लोकनाथ साहू ललकार
एक
बूढ़ा पीपल का पेड़ था । उसकी रंगत उतर चुकी थी । बस पत्ते विहीन शाखाएँ दिख
रही थीं । उसमें चील-गिद्धों का बसेरा था । पेड़ के नीचे एक घर था, जहाँ
मानवता रहती थी । मानवता, सीधी-सादी-सौम्य । जेठ का महीना चल रहा था ।
चिलचिलाती दुपहरी में रास्ते सुनसान थे । अलबत्ता, कभी हवा की सरसराहट, तो
कभी पत्तों की खड़खड़ाहट से नीरवता टूट जाती थी । तभी असत्य ने मानवता के घर
दस्तक दी । मानवता ने द्वार खोला । सामने काला-कलूटा असत्य सत्ता की बैसाखी
के सहारे खड़ा था । चेहरा भद्दा और कुरूप । दो दाँत निकले हुए थे । एक आँख
के नीचे गहरा जख्म था । चेहरे पर कुटिल मुस्कान । उसके साथ हैवानों की
टोली भी थी । उनकी आँखों में दरिंदगी झलक रही थी । उनकी बदबूदार साँसों से
मानवता की साँसें घुटने लगीं । असत्य की विकरालता देख मानवता डर गई ।
असत्य ने हैवानों को मुस्कुराते हुए संकेत किया । हैवान दरिंदगी पर उतर
आए । मानवता अनुनय-विनय करती रही । हैवानों की दरिंदगी से मानवता चीख उठी ।
चीख की गुंज ! अनुगूंज !! प्रतिगूंज !!! तभी नैतिक और संवेदना, दोनों
भाई-बहन निकट रास्ते से गुजर रहे थे । मानवता का चीत्कार सुन दोनों मदद के
लिए आए । असत्य ने अपशब्दों से घुड़की लगाई-
नैतिक ! तुम यहाँ से दफ़ा हो जाओ ।
असत्य ! तुम गलत कर रहे हो । अपने दरिंदों से कहो, मानवता को छोड़ दे - नैतिक ने कहा ।
नैतिक ! तुम अपनी बहन संवेदना की खैरियत चाहते हो, तो लौट जाओ । अन्यथा, ये हैवान उसे भी ... ।
डरकर दोनों भाई-बहन लौट गए । मानवता चीखती रही । चीख गुंजती रही । मददगार
कोई न था । हैवान मानवता के जिस्म पर दरिंदगी की दास्ताँ लिखते रहे ।
पश्चात् लौट गए । मानवता लहूलुहान तड़पती पड़ी रही । असत्य ने इंसानियत का
मुखौटा लगाया और कानून को इत्तला की । कानून आया । देखा, मंजर वीभत्स था ।
मानवता अत्यंत गंभीर । उपचार के लिए उसने मानवता को चिकित्सालय दाखिल
करवाया । बाहर इंसानियत के मुखौटेधारियों का हुजूम था । मानवता की स्थिति
अब-तब की थी । नैतिक और संवेदना मानवता की सेवा के लिए आए । असत्य ने
उन्हें अपशब्दों से भगा दिया । कानून जाने कहाँ था । अंततः, असहाय मानवता
मर गईं ।
मानवता मर गई ! मानवता मर गई !! सुनकर असत्य की आँखों में चमक आ गई । चेहरा
खिल उठा । हुजूम मानवता की मौत के लिए चिकित्सकों को जिम्मेदार ठहरा रहे
थे । कोई चिकित्सालय को जलाने की बात कर रहा था, कोई चिकित्सक को मारने की ।
मानवता के शव को दहन के लिए ले जाया गया । दहन स्थल पर सत्य के
अस्थि-पंजर की चिता सजी थी । असत्य एक हाथ में सत्ता की बैसाखी, दूसरे हाथ
में अग्नि । उसने सत्य की चिता को अग्नि दी । चिता धू-धूकर जलने लगी ।
मानवता भस्म हो गई । यह सब देख पश्चिम में सूर्य तमतमा रहा था । तभी
क्षितिज से सूर्य के निकट काले-काले बाद आ गए । सूर्य ने शनैः-शनैः शर्म
की काली चादर ओढ़ ली ।
सांझ के बाद रात हुई ।
झींगुर अपने होने का अहसास करा रहे थे । पीपल के पेड़ से चील-गिद्धों की
कर्कश आवाजें आ रही थीं । निकट ही, असत्य और हैवानों का जश्न चल रहा था ।
मानवता के घर घुप्प अंधेरा ... सन्नाटा पसरा था । संवेदना ने नैतिक से
कहा-
नैतिक, मेरे भाई ! मानवता के बिना घर में कितना सन्नाटा है । एक दीया तो जला दे ।
बहन ! एक दीया क्या कर लेगा ?
भाई ! दीया मध्यम ही सही, इसमें आस की ज्योति होती है । चाहे सब दीये बुझ
जाएं, पर एक आस का दीया जलते रहना चाहिए । उससे अन्य दीये रोशन हो सकते हैं
। कौन जाने, मानवता की आत्मा किसी मानव में समा जाए।
नैतिक ने अपनी बहन संवेदना की बात मानी । उसने माटी का एक दीया मानवता
के अंधेरे-सूने घर में रख दिया । सन्नाटों के बीच दीया निस्तेज जल रहा था ।
लोकनाथ साहू ललकार
बालकोनगर, कोरबा (छग)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें