आज यह सोचकर विस्मय होता
है कि कभी मार्क्सवादी आलोचना ने नई कविता पर यह आक्षेप किया था कि ये
कविताएँ ऐंद्रिक अनुभवों के आवेग में सामाजिक अनुभवों की उपेक्षा करती हैं।
आज आधी सदी बाद जब काव्यानुभव में इंद्रियानुभव की हिस्सेदारी पर विचार
करें तो मामला एकदम विपरीत मिलेगा। नई कविता के बाद, अंतिम बार आठवें दशक
की कविता ने मानवीय अनुभव के ऐंद्रिक पक्ष को समझा था (ख़ासतौर से वीरेन
डंगवाल ने)। उसके बाद की कविता में व्यक्तिगत, सामाजिक अनुभव बढ़ते गए,
लेकिन ऐंद्रिक अनुभव सूखता गया है। इससे कविता के अनुभव-संसार में असंतुलन
पैदा हो गया है। चाहे व्यक्तिगत उदासी, अवसाद की आत्मलिप्त कविताएँ हों
चाहे ग़रीबी, जातिभेद, सांप्रदायिकता की मुखर सामाजिक अनुभवों की
कविताएँ—दोनों अपने इंद्रियजन्य अनुभवों को पीठ दिए खड़ी रहती हैं। कविताओं
में श्रव्य, घ्राण, स्वाद, स्पर्श-जन्य अनुभव दुर्लभ होते गए हैं। दृश्य
बिम्ब अलबत्ता अतिरिक्त हैं, जो दृष्टिविहीन पर्यवेक्षण अधिक लगते हैं।
पिछले दशकों में सैकड़ों संग्रह प्रकाशित हुए होंगे, हज़ारों कविताएँ लिखी गई
होंगी, परंतु स्पर्श और गंध के दो-चार हृद्य-बिम्ब खोजने पर निराश होना
पड़ता है। ऐसा लगता है कि काव्यानुभव में विचार—संवेदन—कल्पना के त्रिकोण से
संवेदन का हत्था उखड़ चुका है।
आज लगभग आधी सदी बाद, यह कहने की
ज़रूरत आन पड़ी है कि डिजिटल माध्यम ने जिस तरह वास्तविक गंध, स्वाद, स्पर्श
के ठोस संवेदन और अनुभवों को हमसे छीनकर इसे कामुक तथा सनसनीख़ेज़ राजनीतिक
छवियों से भर दिया है, उसमें वास्तविक संवेदनों की वापसी कविता का आवश्यक
कार्यभार हो गया है। आख़िर इस डिज़िटल शीशमहल में कोई तो खिड़की होनी चाहिए
जहाँ से हम वास्तविक संवेदनों तक जा सकें। ऐसे में न सिर्फ़ कविता बल्कि
तमाम कला-माध्यमों की ज़िम्मेदारी बनती है कि वे मनुष्य के आनुभविक अंतर्लोक
को बैलेंस करें।
ऐंद्रिक अनुभवों के देशनिकाला पाने से कविताएँ
अपना भी देस खो देती हैं। क्योंकि कविता में देस-तत्त्व को पैदा करने वाली
चीज़ विचार और कल्पना नहीं, इंद्रियबोध है। अधिकांश कवियों के भूगोल का
अंदाज़ा नहीं लगता तो इसलिए कि कवि इंद्रिय-संवेदन की ज़मीन छोड़कर लोकप्रिय
आख्यानों और धारणाओं के पुनरुत्पादन को कविता समझने लगे हैं। यही वे प्रश्न
और बहसें हैं जहाँ पूनम वासम की कविताएँ अपनी क्षमता भर कुछ जोड़ती हुई
दिखाई पड़ती हैं।
पूनम को पढ़ते हुए लगेगा कि यह उत्तर-आधुनिक
अंतर्विरोधों के भीतर से आयासपूर्वक अपनी ज़मीन और संवेदन की तरफ़ लौटने की
कोशिश नहीं है, बल्कि उनका कवि-व्यक्तित्व अनाधुनिक क़िस्म के उस आदिवासी
सौंदर्यबोध का विकास है। यह व्यक्तित्व अपने परिवेश से कटकर फिर उसे ही
ऑब्जेक्ट की तरह नहीं देखता, बल्कि उसी परिवेश का जैविक हिस्सा लगता है।
इससे दो चीज़ें होती हैं। एक तो हिंदी कविता में वह उदासी-अवसाद-विषाद के
सार्वत्रिक अनुभवों से बच जाती हैं। दूसरे, उनके व्यक्तिगत अनुभव भी
सामुदायिक अनुभव और स्मृतियों में घुलने लगते हैं। यहाँ व्यक्तिगत
अनुभूतियाँ नहीं हैं; प्रेम कविताएँ हैं, लेकिन वे भी एकांतिक अनुभव न होकर
प्रकृति का उत्सव लगती हैं।
वर्षों पहले पूनम की कविताओं पर लिखते
हुए मैंने कहा था कि ‘पूनम में सूक्ष्म पर्यवेक्षण क्षमता है’। अब उनका
पहला कविता-संग्रह ‘मछलियाँ गायेंगी एक दिन पंडुमगीत’ पढ़ने के बाद मुझे
अपने ही जुमले पर पुनर्विचार की ज़रूरत लग रही है। दरअसल, पर्यवेक्षण परिवेश
से विलग व्यक्ति का सायास चुनाव है; जबकि पूनम के लिए यह परवेश उनकी
अनुभूतियों का अनायास हिस्सा है। वह उसका तटस्थ पर्यवेक्षण करना भी चाहें
तो यह कठिन होगा। जो नदी, जंगल, पहाड़, पेड़, फ़सल पूनम की कविताओं में इतने
केंद्रीय चरित्र की तरह ससंज्ञ लौटते हैं, वे पर्यवेक्षण क्षमता का परिणाम न
होकर अनुभवों का अनिवार्य अंशधारी हैं। पूनम के इस संग्रह में जितनी
नदियों, पहाड़ों का नाम आता है; वह समकालीन कविता में दुर्लभ है। यह ठीक है
कि नाम गिनवाना अपने आपमें कवीत्व नहीं है, लेकिन इससे कवि के कन्सर्न और
कवि-व्यक्तित्व के बारे में पता ज़रूर चलता है। यही बात पूनम को अपने वय के
बाक़ी कवियों से अलगाती है। हाल ही में पूनम के साथ जसिंता केरकेट्टा और
अनुज लुगुन के भी संग्रह आए हैं। लेकिन जसिंता अपने प्रकृति-परिवेश के बजाय
बहसधर्मी तार्किक भाषा की तरफ़ चली जाती हैं। अनुज लुगुन बिम्बों और
प्रतीकों की काव्य-युक्तियों का सहारा लेते हैं, लेकिन उससे उनकी कविता का
कोई भूगोल बनता हुआ नहीं दिखाई पड़ता है।
पूनम सिर्फ़ नदी, जंगल,
पहाड़, पेड़, पौधों ही को नहीं लातीं; बल्कि सामुदायिक जीवन, जातीय
स्मृतियाँ, लोकोक्तियों-मुहावरों, टोटेम, स्थानीय देवताओं, धार्मिक आचारों
और संघर्ष की स्मृतियों का एक एथनिक और मानवशास्त्रीय संसार खड़ा कर देती
हैं। इससे पाठक को धीरे-धीरे यह समझ में आने लगता है कि मनुष्य का अस्तित्व
अनेक संदर्भों पर टिका हुआ है। वह मात्र आर्थिक राजनीतिक संदर्भ में ही
नहीं रहता, वह मात्र प्राकृतिक संदर्भ में भी नहीं रहता, बल्कि परंपराओं,
मान्यताओं और सामुदायिक व पारिवारिक स्मृतियाँ भी उसके अस्तित्व का आवयविक
हिस्सा हैं। यह बात एक काव्य-शैली होने से ज़्यादा गहरी है। असल में यह
हिंदी कविता में जुड़ रहा एक नया सौंदर्यबोध है, जिसमें अभी भले अपेक्षित
सफ़ाई न मिले; लेकिन यह धीरे-धीरे निखरता जाएगा।
अगर आप इस संग्रह की
कविताओं को ध्यान से पढ़ें तो वर्तमान और इतिहास, घटित और घटमान का संबंध
कुछ असामान्य लगेगा। आपको लगेगा कि इस काव्यानुभूति में इतिहास और
स्मृतियाँ वर्तमान से पीछे, उससे कटी हुई चीज़ें नहीं हैं, बल्कि वह निरंतर
वर्तमान का हिस्सा हैं, उसमें लगातार शामिल हैं। आपको लगेगा कि इनकी
सामुदायिक स्मृतियाँ वर्तमान से विच्छिन्न नहीं होतीं, बल्कि वर्तमान के
अनुभव में आवयविक रूप से शामिल होकर उसे ढालती रहती हैं। इसलिए इतिहास भी
वर्तमान के साथ ही जिया जाता हुआ लगता है। यह आधुनिक इतिहास दृष्टि से अलग
वैकल्पिक इतिहासबोध है। कविता और भाषा में सामुदायिक स्मृतियों का ऐसा
हस्तक्षेप कहीं और नहीं मिलता।
इस तरह पाएँगे कि पूनम की कविताएँ एक
ऐसे अंचल की रचना करती हैं, जिसका भूगोल और सांस्कृतिक वैशिष्ट्य एकदम साफ़
है। लेकिन यह अंचल किसी शून्य में नहीं है, उसके भी होने का एक संदर्भ है
और जो उतना सुंदर नहीं है। पूनम को बस्तर अंचल के इस असुंदर वैश्विक संदर्भ
का भी भान है। इसलिए कई कविताओं में इस अंचल पर आसन्न संकट भी साफ़ सुनाई
पड़ता है। राज्य, उपभोक्तावाद और इस सबका प्रतिरोध—इस अंचल पर हर तरफ़ से एक
साथ मारें पड़ रही हैं। इस संग्रह की कई कविताओं में यह बहुत मार्मिक ढंग से
आया है। ‘बारूद पानी पानी हो जाए’ शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ देखिए—
“तुम गुनगुनाने लगते हो तब
तुमसा कोई प्यारा, कोई मासूम नहीं है
कि तुम जान हो मेरी तुम्हें मालूम नहीं है
और खिलखिलाहट के साथ लाल हो उठता है
मेरा चेहरा शर्म से
तुम कसकर मुझे बाँहों में धर लेते हो कि
तभी बारूद की तीखी गंध से मेरा सिर चकराने लगता है
घनी झाड़ियों ऊँचे पहाड़ों को चीरती
एक गोली तुम्हारे सीने के उस हिस्से को भेदती हुई
गुज़र जाती है
स्वप्न की उसी टेक पर जहाँ अभी-अभी मैंने अपना
सिर टिकाया था”
गुज़र जाती है
स्वप्न की उसी टेक पर जहाँ अभी-अभी मैंने अपना
सिर टिकाया था”
इस
ख़ूबसूरत स्वप्न में गोलियाँ चल रही हैं। ऐसी कई कविताएँ हैं, जहाँ स्वप्न
में भय और संघर्ष एक साथ आते हैं। ऐसा लगता है कि अपनी नींद और सपनों में
हर तरफ़ से आक्रांत और लड़ता हुआ अंचल सीधे उठकर कविता में चला आ रहा है। ऐसी
कविताएँ इस बात का प्रमाण हैं कि पूनम आंचलिकता के सौंदर्य से थोड़ी मुग्ध
ज़रूर हैं, लेकिन इतनी मासूम नहीं हैं कि उसका अंतर्संघर्ष न महसूस सकें।
लेकिन यह एक तथ्य है कि पूनम बस्तर के भूगोल और आंचलिकता में ज्यादा रमती
हैं। उसके समाज-राजनीतिक विश्लेषण में उस तरह नहीं जातीं। समीक्षक यह नहीं
कह रहा है कि सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषण से ही कविता होती है। पर अगर कोई
कवि अपने अनुभवों का समाजार्थिक संदर्भों में विश्लेषण करके उसके अनुसार
अपना पक्ष नहीं तय करता, तो अनगिनत खंडों में टूटे हुए समाज में आपकी आत्मा
दाएँ-बाएँ झूलता पेंडुलम बन जाएगी। पूनम के साथ यही हुआ है। वह तात्कालिक
संवेदना को ही अपना पक्ष मानती हैं, इसलिए एक जगह उनकी संवेदना दाएँ भागती
है तो दूसरी जगह बाएँ। कहीं वह आधुनिक राज्य और उपभोक्तावाद को आदर्श मानती
हैं, तो दूसरी तरफ़ अनाधुनिक क़िस्म के सामुदायिक जीवन की तरफ़, तो कहीं
माओवाद और राजकीय हिंसा के बीच एक आसान-सी आदिवासियत की तरफ़। इसलिए उनकी
संवेदना कहीं बिखरी हुई है तो कहीं उलझ गई है, अतः कविताएँ सामान्यतः अपने
संरचनागत कसाव को उपलब्ध नहीं कर पातीं। पूनम के कवि व्यक्तित्व को अभी यह
वैचारिक अंतर्संघर्ष करना बाक़ी है।
इस संग्रह के उत्तरार्ध में कुछ
कविताएँ ऐसी हैं, जिनकी भाषा और अंतर्वस्तु अब तक यहाँ चर्चित कविताओं से
एकदम अलग है। ‘कैसे बचा’, ‘इच्छाएँ’, ‘कविता की भूख’, ‘थकान’, ‘मृत्यु’,
‘भाषा’ आदि कविताएँ ऐसी ही हैं। ये अपने परास में छोटी और गठी हुई हैं।
इनमें वर्णन, पर्यवेक्षण, स्मृतियाँ छूट चुकी हैं; और विचार-प्रत्यय
संसक्ति के साथ आता है। इस तरह पूनम वासम अपने इस संग्रह में दो रास्तों की
खोज कर रही हैं। हो सकता है कि आगे वह आंचलिक काव्यानुभव की तरफ़ जाएँ, हो
सकता है कि वैचारिक अन्वय की सामासिक संरचना की तरफ़ जाएँ या यह भी हो सकता
है कि वह इन दोनों दिशाओं के समन्वय के साथ ज़्यादा वरेण्य काव्यपंथ की खोज
करने में सक्षम हो पाएँ।
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