठित मेडिकल यूनिवर्सिटी ‘करोलिंस्का’ में प्रोफेसर रहे हैं तथा स्वीडन की सार्वजनिक स्वास्थ्य एजेंसी के सलाहकार हैं। वे विश्व स्वास्थ्य संगठन के संक्रामक ख़तरों के लिए रणनीतिक और तकनीकी सलाहकार समूह के भी सदस्य हैं।
स्वीडन मॉडल के संदर्भ में उनके वक्तव्य आजकल दुनिया भर के मीडिया संस्थानों में उद्धृत किए जा रहे हैं। प्राय: सभी प्रमुख टीवी चैनलों और समाचार-पत्रों ने उनके इंटरव्यू प्रसारित किए हैं। टीवी चैनलों पर जोहान गिसेके की स्पष्टवादिता, आत्मविश्वास और लोकतांत्रिक जीवन-दर्शन देखते बनता है।
गिसेके ने 5 मई,  2020 को प्रसिद्ध मेडिकल-जर्नल ‘द लान्सेट’ में “The invisible pandemic” शीर्षक से एक टिप्पणी लिखी थी। उनकी यह टिप्पणी महामारी के  प्रति उस संतुलित सोच को सामने लाती है, जिससे हमें भारतवासियों को भी अवश्य परिचित होना चाहिए।
उनकी इस टिप्पणी का हिंदी अनुवाद मैंने  उनकी अनुमति से किया है। - प्रमोद रंजन  ]
एक अदृश्य वैश्विक महामारी

- जोहान गिसेके

कोरोना वायरस को लेकर हमारे देश स्वीडन की निश्चिंत भाव की नीति से दुनिया के अनेक देश और उनके मीडिया संस्थानों के सदस्य बहुत आश्चर्यचकित हैं। यहां स्कूल और अधिकांश कार्यस्थल खुले हैं और पुलिस-अधिकारी सड़कों पर यह देखने के लिए खड़े नहीं हैं कि बाहर निकलने वाले लोग किसी आवश्यक कार्य से जा रहे हैं, या यूं ही हवा खाने निकले हैं।
Johan Giesecke.jpeg
अनेक कटु आलोचकों ने तो यहां तक कहा कि स्वीडन सामूहिक-इम्युनिटी विकसित करने के चक्कर में अपने (बुज़ुर्ग) नागरिकों का बलिदान करने पर आमादा है।
यह सच है कि स्वीडन में इस बीमारी से मरने वालों की संख्या हमारे निकटतम पड़ोसी डेनमार्क, नार्वे और फ़िनलैंड से ज्यादा है। लेकिन मृत्यु दर ब्रिटेन, स्पेन और बेल्जियम की तुलना में कम है। (इन सभी देशों में कड़ा लॉकडाउन है-अनुवादक)
अब यह भी स्पष्ट हो चुका है कि सख्त लॉकडाउन, केयर-होम में रहने वाले बुजुर्गों और अन्य कमजोर लोगों को नहीं बचा पाता है। जबकि इस लॉकडाउन को इस कमजोर तबके को बचाने के लिए डिजाइन किया गया था। 
ब्रिटेन के अनुभवों की तुलना अन्य यूरोपीय देशों से करने पर यह स्पष्ट होता है कि लॉकडाउन से कोविड-19 की मृत्यु दर में कमी भी नहीं आती है।
पी.सी.आर. टेस्ट और अन्य पक्के अनुमानों से यह संकेत मिलता है कि स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में  5 लाख से अधिक लोगों को कोविड-19 का संक्रमण हो चुका है, जो कि स्टॉकहोम की कुल आबादी का 20 से 25 फीसदी है (हैनसन डी, स्वीडिश पब्लिक हेल्थ एजेंसी , निजी संचार)।
इन में से 98-99 प्रतिशत या तो इस बात से अनजान हैं या फिर अनिश्चित हैं कि उन्हें कोरोना का संक्रमण हुआ है। इनमें से कुछ ही ऐसे थे, जिनमें कोरोना की बीमारी का कोई मुखर लक्षण था; और जिनमें ऐसा लक्षण था भी, वह इतना भी गंभीर नहीं था कि वे अस्पताल जाकर जांच करवाने की जरूरत महसूस करते। कुछ में तो कोई लक्षण ही नहीं था।
अब तो सीरोलॉजी-टेस्ट से भी उपरोक्त तथ्यों की ही पुष्टि हो रही है।
इन तथ्यों ने मुझे निम्नलिखित निष्कर्षों तक पहुँचाया है।
(दुनिया के) सभी लोग कोरोना वायरस के संपर्क में आएंगे और अधिकांश लोग इससे संक्रमित हो जाएंगे।
कोविड -19 दुनिया के सभी देशों में जंगल की आग की तरह फैल रहा है। लेकिन हम यह नहीं देख रहे हैं कि अधिकांश मामलों में इसका संक्रमण नगण्य या शून्य लक्षण वाले कम उम्र के लोगों से अन्य लोगों में होता है। जिन अन्य लोगों को यह संक्रमण होता है, उनमें भी इसके नगण्य लक्षण ही प्रकट होते हैं। 
यह एक असली महामारी है, क्योंकि यह हमें  दिखाई देने वाली सतह के नीचे-नीचे चल रही है। शायद कई यूरोपीय देशों में अब यह अपने चरम पर है।
ऐसे काम बहुत कम हैं, जो हम इसके प्रसार को रोकने के लिए कर सकते हैं। लॉकडाउन संक्रमण के गंभीर मामलों को थोड़ी देर के लिए रोक सकता है, लेकिन जैसे ही एक बार प्रतिबंधों में ढील दी जाएगी, मामले फिर से प्रकट होने लगेंगे।
मुझे उम्मीद है कि आज से एक वर्ष पश्चात् जब हम हर देश में कोविड -19 से होने वाली मौतों की गणना करेंगे तो पाएंगे कि सभी के आंकड़े समान हैं, चाहे उन्होंने लॉकडाउन किया हो, या न किया हो।
कोरोना के संक्रमण के ग्राफ का वक्र समतल (Flatten the Curve) करने के लिए उपाय  किए जाने चाहिए, लेकिन लॉकडाउन तो मामले की गंभीरता को भविष्य में प्रकट होने के लिए सिर्फ आगे धकेल भर देता है। लॉकडाउन से संक्रमण को रोका नहीं जा सकता।
यह सच है कि देशों ने इसके प्रसार को धीमा किया है, ताकि उनकी स्वास्थ्य प्रणालियों पर अचानक बहुत ज्यादा बोझ न बढ़ जाए, और हां, इसकी प्रभावी दवाएं भी शीघ्र ही विकसित हो सकती हैं, लेकिन यह महामारी तेज है, इसलिए  उन दवाओं का विकास, परीक्षण और विपणन शीघ्र करना होगा।
इसके टीके से भी काफी उम्मीदें हैं। लेकिन उसे बनने में  अभी लंबा समय लगेगा और इस वायरस के संक्रमण के प्रति लोगों के इम्यून तंत्र की अस्पष्ट प्रतिक्रिया (Unclear Protective Immunological Response to Infection) के कारण, यह निश्चित नहीं है कि टीका प्रभावी होगा ही।
सारांश में कहना चाहूंगा कि कोविड -19 एक ऐसी बीमारी है, जो अत्यधिक संक्रामक है और समाज में तेजी से फैलती है। अधिकांश मामलों में यह संक्रमण लक्षणहीन होता है, जिसकी ओर किसी का ध्यान नहीं जाता, लेकिन यह गंभीर बीमारी का कारण भी बनता है, और यहां तक कि मृत्यु का भी।
हमारा सबसे महत्वपूर्ण कार्य इसके प्रसार को रोकने की कोशिश करना नहीं होना चाहिए। यह एक निरर्थक कार्रवाई होगी। इसकी जगह हमें इस पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए कि इसके शिकार हुए दुर्भाग्यशाली लोगों की अच्छी देखभाल कैसे की जाए। ” (- द लासेंट, ऑनलाइन फर्स्ट, 5 मई, 2020)

[यह टिप्पणी प्रमोद रंजन की शीघ्र प्रकाश्य कोविड :19 पर केंद्रित पुस्तक में संकलित है]

बुधवार, 26 अगस्त 2020

'शिमला डायरी' उर्फ़ लेखकीय संघर्ष में कोई बाइपास नहीं होता

         जिसे आज पहाड़ों की रानी कहा जाता है, वह कभी उत्तरी भारत के इस हिमालयी राज्य का एक छोटा-सा गाँव हुआ करता था। अँग्रेज़ों को इस पहाड़ी क्षेत्र में अपने देश की तस्वीर दिखती थी। उन्हें यह जगह इतनी पसंद आई की उन्होंने इसे हू-ब-हू इंग्लैंड के शहर की शक्ल देने की कोशिश की। इस तरह सन् 1830 में शिमला को एक शहर की तरह बसाने की क़वायद शुरू हुई। तब से लेकर आज तक यह पर्यटकों के अतिरिक्त अनेकानेक रूपों में लेखकों, कलाकारों को आकर्षित करता रहा है । यह चित्रकार अमृता शेरगिल, लेखक निर्मल वर्मा समेत दर्जनों विख्यात कलाधर्मियों का प्रवास व सृजनस्थली रहा है। इस शहर का जादू इस क़दर रचनाकारों के सर चढ़कर बोलता रहा है कि अनेकानेक उपन्यासों और कहानियों में यह शहर स्वयं ही एक अमूर्त पात्र की तरह उभरता है।
           प्रमोद रंजन की नई किताब इसी शहर का एक निजी वृत्तांत है, जिसकी प्रस्तुत समीक्षा  शिमला में पिछले कुछ वर्षो से प्रवास कर रही मॉरीशस की हिन्दी अध्येता, आलोचक देविना अक्षयवर ने लिखी है :

  डॉ. देविना अक्षयवर   

         शिमला! 'क्वीन ऑफ़ द हिल्स!' अँग्रेज़ों के ज़माने से ही इस नाम से प्रसिद्ध यह शहर अपने प्राकृतिक सौंदर्य, शीत जलवायु और ऐतिहासिक एवं भौगोलिक विशेषताओं के चलते एक महत्त्वपूर्ण पर्यटन स्थल रहा है। अमूमन हम शिमला को भी इसी रूप में जानते हैं और यही समझते हैं कि यह शहर तो मौज-मस्ती करने के लिए नायाब जगह है। लेकिन जब एक लेखक शिमला की घाटियों पर बसी एक व्यापक जन-आबादी को एक प्रबुद्ध लेंस से देखता है,  तो वह अपने पाठकों का ध्यान शिमला, ख़ासकर माल रोड के निचले हिस्से, लोअर बाज़ार, लक्कड़ बाज़ार, तिब्बतन/ तिब्बती कॉलोनी के गली-कूचों की तरफ़ भी खींचता है, जहाँ प्रायः पर्यटकों की निगाह नहीं पड़ती। जहाँ छोटे-छोटे कमरों में, सीमित पानी-बिजली और अन्य मूलभूत सुविधाओं में एक श्रमिक वर्ग भी रहता है, जो आर्थिक संकट के चलते अपनी आजीविका कमाने के लिए, अपने प्रदेशों से पहाड़ों की रानी तक आकर प्रवास करने के लिए विवश हुआ है।
         प्रमोद रंजन ने अपनी हाल में प्रकाशित पुस्तक ‘शिमला-डायरी’ में ऐसी अनेक अलक्षित ज़िन्दगियों का वर्णन किया है।
       शिमला और हिमाचल से प्रमोद रंजन का गहरा नाता रहा है। वे अपनी युवावस्था के दिनों में यहाँ जीविका की तलाश में आए थे। पुस्तक का एक बड़ा हिस्सा वर्ष 2003 से 2006 के बीच हिमाचल-प्रवास के दौरान लिखी गई उनकी निजी डायरी है। जैसा कि रंजन स्वयं मानते हैं कि यह उनकी मनःस्थितियों का 'विरेचन' भी है और साथ ही साथ 'तात्कालिक मनोभावों, घटनाओं व परिवेशगत प्रभावों की प्राथमिकी' भी। लेकिन इस प्राथमिकी में उन्होंने जितनी गहराई से समाज-व्यवस्था, मानव-मनोविज्ञान, राजनीतिक पाखंड आदि के अनेकानेक सूक्ष्म बिन्दुओं को दर्ज किया है, वह न सिर्फ़ भाषा के स्तर पर अद्भभुत है, बल्कि एक कालखंड का जीवंत इतिहास भी बन गया है।
           डायरी के अतिरिक्त इस किताब में लेखक द्वारा लिखे गये कई आलोचनात्मक लेखों, कहानियों, कविताओं तथा हिमाचल प्रदेश के सुदूर क्षेत्रों के दौरों का दिलचस्प, ज्ञानवर्धक एवं तथाकथित आधुनिक दुनिया के लिए विचारोत्तेजक विषयों के संदर्भ में प्रचलित मौखिक इतिहास का भी संचय है। इस इतिहास में वे हिमाचल के सुदूर क्षेत्रों में प्रचलित ‘बहु-पति विवाह प्रथा’ में स्त्री-पुरूष संबंधों की जटिलताओं तथा हिमालयी बौद्ध धर्म के कर्मकांडी स्वरूप समेत बहु-सांस्कृतिक भारत की एक दुर्लभ बानगी का झरोखा पाठकों के सामने खोलते हैं।
किताब में लेखक की निजी डायरी ‘हम तो स्वप्नों की तलाश में गए थे, पहाड़ों की ओर’ शीर्षक से संकलित है। यूँ तो लेखक इसे हिमाचल प्रदेश की राजधानी में बसे एक युवा पत्रकार की हैसियत से लिखता है, जो अनेक सपनों के साथ अपने सुदूर प्रदेश, बिहार से आया है। लेकिन जैसे-जैसे वे पत्रकारिता की दुनिया की निचली तहों तक पहुँचते जाते हैं, उनका मोहभंग होता जाता है। एक लेखक के लिए पत्रकारिता और रचनात्मकता वैसे ही हैं, जैसे व्यास या सतलज नदी के दोनों किनारे, जो साथ-साथ तो चल सकते हैं, लेकिन एकमेक नहीं हो सकते। पत्रकारिता में व्यस्त लेखक की स्थिति को लेखक यूँ दर्शाते हैं - "करीं काम जो बेगारी, तब्बो हाथ न बिगारी।"  लेखक आजीविका के निमित्त पत्रकारिता का हिस्सा तो बनता है, लेकिन उसमें अपनी रचनात्मकता का ख़ुराक ढूँढ़ने के अथक प्रयासों के बाद मायूस ही होता है। इसका ज्वलंत उदाहरण प्रमोद रंजन अपनी किताब के कहानी वाले भाग में 'रामकीरत की रीढ़' नामक अपनी कहानी के माध्यम से देते हैं। इस कहानी में वे बताते हैं कि किस प्रकार पत्रकार बिरादरी उन केकड़ों की तरह है जो अपने क्रकचों से समाज के कमज़ोर तबक़े को निशाना बनाते हैं, जबकि वास्तव में अपने निजी और व्यावसायिक जीवन में वे रीढ़विहीन होते हैं।
          डायरी-लेखन के ज़रिये प्रमोद रंजन एक बुद्धिजीवी पत्रकार की बुनियादी चिंता दर्शाते हुए कई समसामयिक मुद्दों को रेखांकित करते हैं, मसलन,  बगैर धर्म के नैतिकता की तलाश, धार्मिकता बनाम साम्प्रदायिकता का प्रश्न, अखबारों की सनसनी बढ़ाने वाले अश्लील चित्र, सपनों का विज्ञान, बेरोज़गारी, आजीविका की तलाश में प्रवास, तीज-त्योहारों का औचित्य, और प्रदेश, भाषा तथा वर्ण आदि के आधार पर भेद-भाव।
            डायरी होने के बावजूद इसमें की गई साहित्यिक आलोचनाएं और सामाजिक-राजनीतिक टिप्पणियां बहुत सुचिंतित हैं तथा चीजों को नए परिप्रेक्ष्य में देखने के लिए विवश करती हैं। जिन जटिलताओं से वर्तमान भारतीय समाज जूझ रहा है,  उनमें से एक है साम्प्रदायिकता, जिसको लेखक समाज को लीलने वाली बीमारी मानते हैं। दरअसल, यह समस्या समसामयिक न होकर सर्वकालिक है, जिनमें इन वर्षों में तेजी से इज़ाफा हुआ है। लेकिन कई वर्ष पहले की डायरी में इसका एक ठोस कारण देते हुए लेखक अपनी डायरी में दर्ज करते हैं - "सांप्रदायिक ख़बरों का छपना उतना बुरा नहीं है, जितना कि खबरों का सांप्रदायिक होना।" वे बड़ी बेबाकी से यह तथ्य रखते हैं कि आजकल के हिंदी अखबारों के यहाँ तटस्थ लेखकीय सामग्री का दिवालियापन छाया हुआ है। इसी के चलते पाठक वर्ग के सामने  किसी भी मुद्दे पर तटस्थ होकर सोचने-विचारने का अवसर ही नहीं छोड़ा जा रहा।
            दरअसल स्वतंत्र, रचनात्मक लेखन और पत्रकारिता के बीच बुनियादी फ़र्क भी यही है कि स्वतंत्र लेखक किसी भी मुद्दे पर अपने स्वतंत्र विचार रख सकता है, लेकिन पत्रकार के निजी विचारों पर एक ख़ास व्यवस्था और उस व्यवस्था को मज़बूती से कायम करने वाली विचारधारा का दबदबा रहता है। इसीलिए  एक पत्रकार, जो कि साथ ही साथ रचनाकार भी बनना चाहता है, उसके लिए पेशे और रुझान के बीच एक अंतर्विरोध की स्थिति पैदा हो जाती है । एक रस्साकशी, जिससे मुक्त हो पाना बेहद कठिन है। अंतत: लेखक इस निष्कर्ष पर आते हैं कि "लेखक और व्यवस्था मात्र का सम्बन्ध द्वंद्वात्मक ही हो सकता है, इनमें तारतम्य या समन्वय की गुंजाइश नहीं होती।"
           अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में आने वाली चुनौतियों को सम्बोधित करते हुए रंजन कई मनोवैज्ञानिक स्थितियों से गुज़रते हैं। कभी वे अपनी बेरोज़गारी और आर्थिक संकट से जूझते हैं, कभी वे परिवार के प्रति अपना उत्तरदायित्व न निभा पाने की आत्म-ग्लानि महसूस करते हैं। कभी बर्फ के फ़ाहों में उन्हें प्रकृति का जीवन- राग सुनाई देता है तो कभी वही बर्फ़ मृत्यु की शिथिलता का एहसास कराती है। अपने इन्हीं निजी अनुभवों की आंच में तपने के लिए लेखक कभी स्वयं कूद जाते हैं तो कभी उनसे दूरी बनाने का भी प्रयास करते हैं। अपनी डायरी के प्रथम पन्नों में वे एक बहुत ही दिलचस्प अनुभव साझा करते हैं - "मैं अब तक जहाँ-जहाँ भी रहा हूँ, बाइपास सड़क पर ही रहा हूँ। पटना में घर बाइपास पर, शिमला में 'कच्ची घाटी'  बाइपास, और अब यह कमरा, दफ्तर…सब एक बार फिर बाइपास पर ही है…।"  बाइपास! लेखक का जीवन ही किसी न किसी बाइपास से गुज़रता हुआ जान पड़ता है। उनकी जीवन-यात्रा जहाँ कहीं उबाऊ सी जान पड़ने लगती है, वे किसी न किसी बाइपास का सहारा ले लेते हैं। कभी एकांत में जाकर, कभी सामाजिक होने के ख्याल से अपनी ही तरह के लोगों की तलाश करके, कभी आत्माभिव्यक्ति के लिए पत्रकारिता का चुनाव करके, तो कभी स्वतंत्र लेखन के लिए प्रकृति की शांत छाया में पनाह लेकर।  इस आत्माभिव्यक्ति के बीच लेखक गाहे-बगाहे अपने बाइपास के हमराहियों से भी क्षण भर के लिए मुखातिब हो लेते हैं, कभी अरुण कमल, कभी रघुवीर सहाय , कभी कुमार अंबुज,  कभी कुंवर नारायण तो कभी खुद प्रमोद रंजन! लेकिन अंतत: वे पाते हैं कि न तो जीवन-संघर्ष का कोई वाइपास है, न ही लेखकीय संघर्ष का।
         किताब में प्रकाशित ‘डायरी’ के अंत में वे अखबारों की नौकरी को अलविदा कह देते हैं।
        डायरी का यह अंतिम अंश प्रमोद के उस विकट, कठोर और खतरनाक निर्णय के बारे में बताता है, जिसे हर उस लेखक को लेना चाहिए, जो अपने “स्व-भाव” को पाना चाहता है।डायरी वाले भाग के अंतिम दिन – 1 मार्च, 2006 को प्रमोद लिखते हैं :
          “शाम उतर रही है। रक्ताभ सूर्य अभी-अभी खिड़की के सामने वाले मकानों की ओट में हो गया। पहाड़ के शिखरों पर अभी लाल शेष है। धीरे-धीरे वह गायब होगा। रात की शांति उतरती जाएगी.. [शिमला से प्रकाशित सांध्य दैनिक] भारतेंदु शिखर के साथ पूरा हुआ क्षेत्रीय पत्रकारिता, कथित मुख्यधारा की पत्रकारिता का मेरा चक्र आज पूरा हुआ।..तमाम विकल्पहीनता, दु:संभावनाओं के बावजूद इन अखबारों की नौकरी छोड़ देने का मेरा निर्णय ठीक है। हालांकि आज मदन कश्यप जी का पत्र मिला है। लिखते हैं : ‘मेरी राय मानिए, तो अभी नौकरी नहीं छोड़िए। मैं यह प्रयोग कर चुका हूं और भुगत चुका हूं।‘ पता है, मैं भी भुगतुंगा, लेकिन उस व्यवस्था के साथ कैसे रहा जा सकता है, जो मेरी मानसिक, शारीरिक बनावट को विषैला बनाती जा रही थी? ..आज मुक्ति का पहला दिना था। शाम ढल चुकी है। रात का धुंधलका उतरने लगा है। धीरे-धीरे शांति उतरेगी। तन-मन में उनका विष धीरे-धीरे कम होता जाएगा। जल्दी ही सुबह होगी, मैँ अपने स्व-भाव में लौट सकूंगा।”
        पत्रकार, लेखक और अनुसंधानकर्ता, इन तीनों भूमिकाओं के बीच एक ख़ास रिश्ता होता है। बिना एक हुए दूसरा संपूर्ण हो ही नहीं सकते! इसका प्रमाण प्रमोद रंजन खुद हैं। हिमाचल में रहते हुए उन्होंने जिस बारीकी से शिमला और उसके आस-पास के इलाकों का जायज़ा एक पत्रकार के रूप में लिया, उससे कहीं ज़्यादा चुनौतीपूर्ण काम वे कई सालों बाद - वर्ष 2017 और 2018 में हिमाचल प्रदेश के सीमान्त प्रांतों- लाहौल-स्फीति, चम्बा घाटी आदि के दौरे के ज़रिये करते हैं। इस बार वे केवल एक लेखक या पत्रकार की भूमिका में नहीं, बल्कि एक अनुसंधानकर्ता के रूप में नज़र आते हैं। जिन प्रांतों को बौद्ध संस्कृति से पोषित, शांतिप्रिय और भेद-भाव की संस्कृति से रहित माना जाता है, वहां लेखक उस आदि संस्कृति की खोह तक पहुँचते हैं और निष्कर्ष के तौर पर यही पाते हैं कि चाहे पहाड़ी समाज की देव संस्कृति हो या फिर बौद्ध संस्कृति, सभी में कहीं न कहीं जातिगत वर्गीकरण के चलते आचरणगत भेद-भाव मौजूद है। इसी तरह स्त्रियों की स्वतंत्रता की आड़ में छुपी बहुविवाह प्रथा भी परिवार जैसी संस्था, उसके साथ संपत्ति पर एकछत्राधिकार और जाति व्यवस्था की नींव को मज़बूती प्रदान करती दिखती है, जो स्त्रियों के शोषण का सामान्यीकरण कर देती है! सदियों से चलते आ रहे इस नरेटिव के लिए लेखक अंततः एक काउंटर नरेटिव ढूंढ निकालते हैं!
            पाठकों के लिए 'शिमला डायरी'  भूमंडलीकृत तथा भूमंडलीकरण के दौर से गुज़रते भारत की कुछ ख़ास झांकियां प्रस्तुत करती है। यह भूमंडलीकरण जितना आर्थिक स्तर पर घटता है,  उतना ही सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक स्तर पर भी। वर्तमान समय में हम इन झांकियों से नज़र नहीं फेर सकते।

पुस्तक : शिमला-डायरी
लेखक : प्रमोद रंजन
पृष्ठ : 216
मूल्य: 350 रूपए
प्रकाशक: द मार्जिनलाइल्ड प्रकाशन, दिल्ली, फोन : +8130284314,

छुईखदान का इतिहास परत-दर-परत खुला

वीरेन्‍द्र बहादुर सिंह
 डॉ. गणेश खरे
        दैनिक ' सबेरा संकेत '  राजनांदगांव के वरिष्ठ उप संपादक, पत्रकार, लोककर्मी एवं साहित्यकार श्री वीरेन्द्र बहादुर सिंह द्वारा रचित 'छुईखदान: परत दर परत ' नामक ग्रंथ छुईखदान के इतिहास का प्रामाणिक दस्तावेज़ है। इसमें उन्होंने छत्तीसगढ़ की रियासतों के संक्षिप्त विवरण के साथ छुईखदान की विशिष्टता का परिचय प्रस्तुत करने के साथ-साथ  वहां के सेनानियों के द्वारा स्वतंत्रता आन्दोलन, किसान आन्दोलन और गोली कांड का विस्तार से वर्णन किया है। इस संदर्भ में इतिहास की हर सूक्ष्मता, तटस्थता तथा प्रामाणिकता का पूरा ध्यान रखा गया है। इतना ही नहीं उन्होंने यहां के  बहुमुखी विकास के प्रमुख आयामों में साहित्यिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, पत्रकारिता, उद्योग, व्यापार, क्रीड़ा,  विद्युत व्यवस्था  आदि  के विकास की विभिन्न परतों पर भी प्रकाश डाला है।  इसके परिशिष्ट में आपने स्थानीय 60 स्वतंत्रता सेनानियों के नामों के साथ नगर पालिका परिषद,  नगर पंचायत और छुईखदान बुनकर सहकारी समिति के पदाधिकारियों के आज तक के नाम आदि भी देकर इसे स्थानीय इतिहास का विश्वसनीय कोश बना दिया है। अब ऐसा कोई पक्ष नहीं छूटा है जो छुईखदान से संबंधित हो और उसकी चर्चा इस ग्रंथ में न की गई हो। 
छुईखदान एक छोटी सी रियासत रही है पर छत्तीसगढ़ की समग्र 14 रियासतों मेें इसका विशिष्ट स्थान रहा है। स्वतंत्रता आन्दोलन में भी यहां के वीर सेनानियों ने अपने स्वाभिमान और आजादी प्राप्ति की संकल्पशीलता का परिचय दिया है। स्वतंत्रता के पश्चात् भी अपने स्थान की तहसीली और  कोषालय की सुरक्षा के लिए यहां की महिलाओं और पुरुषों ने अपने अधिकारों तथा स्वत्व की रक्षा के लिए संघर्ष किया है इससे इस अंचल का शीश सदा गर्व से उन्नत रहेगा पर प्रजातंत्र-युग में भी यहां के निर्दोष जन समूह पर गोली चालन का आदेश देकर तत्कालीन प्रशासन ने अपनी निर्लज्जता और क्रूरता का जो परिचय दिया वह भारतीय इतिहास का कलंक कहा गया है। श्री  वीरेन्द्र बहादुर सिंह ने उस स्थानीय गोली कांड के हर पक्ष का भी इस ग्रंथ में प्रामाणिक नामों और तिथियों सहित विवरण प्रस्तुत किया है। अभी तक इस संदर्भ में लोगों को इस कांड की औपचारिक जानकारी प्राप्त थी पर अब इस ग्रंथ के माध्यम से यह गोली कांड भी कालजयी बन जायेगा जिससे भविष्य में भी यह स्थान स्वतंत्रता सेनानियों की खदान के नाम से जाना जाता रहेगा। 
           इस रचना के 95 वर्ष पूर्व अर्थात् 1925 में छुईखदान के बाबू धानूलाल श्रीवास्तव ने अपने ग्रंथ 'अष्ट-राज्य-अंभोज ' में छत्तीसगढ़ की रियासतों पर प्रामाणिक जानकारी प्रस्तुत की थी पर विकास के इन लगभग सौ वर्षो में हर जगह के सभी क्षेत्रों में बहुत  अधिक परिवर्तन हुए हैं जिनकी जानकारी इस्तत: बिखरी पड़ी है।  छुईखदान रियासत की समृद्धि और सम्पदा की जानकारी भी लोगों को आधी अधूरी ही ज्ञात है। श्री वीरेन्द्र बहादुर ने अपने  256 पृष्ठों के इस ग्रंथ में यहां के इतिहास को निम्न चार कालों में विभक्त कर सारी बिखरी हुई सामग्री को एक स्थान पर प्रस्तुत करने का प्रशंसनीय कार्य किया है। प्रथम काल है । छुईखदान का रियासत कालीन इतिहास 1750 से 1947 तक, द्वितीय स्वतंत्रता आन्दोलन 1920  से 1947 तक, तृतीय  9 जनवरी 1953 का दुर्भाग्यपूर्ण गोली कांड  और चौथी परत है स्वतंत्रता के इन 70 वषों में छुुईखदान का बहुमुखी विकास। इस प्रकार इस ग्रंथ में लगभग 300 वर्षों की विभिन्न गतिविधियों की प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध है। इस ग्रंथ से प्रेरणा लेकर इस जिले के अन्य स्थानों के विकास की भी प्रामाणिक जानकारियां प्रस्तुत की जानी चाहिए। इस संदर्भ में अभी तक श्री रामहृदय तिवारी द्वारा संपादित 'अतीत और आज के आइने में अरजुंदा ' नामक पुस्तक देखने मिली है जिसके परिशिष्ट में एक सौ के लगभग वहां के विकास से संबंधित रगीन चित्रों का भी समावेश किया गया है ।
           इस ग्रंथ के पहले भी श्री वीरेन्द्र बहादुर ने 'रक्त पुष्प' ,' दूर क्षितिज में ' ,' महुआ झरे ' और 'पृष्ठों का नीड़ ' जैसी पुस्तकों का संपादन कार्य भी किया है। इनके प्रकाशन और संपादन में उन्होंने  जिस लगन, मेहनत और साहित्येतिहास के प्रति अपनी मूल्यवान निष्ठा व्यक्त की है, वह प्रशंसनीय है।  हम इनकी इस 'छुईखदान: परत दर परत ' पुस्तक का स्वागत करते हैं और उन्हें इसके लिए अपनी शुभ कामनायें देते हैं। 
98 सृष्टि कालोनी, राजनांदगांव, 
छ.ग. मो. 9329879485
mail : virendrabs67@gmail.com

सोमवार, 24 अगस्त 2020

देवेन्द्र कुमार पाठक 'महरूम ' की रचनाएं

   देवेन्द्र कुमार पाठक 'महरूम'


बढ़ती ही चली जा रही है ज़ान पे आफत.
काबिज़ है सबकी ज़िंदगी पे ख़ौफ़े-क़यामत.

क्यों बात ये सीधी सी नहीं आती समझ में;
नफ़रत जो आज बोयेंगे,कल काटेंगे नफ़रत.

कितनों को था विश्वास कि भगवत्कृपा होगी;
कितनों को था यक़ीन करेगा ख़ुदा रहमत.

क्यों काजी-पुजारी,ख़ुदा-ईश्वर हुये बेबस;
पूजा,अजान,मन्दिरो-मस्जिद न दें राहत.

हर झूठ पे जब लोग बजाते हों तालियाँ;
सच बोलने की तब किसी को क्या है ज़रूरत.

धनपशु जो काटते नफ़ा,बाज़ार हैं जिनके;
है उनकी तिज़ारत के साथ शाहो-सियासत.

हम काँधों पे ढोते रहें बाखूब सर अपने  ;
उस पर ये नसीहत, करें खुद अपनी हिफ़ाजत.

पत्थर लें बाँध पेट पे, हम आह न करें;
दहलीज न लांघें, न करें कोई शिकायत.

गुज़रे हैं इस गली से बिलानागा सुख मगर;
घर आये न मेरे कभी, मुझसे थी अदावत ? ;

मिठबोलियों की गोलियाँ खाने के बाद अब;
क्यों करते हो तुम नीम बयानी की हिमाक़त.

रोके से भी रुकते नहीं,हो जाते हैं बयां;
ज़ज़्बात भी आमादा हैं करने को बग़ावत.

पेश आये हैं हमसे वो कितनी नेकदिली से;
अब छोड़ दें हम कैसे अपनी सब्रो-शराफत.

काबू रखें ज़ज़्बात पे, सिल लें ज़ुबान भी;
हाकिम-ओ-हुक़ूमत की कीजिये न खिलाफत.

बेहतर है दिन में ख़्वाब देख खुली आंख से ;
नींदों ने छेड़ रक्खी है रातों से बगावत.

'महरूम' वो फ़सले-बहार लौट आयेगी ;
  हर गुलशने-दिल में हैं ये उम्मीद सलामत.

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गीत
       वसुधैव कुटुम्बकम हम न रहे.


ऊपरवाले अब तेरे सबब
          कोई भी शेष भरम न रहे.
बेतरह तेरे मजहब बेबस,
       रक्षक कोई पंथ,धरम न रहे.


कोई मरा भूख से बीच सफर,
          कोई विवश पेड़ से जा लटका;
कोई पिटा पुलिस से घायल घर ,
       कोई दहशतजदा कहीं भटका;

मस्जिद,गुरुद्वारे,गिरजाघर,
                  मंदिर,मठ तीरथ,दरगाहें;
पूजा-नमाज,अरदास-दुआ,
               व्रत और रोज़े हमकदम न रहे.


कोई रेल-पाँत के  साथ चला,
           फिर सोया मौत की गोदी में;
कोई किये आसरा बैठा है
           लबरों की जबर मुँहधोंधी में;

साधन-सुविधाओं का अभाव,
            अटका-भटका,भूखा श्रमबल;
उन पर अगुओं-पिछलगुओं के
             कोई भी कृपा-करम न रहे.



कोई कफन ओढ़कर घर आया,
            कोई पहुंच न पाया अपने घर;
कोई प्रसव बाद नवजात लिये,
             पैदल ही चली मीलों का सफर ;

कोई जात-जमात,कौम-मजहब,
              कोई धर्मग्रंथ,कोई सम्प्रदाय,
कोई काजी-पुजारी,इमाम-सन्त,
             कोई शाह शरीके-ग़म न रहे.



अब बची हुई मर्यादा से
        पदलिप्सा खुलकर  खेल रही;
यह रय्यत धर्मभीरु बेबस,
              घर पर ही उसको जेल रही.

गंगा-जमनी जीवन प्रवाह
          हो रहा प्रदूषित,बाधित क्यों ?
किसने विद्वेष-विष घोल दिया,
           वसुधैव कुटुंबकम हम न रहे!

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साईं पुरम कॉलोनी,कटनी.म.प्र.

बुधवार, 12 अगस्त 2020

-क्षितिज जैन "अनघ" की दो कविताएं

             हम जीतेंगे
सारे कष्टों को सहर्ष झेलकर
सपनों का प्रयास से मेल कर
स्वयं को और दृढ़   बनाएँगे
अंधेरा छोड़ कर उजाला पाएंगे।
                   प्रतिकूलता में भी नहीं   रूककर 
                   अपने पराक्रम से देंगे हम उत्तर 
                   दुख-अवसाद के ये क्षण भी बीतेंगे
                   जीवन के हर संग्राम में हम जीतेंगे।
अपने मन को शक्ति बनाकर
चल पड़ेंगे हम शीश  उठाकर
तूफानों में भी नहीं डगमगाएंगे
मुश्किलों से जा कर टकराएँगे।
                    बल बनाकर आती विपदाओं को 
                    पूरा करेंगे अपनी  तमन्नाओं को 
                    परिस्थितियों से चाह प्रबल  होगी 
                    तब हमारी तपस्या   सफल होगी।
जीवन के रण नित लड़ा करेंगे
टूटे मन को फिर से खड़ा करेंगे
जो भी विघ्न हमारे समक्ष आएंगे
इनको भी हम हौंसला   दिखाएंगे।
                      पीड़ाओं का लेकर यह वरदान 
                      बनाएँगे स्वयं की हम पहचान 
                      सारे संकटों को सर्वदा हराएंगे
                      अपनी जय का उत्सव मनाएंगे।
जुनून में ढालकर प्रयास को
सच्चाई बना देंगे विश्वास को
पुरुषार्थ के गीत अनेक गाएँगे
मंज़िलों को कदमों तक लाएँगे।
                      निराशा में हो क्षण भी बर्बाद नहीं 
                      बीते हुए की सताएगी क्याद  नहीं 
                      प्रतिकार करेंगे संघर्ष की पुकार का 
                      जवाब देंगे चुनौती की ललकार का 
तकलीफ़ों से उठकर बताएँगे
सच से अपनी आँखें मिलाएंगे
राह में आए विघ्न भी बीतेंगे
हर संग्राम में हम    जीतेंगे।


रोने से क्या होगा
अकर्मण्यता काल समाप्त हुआ
मिटी अँधियारे की भी  परछाई
पाकर अवलंबन आकाश    का
प्रभात ने ओढ़ ली  है  तरुणाई।
                   सुषुप्त मनों जो जाग्रत करती 
                   पहली किरण भूमि  पर  पड़ी 
                   नए दिन का हुआ नया आरंभ
                   आ गयी कर्मरत होने की घड़ी।
हो निश्चेष्ट मींचकर नयनों  को
व्यर्थ ही ऐसे सोने से क्या होगा?
आँसू पोंछ डालो अपने हाथों  से
आखिर यूं  रोने से क्या  होगा?
                   समय तुरंग होता  तीव्रगामी
                   करता नहीं किसी का इंतज़ार
                   उस तुरंग के साथ है  चलना
                   अत: बैठ मत पथ में थक-हार।
प्रत्येक मानव का अपना संघर्ष
होती है कष्टों की अपनी कहानी 
अपनी स्थिति न दुर्लभ समझ तू
उन्हें पाने वाला तू न पहला प्राणी।
                       जब समर में धर दिये हैं पग 
                       फिर दुर्बल होने से क्या होगा?
                       प्रलाप से दया मिले, जय नहीं
                       आखिर यूं रोने से  क्या होगा?
दिशा का ज्ञान हुआ करता तभी
ठोकर लगती जब  कोई  एकाध
लड़खड़ा कर गिरने में  दोष नहीं
किन्तु न उठ पाने में है अपराध।
                       जब पथ पर भरे हुए  हो कंटक 
                       तो कोई और विकल्प क्या शेष है?
                       जीवन संग्राम जब जाता है  लड़ा 
                       तो सहने पड़ते अनेक  क्लेश  है।
जो सुख-चैन फिसलते रेत  जैसे
तो थोड़ा और खोने से क्या होगा?
जो बीत  गयी  सो  बात   गयी
आखिर अब यूं रोने से क्या होगा?
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