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शुक्रवार, 11 नवंबर 2022

प्रेमचंद की कहानी 'बड़े भाई साहब' का पाठ-भेद यानि युक्तियों के अतिक्रमण का मनोवैज्ञानिक पाठ!

  संजय कुमार सिंह
 
   'बड़े भाई साहब' प्रेमचंद  की मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि की कहानी है। उन्हौंन इसके रचना-विधान में विलक्षण कथा-शिल्प का प्रयोग किया है।प्राय:कहा जाता है कि प्रेमचंद की कहानियों में घटना और परिस्थितियों का स्वाभाविक विकास होता है।इनके पात्र चरित्र-चित्रण की दृष्टि से सुस्पष्ट होते हैं। मनोवैज्ञानिक गुत्थियों और उलझनों को विश्लेषित करने की बजाय बहाँ क्रिया-व्यापारों का ऐसा सटीक संयोजन होता है कि कहानी अपने उद्देश्य को सिद्ध कर लेती है।लेकिन 'बड़े भाई साहब' की कथा-संरचना इन युक्तियों पर टिकी हुई नहीं है। कहानी के केन्द्र में कोई बड़ी घटना नहीं है, जिसका नाटकीय विन्यास पाठक के ऊपर छाप छोड़े। इस अर्थ में बड़े भाई साहब भिन्न संदर्भ की कहानी है, जिसका शिल्प तो सीधा है, लेकन प्रयोजन अपेक्षाकृत जटिल और मनोवैज्ञानिक।
     वस्तुत: यह दो भाइयों के भिन्न मिजाज और भिन्न तरीके के जीवन -शिल्प  की कहानी है।इन्हीं द्वन्द्वों के बीच कथा-परिस्थितियों का निर्माण होता है।छोटा भाई कथा-सूत्रों का खुलासा करता है। वह इस कहानी का नैरेटर है।दूसरा पात्र बड़े भाई साहब' हैं, जो उनसे तीन दर्जा आगे हैंं। जाहिर है दोनों भाई घर से बाहर रह कर किसी स्कूल में पढ़ाई कर रहे हैं।कोई घटना, कोई  विशेष परिस्थिति कहानी को आगे नहीं खींचती। पाठक के सामने दो भाइयों के जीवन-शिल्प सहज रूप से उनके क्रिया-व्यापारों के माध्यम से उभर कर आते हैं। पठन-पाठन के भिन्न तरीके और भिन्न माइण्डसेट ही कहानी का मूल विषय है। बड़ा भाई घोर मिहनती और अनुशासन प्रिय है। वह पढ़ने-लिखने वाला टाइप्ड चरित्र है। वह हमेशा पढ़ाई में लगा भी रहता है। वहीं ं इस कहानी के नैरेटर यानि छोटे भाई के जीवन के विविध आयाम हैं। वह स्वच्छंद और उन्मुक्त स्वभाव का घूमने और खेल-कूद मेंं आनंद पाने वाला खिलंदड़ा है। उसकी जीवन-शैली अराजक और लापरवाहों वाली है।यही कारण है कि बड़े भाई साहब से उसे हमेशा डाँट-फटकार मिलती है। उनकी इस हुल्लड़बाजी वाली कारगुजारियों से बड़े भाई साहब  उसके भविष्य को लेकर दुखी और चिंतित रहते हैं।इसलिए छोटे भाई को हमेशा उनकी ओर से आलोचना और उलाहना मिलती है। बड़ेभाई साहब को यह भी लगता है कि यह उनका उत्तरदायित्व है। वे नैरेटर को हमेशा आदर्श और नैतिकता का पाठ पढ़ाते हैं, ताकि उसके अन्दर पढ़ाई-लिखाई की भावनाओं का विकास हो सके-लेकिन उस पर कोई असर ही नहीं होता। छोटा भाई अपनी आदत का गुलाम है, वह पढ़ाई में दिन-रात जी न लगाकर स्कूल के बाद केवल खाली वक्त में पढ़ता है। दोनों भाइयों के बीच यह तनाव बना रहता है। बड़े भाई साहब जहाँ लगातार पढ़ाई में डूबे रहतेे हैं,वहीं छोटा भाई उतना सीरियस नहीं रह पाता है।कहानी का ट्रेजिक प्वाइण्ट यही है।नैरेटर  मानता है कि अतिरिक्त दबाव के तहत उनका हमेशा पढ़ते रहना एक तरह की जड़ता है, जो निरर्थक प्रयत्नों के रूप में उन्हें किताबों में लगाए रहती है।फलत:दिमाग के बोझिल होने पर वे एक ही शब्द को बार-बार  लिख कर,आड़ी-तिरछी रेखाएँ खींच कर अपना समय बर्वाद करते रहते हैं। दूसरी तरफ उनके विचारों से बँधकर संकल्प लेने के बाद भी वह मैदान की हरियाली, पतंगबाजी और गुल्ली -डंडा के आकर्षण से अपने को अलग नहीं कर पाता है,उसे लगता है, पढ़ाई हो न हो, इससे उसके अन्दर एक प्रकार की सहजता बनी रहती है। वह बड़े भाई से नजरें चुराकर निकल ही जाता है।
       ... लेकिन कहानी अपने अवधान में आश्चर्यजनक रूप से इम्तिहान के बाद उलट निष्कर्ष लेकर आती है। हमेशा पढ़ने वाले भाई साहब फेल हो जाते हैं और खलने-कूदने के लिए झिड़कियाँ खानै वाला भाई अव्वल! अब वह बड़े भाई साहब से मात्र दो दर्जा पीछे रह जाता है। जाहिर है बड़े भाई साहब का पक्ष कमजोर हुआ जाता है। लेकिन उनका माइण्डसेट वैसा ही रहता है, उसमें खास तब्दीली नहीं होती। कतिपय दबावों के बाद भी वे छोटे भाई को उसकी लापरवाहियों के लिए डाँटते ही रहते हैं। उनका स्वर कुछ ऐसा है, जिसमें आठवें दर्जे के साथ -साथ एक अभिभावक का आतंक भी शामिल है। लचर -वयवस्था के लिए वे प्राध्यपकों की भी आलोचना करते हैं।कोर्स को लेकर जो दुश्चिताओं का जाल उनके मानस पर छाया रहता है, उससे वे नैरटर को भी अवगत कराते रहते हैं।
      कहना नहीं होगा कि  प्रेमचंद अध्ययन की पद्धति पर प्रकारांतर से विमर्श कर रहे हैं। आज भी करोड़ों बच्चों पर, सर्दी-गर्मी में असहनीय परिस्थियों के बीच बस्ते के रूप में अभिभावकों की अपेक्षाओं का बोझ स्कूल से लेकर घर तक  घेराबंदी किए हुए है, तब यह सोचना आवश्यक हो गया है कि हमें अपने बच्चों के संपूर्ण शैक्षणिक विकास के लिए समेकित रूप से कैसी प्रणाली अपनानी चाहिए?यह अपने आप में महत्तर विमर्श है।परम्परागत ढाँचे में उसी तरह पठन-पाठन हो या जीवन के विविध आयामों के साथ पढ़ाई भी जीवन का एक हिस्सा हो?कहने का आशय यह भी कि पढ़ाई का वातावरण असहज हो या सहज?एक तरफ बड़े भाई साहब हैं,जिन पर अध्ययन कै रूढ़ ढाँचे का इतना आतंक है कि लगातर पढ़ाई करके भी वे फेल हो रहे हैं। दूसरी तरफ नैरेटर है, जो खेल-कूद के बाद भी पास हो रहा है।वह पढ़ाई के अतिरिक्त अधिभार से मुक्त रहता है। बड़े भाई का संकट यह है कि वे सहज-नैसर्गिक रूप से किसी पाठ का अपना पाठ नहीं बनाते। उनकी पढ़ने की प्रक्रिया, जड़, अनुकरण और रट्टूमल वाली है जबकि अगला अपने सहज अनुकरण-प्रवृति और खिलंदड़ेपन के कारण हर पाठ को अपने इमैजीनेशन के कारण अपने अवधान का विषय बना लेता है। इतना स्पेश उसके अन्दर है।उधर बड़े भाई साहब की दुनिया बाहर से बन्द है, इसलिए वहाँ स्मृतियों का दुहराव भर है, जो अपनी ऊब और जड़ता में निरर्थक प्रक्रम है-दिल और दिमाग को बोझिल बनाने वाला।ऐसा लगता है जैसे प्रेमचंद  बच्चों की पढ़ाई के बहाने कहानी की पाठ-प्रक्रिया पर भी विचार कर रहे हों।डा. नामवर सिंह पाठ और पाठक के मर्म -बोध के विषय पर कहते हैं," इस प्रकार एकदम मूल तो नहीं,लेकिन काफी करीब की एक कहानी-प्रतिमा निर्मित होती है। इस प्रतिमा का निर्माता स्वयं पाठक है।"पेज न.70 कहानी, नयी कहानी।
         आकस्मिक नहीं कि पाठ-प्रक्रिया का यह विषय पाठ की एक प्रविधि है,जो कहानी मात्र के बोधन तक सीमित नहीं है। इसका आविष्करण बचपन से ही होना चाहिए ताकि बच्चे अपने अध्यन में जिज्ञासु और कल्पनाशील बन सकें। यहाँ यह सवाल उठता है कि यह होता है कैसे या होगा कैसे? पाठक के अंदर स्वप्न और कल्पना एक पूरी दुनिया होती है, जहाँ यथार्थ का फैंटेसी में और फैंटेसी का यथार्थ में अंतरण होता है। बचपन से अगर सर्जनात्क रूप से से इस प्रविधि का उपयोग हो, तो किसी भी विषय को समझा जा सकता है। बड़े भाई साहब कहानी का नैरेटर कुछइसी अंदाज से पढ़ाई कर रहा है, स्मृति पर कोई अधिभार लिए बिना अपने सहज मानसिक स्पेश में वह  एक इमेज बना लेता है।मान लीजिए प का खरहा-प फ ब भ म---को याद करने की एक विधि  प से पापा, फ से फूफा, ब से बाबा, भ से भैय्या और म से मामा बनाया जाए, तो शब्द-सृजन की शक्ति इनोवेटिव होकर आकार ले सकती है। मेरा यह प्रयोग एक बच्चे पर चौंकाने वाला रहा। अपने स्फुरण में बच्चे ने कहा प से पतंग, प से पपीता, से पलंग , फ से फल ,ब से बकरी, भ से भात, म से माँ... प्रेमचंद भी कनकौआ की उड़ान तक कहानी को ले जाते हैं। उस बोझ को बड़े भाई के पाठ से उलीच देते हैं, जो जड़ है,जहाँ प से एक शब्द पास है और फ से एक शब्द फेल।कहानीकार 'बड़े भाई साहब  कहाानी के पास-फेल के आत्म-विजड़न को तोड़ कर उस पाठ को प से पतंग और फ से फलक तक लाते हैॆं। कहानी का यह हिस्सा सबसे मार्मिक है, जहाँ बड़े भाई साहब का जड़ माइण्डसेट टूटता है। घटनाक्रम इतना सा है कि दूसरा दर्जा पास कर नैरेटर अपने उत्साह में पूरा अराजक हो गया है। वह बड़े भाई साहब से छिपकर कनकौआ उड़ाता है। भाई साहब मैं अब उतना बल नहीं रह गया है कि वे सीधे-सीधे उसे डाँट सकें।...ऐसे में जब संध्या समय वह कनकौआ लूटने दौड़ रहा रहा होता है, तो उसका सामना बड़े भाई साहब से हो जाता है। वे शुरु हो जाते हैं।उनके उपदेश का तात्पर्य यही होता हौ कि पास होने का मतलब यह नहीं है कि वह बाजारू लड़कों के साथ खेला करे...फेल होने का मतलब यह नहीं है कि बड़े भाई का उनका उत्तरदायित्व समाप्त हो गया.. भाई साहब का वक्तव्य लम्बा हो जाता है, जिसमें नसीहतों का कोई  अंत नहीं होता।वे कई उदाहरणों से उसके पास होने के अहंकार को कोसते हैं।मगर बातचीत का सिरा लगातार उनकी पकड़ से फिसलता चला जाता है,"क्या करूँ कनकौए उड़ाने के लिए मेरा भी जीललचाता है, पर खुद कैसे बेराह चलूँ।तुम्हारी रक्षा का दायित्व भी तो मेरे सिर पर है।" पहली बार अपने वक्तव्य में उनका अकड़ा हुआ जीवन-शिल्प खंडित होता है, मानो वे मानसिक स्तर पर कनकौआ उड़ने के लिए तैयार हो रहे हों...
      प्रेमचंद ने थोड़ी सी नाटकीयता के साथ कहानी का अंत किया है, जब वे बोल रहे होते हैं।एक कनकौआ कट कर उनके ऊपर लहराता हुआ आ जाता है, जिसे अनजाने ही लपक कर पकड़ लेते हैं। बड़े भाई साहब की सहज मानवीय प्रवृतियों का बालपन  में अंतरण ही इस कहानी का क्लाइमेक्स है।ऐस लगता है कहानी के अंत में बालपन के कौतुक की एक बन्द नदी अपने उद्गम को फोड़ कर बहने के लिए आतुर हो उठी हो!यह कहानी अपनी असहजता से निकल कर सहजता की ओर गमन करती है, जो अपने प्रभाव में विलक्षण है।बाल मनोविज्ञान पर लिखी विश्व की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में यह भी एक अद्वितीय कहानी है।

पता 
 

प्रिंसिपल,
पूर्णिया महिला काॅलेज
पूर्णिया-854301
रचनात्मक उपलब्धियाँ-
हंस, कथादेश, वागर्थ, आजकल, पाखी, वर्त्तमान साहित्य, पाखी, साखी, कहन कला, किताब, दैनिक हिन्दुस्तान, प्रभात खबर आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।

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