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शुक्रवार, 19 अगस्त 2022

बेहतर

 
मधुसूदन शर्मा 
  • हर नौकरी पेशा की सुबह लगभग एक जैसी ही होती है। उठते ही एक कप चाय, फिर प्रातः कर्मों से निवृत्ति, अंत में नाश्ता कर, तैयार हो ऑफिस के लिए भागा दौड़ी। मैं भी कोई अपवाद नहीं हूं।
    "साहब जी ! जूते पॉलिश कर दिए हैं।"
    डाइनिंग टेबल से नाश्ता कर उठते उठते मोहन की आवाज मेरे कानों में पड़ी। वह चमचमाते जूते और तह की हुई जुराबों की जोड़ी लिए मेरे सामने खड़ा था। मैंने तुरंत जूते मोजे पहने और बाहर आ गया। पोर्टिको में सरकारी स्विफ्ट डिजायर का पिछला गेट खोले मेरा ड्राइवर अनवर खड़ा था।
    "सुनिए ! कल अदिति की क्राफ्ट्स की क्लास है। आते समय नेहरू मार्केट से यह सामान ले आइएगा।"
    गाड़ी में बैठते बैठते पत्नी ने मेरे हाथ में एक पर्चा थमते हुए कहा।
    "देखो मैं शाम को लेट हो सकता हूं। तुम यह सब सामान मोहन से क्यों नहीं मंगा लेती।" मुझे इरिटेशन सा हुआ।
    "तुम्हें लगता है मोहन यह सब समझ पायेगा ? पिछली बार भी उसने सब कुछ गड़बड़ कर दिया था।"पत्नी हॅऺ॑सी और उसने आज का अखबार मेरे हाथ में दे दिया।
    "ठीक है", कहकर मैं कार की पिछली सीट पर जम गया।
    सुबह-सुबह चाय की चुस्कियों के साथ आप सिर्फ अखबार की हेडलाइन पढ़ पाते हैं। अधिकांश व्यक्ति पूरा अखबार या तो शाम को घर आकर पढ़ते हैं या पढ़ते ही नहीं। लेकिन मेरी बात ओर है। मैं घर से ऑफिस जाने के बीच का आधे घंटे का वक्त अखबार पढ़ने में ही खर्च करता हूं। मेरे घर से ऑफिस की दूरी मात्र 7 या 8 किलोमीटर होगी लेकिन महानगरों में दूरियां किलोमीटर से नहीं समय से नापी जाती है। गाड़ी में अखबार में डूबे रहने का एक और फायदा है। आपको भिखारी परेशान नहीं करते क्योंकि उन्हें लगता है कि यह आदमी कार के बंद शीशों के पीछे से उनकी तरफ नजर नहीं उठाएगा।
    इसके अतिरिक्त एक फायदा और है। आप गाड़ी ड्राइव कर रहे हो और आपके बगल में कोई ऐसा व्यक्ति बैठा है जो समझता है कि वह आपसे बेहतर ड्राइवर है तो वह आपको बात-बात पर टोकेगा, यहां तक कि आपका गाड़ी चलाना दूभर हो जाएगा। मैं भी स्वयं को बेहतरीन ड्राइवर समझता हूं। अनवर के अपने पास ड्राइवर लगने के कुछ समय बाद तक मैंने उसे बार-बार खराब ड्राइविंग के लिए झिड़कियां दी थी। इतनी कि वह मुझसे तंग हो गया था और ट्रांसफर के लिए अर्जी लगा दी थी। ऑफिस पूल में वैसे ही ड्राइवरों की कमी चल रही थी। मुझे लगा, यदि यह चला जाएगा तो नया ड्राईवर आना मुश्किल है, तो मैंने ऑफिस जाते वक्त अखबार पढ़ना और लौटते वक्त किसी फाइल को पढ़ना प्रारंभ कर दिया। अब मेरा ध्यान न तो सड़क की ओर जाता, ना ही अनवर की ड्राइविंग की ओर। नतीजा भी सुखद निकला। अब न तो अनवर को मुझसे कोई शिकायत थी ना ही मुझे अनवर से कोई शिकायत।
    आज बुधवार था। हर बुधवार इस अख़बार में तीसरे पन्ने पर किसी न किसी महान व्यक्ति के कोट्स प्रकाशित होते हैं।
    मैंने तीसरा पन्ना खोला। आज राल्फ वाल्डो इमर्सन के विचार छपे थे।अमेरिका में जन्मे ‘राल्फ वाल्डो इमर्सन’ मशहूर निबंधकार, वक्ता और कवि थे। वे अमेरिका में नई जाग्रति लेकर आये थे। मैंने उत्सुकतावश उनके लिखे शब्दों को पढ़ना शुरू किया।
    "मैं जिस व्यक्ति से भी मिलता हूँ, वह किसी ना किसी रूप में मुझसे बेहतर है।"
    और मैं यहीं रुक गया। मैं एक बड़ा सरकारी अधिकारी हूं। न जाने कितने लोग रोजाना मेरे संपर्क में आते हैं। हो सकता है, कुछ लोग मुझ से बेहतर हों, लेकिन सभी लोग मुझसे बेहतर कैसे हो सकते हैं। मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट खिल गई। बड़े लोग भी कभी-कभी भावनाओं में बह कर बड़ी बेहूदी बातें लिख मारते हैं।
    घर से ऑफिस के बीच करीब एक किलोमीटर का पेच आता था, जिस पर ट्रैफिक बहुत कम होता था । बस यहीं हमारी गाड़ी गति पकड़ पाती थी।
    गाड़ी को थोड़ा तेज होता महसूस कर मैंने खिड़की से बाहर देखा तो रास्ते का वही हिस्सा तय हो रहा था। अचानक गाड़ी के ब्रेक लगे और गाड़ी जहां की तंहा रुक गई। मैंने चौंक कर सामने देखा। कुछ ही क्षण में डिवाइडर से कूद कर एक सांड दौड़ता हुआ सड़क पार करने लगा।
    यदि गाड़ी में ब्रेक नहीं लगते तो हम निश्चित रूप से उस सांड से टकरा जाते।
    "साहब! आज तो बाल बाल बचे!" अनवर ने पसीना पोंछते हुए कहा ।
    "लेकिन सांड तो बाद में कूदकर आया था। तुमने पहले ही गाड़ी कैसे रोक ली।"मैंने हतप्रभ होकर पूछा‌।
    "साहब! मैं गाड़ी चलाते वक्त डिवाइडर पर पूरा ध्यान रखता हूं। मैंने दूर से ही दो सांडो को डिवाइडर पर लड़ते हुए देख लिया था। यह वाला सांड हमारी तरफ था और दूसरे सांड से कमजोर भी था। इसलिए संभावना यही थी कि यही मेदान छोड़कर भागेगा और सड़क पर आएगा।"
    "ओह माय गॉड! मैं इतने वर्षो से गाड़ी चला रहा हूं, लेकिन इतना ज्यादा एंटिसिपेशन तो मैंने कभी किया ही नहीं!!"यह सोचते हुए मुझे झटका सा लगा। आज मुझे महसूस हुआ कि अनवर मुझसे बेहतर ड्राइवर है।
    *********
    गाड़ी ऑफिस पॉर्टिको में रुकी। ऑफिस प्यून अली तत्परता पूर्वक सीढ़ियों पर खड़ा था ‌। उसने लपक कर गाड़ी का गेट खोला और मेरे नीचे उतरने के बाद अगली सीट पर पड़ा फाइलों का बस्ता उठाया। अब वह मेरे आगे आगे गलियारे की भीड़ को हटाता चल रहा था।
    अपने कक्ष में पहुंचने के बाद मैं कुर्सी पर बैठा ही था कि वह ट्रे में पानी का ग्लास रख फिर से हाजिर हो गया।
    अबकी बार मैंने उसे ध्यान से देखा।
    दरमियाने कद का दुबला पतला साधारण से चेहरे मोहरे वाला व्यक्ति, जिसकी वर्दी भी शायद कई दिनों से धुली न थी।
    "यह इंसान मुझसे किन मायनों में बेहतर हो सकता है?"मैंने अली की ओर देखते हुए सोचा और मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई। मेरे पानी पीकर ग्लास रख देने के बावजूद वह वहीं खड़ा रहा। मैंने प्रश्नवाचक नजरों से उसकी और देखा ।
    "सर आज ग्यारह बजे से दो बजे तक छुट्टी चाहिए।"
    "क्यों ? किसलिए??" मेरी त्योरियां चढ़ी।
    "सर ! आज से पन्द्रह अगस्त के फंक्शन के लिए रिहर्सल चालू हो रहे हैं।"
    "तुम्हारा उसमें क्या काम है।"
    "सर! मैं हर साल फंक्शन में भाग लेता हूं।"
    "अच्छा ! क्या करते हो तुम फंक्शन में?" मैंने व्यंगात्मक अंदाज में पूछा।
    "सर, मैं गाता हूं और बजाता भी हूं।"
    मैंने फिर से अली की ओर देखा। "यह पिद्दी और पिद्धि का शोरबा गाता और बजाता है।"
    मुझे विश्वास नहीं हुआ। इस ऑफिस में ज्वाइन करने के बाद यहां मेरा पहला स्वतंत्रता दिवस समारोह आने वाला था।
    "रिहर्सल कहां पर होगा ? मैं भी आऊंगा।"
    अली के चेहरे पर खुशी की लहर तैर गई।
    "सर !ऑडिटोरियम में आइए। वहीं पर रिहर्सल है।"
    एक के बाद एक आती फाइलों से लगभग बारह बजे मैंने निजात पाई और उठ कर ऑडिटोरियम की और रवाना हुआ। जैसे ही मैंने ऑडिटोरियम का गेट खोला , मेरे कानों में मधुर स्वर लहरी समा गई। सामने स्टेज पर मध्य में अली बैठा था। उसके सामने हारमोनियम था और वह गीत गा रहा था।
    "यह देश है वीर जवानों का! अलबेलों का, मस्तानो का। इस देश का यारों क्या कहना!"
    मैं ऑडिटोरियम में लगी कुर्सियों में पिछली कतार पर बैठ गया। अली ने एक के बाद एक देश भक्ति गीत गाकर सारा माहौल तिरंगा कर दिया था। मैं मंत्रमुग्ध सा सुनता रहा। करीब आधे घंटे बाद गुप्ता जी, मेरे पीए ने आकर मेरी तंद्रा भंग की।
    "सर मैंने आपको कहां कहां नहीं ढूंढा। आपका मोबाइल भी चेंबर में पड़ा है। बड़े साहब आपको याद कर रहे हैं।"
    मैं अचकचा कर उठा और सीधा मिलिंद साहब के चेंबर में गया।
    मिलिंद साहब, हमारे ओफिस के सबसे बड़े अफसर। रिटायरमेंट के पेटे में है। खोपड़ी पूरी तरह खल्वाट। फूले फूले गाल। शरीर भी भरा पूरा और जगह-जगह कपड़ों से बाहर निकलता हुआ। मैंने आज उन्हें पहली बार ध्यान से देखा और सोचा, यह आदमी किस तरह से मुझसे बेहतर है। ठीक है मुझसे सीनियर है लेकिन इसमें इसकी क्या काबिलीयत । उम्र में ज्यादा है तो सीनियर होगा ही। इसकी उम्र में आते-आते मैं इससे बहुत ऊपर पहुंच जाऊंगा।
    "अरे भाई कहां चले गए थे? तुम्हारे लिए बड़ा जरूरी काम आ गया था। "
    मैंने उन्हें बताया।
    "तुम्हें शायद पता नहीं तुम्हारा प्यून अली इस शहर का मशहूर कव्वाल है।"
    "अच्छा??"
    "हां और इस बार तो वह मेरे लिखे देशभक्ति गीत को भी स्वरबद्ध कर गाने वाला है।"
    "आपका लिखा गीत? आप लिखते भी हैं??"
    मुझे आश्चर्यचकित देख मिलिंद साहब हॅ॑सने लगे। उन्होंने टेबल की दराज खोली और तीन पुस्तकें निकाली।
    "यह देखो! मेरी कविताओं की यह तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।"
    मैं फटी फटी निगाहों से उन तीनों किताबों को घूर रहा था।
    मिलिंद साहब ने बारी बारी से तीनों किताबों पर मेरे लिए सप्रेम भेंट लिखा, अपने हस्ताक्षर किए और मुझे सौंप दी।
    काम निपटा कर जब मैं अपने कक्ष में पहुंचा तो मेरे दिमाग में अली का मधुर गायन ही घूम रहा था। एक तरफ उसकी दिलकश आवाज और दूसरी तरफ मैं , जो एक पंक्ति भी ढंग से नहीं गा सकता। अब मुझे फिर से इमर्सन की पंक्तियां याद आने लगी।
    "चलो, आज संपर्क में आने वाले हर व्यक्ति की कोई ऐसी खासियत ढूंढते हैं जो मुझसे बेहतर है।" मैंने सोचा।
    दिन भर में बहुत लोग आए और गए। आज पहली बार मैंने हर व्यक्ति को इतने ध्यान से देखा और बात की थी। मैं ऐसे व्यक्ति को ढूंढ रहा था जो किसी भी बात में मुझसे बेहतर ना हो।
    लेकिन निराशा ही हाथ लगी। किसी का चेहरा मुझसे बेहतर था, किसी की आंखें। कुछ लोग मुझसे ज्यादा लंबे थे और किसी किसी के बाल मुझसे ज्यादा घने थे।
    यह तो हुई शारीरिक विशेषताओं की बातें, मुझे ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिला जिसमें कोई ना कोई गुण मुझसे ज्यादा ना हो।
    ****
    शाम को घर लौटते समय मैंने अनवर से नेहरू मार्केट चलने को कहा।
    "चंद्रा आर्ट वर्क्स"की सीढ़ियां चढ़ते ही गोयल साहब ने हाथ जोड़कर मेरा स्वागत किया। दुकान पर बहुत भीड़ थी।
    मैंने पत्नी द्वारा दिया हुआ पर्चा उनके हाथ में पकड़ा दिया। छोटे-मोटे तकरीबन पन्द्रह आइटम होंगे। गोयल साहब ने मुश्किल से दो मिनट पर्चे पर नजर डाली और अपने सहायक को निर्देश देने शुरू किए।
    पांच मिनट में सारा सामान पैक हो चुका था। गोयल साहब ने मेरे द्वारा दिए गए पर्चे पर ही हिसाब लगा कर एक मिनट से भी कम में रुपए जोड़कर मेरे हवाले कर दिया। मैंने साइड में खड़े होकर दोबारा से हिसाब लगाना शुरू किया।
    मोबाइल फोन के केलकुलेटर की सहायता के बावजूद मुझे दस मिनट लग गए लेकिन हिसाब में एक रुपए का भी अंतर नहीं आया।
    घर पहुंचते ही मोहन ने गाड़ी में से बस्ता निकाला।
    उसे देखते ही मेरी बांछे खिल गई।
    "हां ! शायद यह वही है जो किसी भी बात में मुझसे बेहतर नहीं हो सकता।"
    मोहन जब चाय लेकर आया तो मैंने उसे अपने पास नीचे बिठा कर बातों में लगा लिया।
    मैं उससे घर परिवार की बातें करने लगा। बातों बातों में पता चला कि गांव में उसके पास चालीस बीघा जमीन है जिस पर उसकी पत्नी और बच्चे खेती-बाड़ी करते हैं।
    मैं स्तब्ध रह गया। मुझे इतने वर्ष नौकरी करते हो गये लेकिन मेरे पास न गांव में कोई जमीन है ना ही शहर में। पिछले तीन महीने से मैं शहर के आउटस्कर्ट में स्थित दौ सो वर्ग गज के टुकड़े को खरीदने के लिए प्रयासरत हूं लेकिन सफलता नहीं मिल रही। और यह बंदा चालीस बीघा जमीन का मालिक है।
    आज डिनर पत्नी ने ही तैयार किया था। भोजन करते वक्त मैं सोचता रहा कि ऐसा खाना मैं ताजिंदगी नहीं बना सकता ‌।
    डिनर के बाद मैं और पत्नी टहलने के लिए निकलने ही वाले थे कि मेरी छोटी बेटी तन्वी ने मुझे रोक लिया।
    "पापा प्लीज! मेरी पेंटिंग तो देख कर जाओ ना।"
    "अब यह सात साल की लड़की क्या पेंटिंग बनाएगी?"
    सोचा फिर भी मन मार कर मैंने उसकी पेंटिंग देखी।
    गजब! वाकई गजब!! तन्वी ने तो कमाल कर दिया था। ऐसी पेंटिंग तो मैं आज भी नहीं बना सकता। बेटी की तारीफों के पुल बांधते हुए मैं घूमने निकल गया।
    रात सोने से पहले मैंने ऑफिस की फाइलों का बस्ता खोला।
    सबसे ऊपर वही सुबह का अखबार रखा हुआ था और इमर्सन की पंक्तियां मेरी ओर झांक रही थी।
    "मैं जिस व्यक्ति से भी मिलता हूँ, वह किसी ना किसी रूप में मुझसे बेहतर है।"
    मैंने दोबारा से उन्हें पढ़ा , दिनभर की घटनाओं को याद किया, अपना अहम टूटते हुए महसूस किया और मेरे चेहरे पर फिर से मुस्कान आ गई।

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