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सोमवार, 24 अगस्त 2020

देवेन्द्र कुमार पाठक 'महरूम ' की रचनाएं

   देवेन्द्र कुमार पाठक 'महरूम'


बढ़ती ही चली जा रही है ज़ान पे आफत.
काबिज़ है सबकी ज़िंदगी पे ख़ौफ़े-क़यामत.

क्यों बात ये सीधी सी नहीं आती समझ में;
नफ़रत जो आज बोयेंगे,कल काटेंगे नफ़रत.

कितनों को था विश्वास कि भगवत्कृपा होगी;
कितनों को था यक़ीन करेगा ख़ुदा रहमत.

क्यों काजी-पुजारी,ख़ुदा-ईश्वर हुये बेबस;
पूजा,अजान,मन्दिरो-मस्जिद न दें राहत.

हर झूठ पे जब लोग बजाते हों तालियाँ;
सच बोलने की तब किसी को क्या है ज़रूरत.

धनपशु जो काटते नफ़ा,बाज़ार हैं जिनके;
है उनकी तिज़ारत के साथ शाहो-सियासत.

हम काँधों पे ढोते रहें बाखूब सर अपने  ;
उस पर ये नसीहत, करें खुद अपनी हिफ़ाजत.

पत्थर लें बाँध पेट पे, हम आह न करें;
दहलीज न लांघें, न करें कोई शिकायत.

गुज़रे हैं इस गली से बिलानागा सुख मगर;
घर आये न मेरे कभी, मुझसे थी अदावत ? ;

मिठबोलियों की गोलियाँ खाने के बाद अब;
क्यों करते हो तुम नीम बयानी की हिमाक़त.

रोके से भी रुकते नहीं,हो जाते हैं बयां;
ज़ज़्बात भी आमादा हैं करने को बग़ावत.

पेश आये हैं हमसे वो कितनी नेकदिली से;
अब छोड़ दें हम कैसे अपनी सब्रो-शराफत.

काबू रखें ज़ज़्बात पे, सिल लें ज़ुबान भी;
हाकिम-ओ-हुक़ूमत की कीजिये न खिलाफत.

बेहतर है दिन में ख़्वाब देख खुली आंख से ;
नींदों ने छेड़ रक्खी है रातों से बगावत.

'महरूम' वो फ़सले-बहार लौट आयेगी ;
  हर गुलशने-दिल में हैं ये उम्मीद सलामत.

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गीत
       वसुधैव कुटुम्बकम हम न रहे.


ऊपरवाले अब तेरे सबब
          कोई भी शेष भरम न रहे.
बेतरह तेरे मजहब बेबस,
       रक्षक कोई पंथ,धरम न रहे.


कोई मरा भूख से बीच सफर,
          कोई विवश पेड़ से जा लटका;
कोई पिटा पुलिस से घायल घर ,
       कोई दहशतजदा कहीं भटका;

मस्जिद,गुरुद्वारे,गिरजाघर,
                  मंदिर,मठ तीरथ,दरगाहें;
पूजा-नमाज,अरदास-दुआ,
               व्रत और रोज़े हमकदम न रहे.


कोई रेल-पाँत के  साथ चला,
           फिर सोया मौत की गोदी में;
कोई किये आसरा बैठा है
           लबरों की जबर मुँहधोंधी में;

साधन-सुविधाओं का अभाव,
            अटका-भटका,भूखा श्रमबल;
उन पर अगुओं-पिछलगुओं के
             कोई भी कृपा-करम न रहे.



कोई कफन ओढ़कर घर आया,
            कोई पहुंच न पाया अपने घर;
कोई प्रसव बाद नवजात लिये,
             पैदल ही चली मीलों का सफर ;

कोई जात-जमात,कौम-मजहब,
              कोई धर्मग्रंथ,कोई सम्प्रदाय,
कोई काजी-पुजारी,इमाम-सन्त,
             कोई शाह शरीके-ग़म न रहे.



अब बची हुई मर्यादा से
        पदलिप्सा खुलकर  खेल रही;
यह रय्यत धर्मभीरु बेबस,
              घर पर ही उसको जेल रही.

गंगा-जमनी जीवन प्रवाह
          हो रहा प्रदूषित,बाधित क्यों ?
किसने विद्वेष-विष घोल दिया,
           वसुधैव कुटुंबकम हम न रहे!

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साईं पुरम कॉलोनी,कटनी.म.प्र.

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