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शनिवार, 4 फ़रवरी 2023

हैं डटे हिमालय सा किसान

वासुकि प्रसाद "उन्मत्त "
 
हैं डटे हिमालय सा किसान आकाश की तरह हो विशाल
पृथ्वी सा होकर धैर्यवान दृढ़ संकल्पित ज्योतित मशाल
है खिसकती जा है रही उनके पैरों के नीचे से ज़मीन
काले कृषि क़ानूनों से वे आहत विषण्ण हैं खिन्न दीन
वे चले घरों से यह कहकर "काले क़ानून मिटायेंगे
हो जायेंगे लड़ते शहीद पर नहीं हार घर आयेंगे
आयेगी हमारी जय हमसे पहले होकर के सिंहनाद
अथवा लाशें आयेंगी करोगे शहीदों सा हम सब को याद"
"मरना दोनों ही जगह में है, घर में रह भूखों मरना क्या
यह मृत्यु अवश्यम्भावी है इस मौंत से भला डरना क्या
हम न्याय केलिए चल हैं पड़े तानाशाही को झुकायेंगे
हम भगतसिंह वाली परम्परा की मिसाल बन जायेंगे"
ट्रेक्टर ट्राली की फ़ौज सहित चल पड़े हर तरफ़ से किसान
जैसे हो भीष्म प्रतिग्या चलती जन जन में हो मूर्तिमान
अगणित झंडे बैनर लेकर साल साल भर का ले के रसद
तम्बुओं को वाहनों पर लादे ख़ुद भी उनपर बैठे हुए लद
भौंचक धरती आकाश चकित देख कर इतना विस्तृत प्रयाण
सत्ता ने खोद डाली सड़कें ठेंगे पर रखके संविधान
भारी भारी बोल्डरों से हरियाणा की सीमा दी वो पाट
डट गए मोर्चा लेकर के वहीं बलवीर सिक्ख बलवीर जाट
कँप रहा दिसंबर शीत में था उसपर पानी की बोछारें
गोले पर गोले अश्रु गैस के धुंध में इन्क़लाबी नारे
बेरहम लाठियों के प्रहार ऊर्जा में तने लोहित शरीर
छेदते तनों को बरछी से बह रहा था बर्फ़ीला समीर
हर ओर लगे थे बेरिकेट्स ख़ाकी बर्दी बादल जमाव
तोड़ते उसे कृषकों का नद चल पड़ा प्रलय का हो बहाव
गाजेबाजे के साथ गीत भर रहे थे उनमें ओज जोश
सत्ता बेबस असहाय ठगी बस ताक रही थी खो के होश
यूपी समेत भारत के हर हिस्से से निकल पड़े किसान
"काले कृषि क़ानून वापस लो"के नारे से गुँजायमान
हर जगह वही धींगामुश्ती सत्ता का झेलते प्रलय क्रूर
लाखों की संख्या में हर दिन बढ़ रहे हैं हर डर को कर दूर
दिल्ली को घेर रहे धीरे धीरे, फिर दे हैं रहे ढील
हो ताकि नहीं जनसाधारण को किसी तरह की भी मुश्किल
सत्ता है चला रही वार्ताओं का खाली दौर पर दौर
लेकिन असली मुद्दे पर वह कर रही नहीं है तनिक ग़ौर
देखा हमने इन आँखों से संभवतः देश में प्रथम बार
सत्ता काले क़ानून के पक्ष में चला रही है जी प्रचार
आंदोलन को पाकिस्तानी ख़ालिस्तानी कह रही न थक
माओवादी प्रेरित चीन से जाने क्या क्या झूठ रही है बक
पर फ़र्क नहीं इससे कुछ भी पड़ रहा है जनसैलाबों पर
अपनी तानाशाही दरिंदगी में सत्ता नित रही है घिर
इस क्रूर ठंड में वर्षा की इनपर पड़ रही है क्रूर मार
तम्बुओं में पानी का जमाव लंगर पर वर्षा की बौछार
चालीस खो चुके शांतिपूर्ण आंदोलन करते ठिठुर प्राण
हैं क ई कगारों पर इसके पर सुलग रहा है स्वाभिमान
सत्ता के दुश्प्रचार से तंग उसकी मशीनरी को खदेड़
है रही आम जनता हो क्रुद्ध जारी है सत्ता का मुठभेड़
जैसे हो कच्छप का अवतार जैसे हो वामन का अवतार
हर दिन आंदोलन का होता ही जा है रहा दृढ़ सुविस्तार
अद्भुत इनकी है व्यूह रचना अद्भुत है इनका अनुशासन
अद्भुत लाखों पर इनकी पकड़ अद्भुत इनका रण संचालन
इनको इनके नेताओं को विप्लवी हैं लाखों लाख सलाम
इनको इनके नेताओं को मन कर है रहा सादर प्रणाम
ये जनता की मानवीय शक्तियों के प्रतीक हो रहे उभर
ये हैं जनता के अन्नदाता हैं रीढ़ हैं सब इनपर निर्भर

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