आज के रचना

उहो,अब की पास कर गया ( कहानी ), तमस और साम्‍प्रदायिकता ( आलेख ),समाज सुधारक गुरु संत घासीदास ( आलेख)

बुधवार, 13 जुलाई 2022

सुहात हे,सुहात हे !

   -- राजकुमार 'मसखरे'

सुहात हे,,,सुहात हे,,,,सुहात हे,,,
किसानी के दिन-बादर, एक मन के आगर
दिल म ख़ुसी छात हे,,,,,,,,,
सुहात हे..सुहात हे..सुहात हे......

बरखा रानी के  रुन-झुन
भँवरा ह करय भुन -भून,
बिजुरी ह  नाचै छम-छम
बादर ह गरजय घम-घम !
इंखर असड़हूँ बानी भात हे,,,
सुहात हे..सुहात हे..सुहात हे......

मेचका ह करय  टर-टर
पुरवाही चलय  सर-सर,
झिंगरा  मिलावय  ताल
चाँटी के तरी-उपर चाल !
डहर-डहर माटी ममहात हे,,,
सुहात हे..सुहात हे..सुहात हे......

नाँगर  बइला अरर- तरर
धान के  बाँवत छर-छरर,
लकर धईंयाँ आना-जाना
बिधुन हो के गावय गाना !
मनटोरा ददरिया धमकात हे,,,
सुहात हे..सुहात हे..सुहात हे.....

ढाक के तीन पात !

इस टेशू,किंशुक पलाश के
है ये धरा में कई-कई नाम,
स्वमेव कहीं भी उग आता
इसका  नही  है  कोई दाम !
देखो वीरान  में भी है राग,
न बगिया न ही कोई माली
न ही  उसे कोई  सींचता है
बिना पानी के देखो लाली !
फिर  भी  वर्ष  में एक बार
खिल  उठता है  इठलाकर ,
ढाक के  वही तीन पात  
मुहावरा  को  झुठला कर !
फिर झूम के बिखेर देती है
अपनी  वह  छटा और  रंग,
तोड़ देती है वह मासूमियत
जचता रोम-रोम,अंग-अंग !
ये इनके उल्लास  देख कर
अब कोई कैसे निराश होंगे,
उस  पतझड़  के पलाश से
जरूर मुस्कराना सिख लेंगे !

     -- राजकुमार मसखरे

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें