श्यामल बिहारी महतो
अभी अभी मैंने घर में कदम रखा था । पत्नी रसोई में थी और घर के ढाबे में पण्डुआ की मेहरारूघुंघट डाले उदास बैठी हुई थी । वह काफी चिंतित और परेशान लगी मुझे । थोड़ी देर बाद कपड़े बदल करमै बाहर निकला तो पता चला पांचवें नंबर काउनकाबेटाचार दिनों से काफी बीमार है...!
"बडका,हमरनुनूचायर दिन से बड़ी बीमार है, गांव के मोहन डॉक्टर कहो है,बाहर के कोइओ, बोड डॉक्टर के पास ले जा, हाथ में एको टका नाय.. पांच सौ उधार देअ,..पहिलकादू सौ आरइटादूनोएके बारी लौटायदेबो...!"
एक ही सांस में अपनी पीड़ा और परेशानी बोल गयी थी पण्डुआ की मेहरारू । मै समझ रहा था कि दो माह पहले का लिया दो सौ को वह भूल गयी होगी पर उसे याद थी ।
अकस्मात मुझे वो दिन याद आ गये,जब बलदेव काका जीवित थे और घर में उनका राज था । तब गांव-ग्राम में भी उस घर का बड़ा नाम था । अक्सर देखा जाता था । सुबह होते ही रविदास टोले की, मोदी और लोहार टोले की औरतें अलमुनियम की ढूभा-डेगची बर्तन लेकर बलदेव काका के घर आ जाती और भर-भर डूभा घोर-मठठा हर दिन लेकर जाती थीं । काकी दिल की बहुत अच्छी थी । मांगने पर वह किसी किसी को दही भी दे देती थी । सालों भर इस तरह की औरतों का उस घर में आना-जाना लगा रहता था । उस घर में दूध-दही की नदियां सी बहती रहती थी । काका घर का घी का भी बड़ा नाम था -शुद्ध देशी घी । दूर दूर से लोग घी लेने आ जाते थे । कहने
का मतलब काका-काकी के जमाने में उस घर में कभी किसी चीज की कमी का रोना रोतेनहीं देखा था । लोग उस घर में कुछ मांगने जरूर आते परन्तु उस घर के लोगों को बाहर किसी के सामने हाथ फैलाते नहीं देखा था आज तक हमने ।
का मतलब काका-काकी के जमाने में उस घर में कभी किसी चीज की कमी का रोना रोतेनहीं देखा था । लोग उस घर में कुछ मांगने जरूर आते परन्तु उस घर के लोगों को बाहर किसी के सामने हाथ फैलाते नहीं देखा था आज तक हमने ।
वर्षों बाद आज फिर बलदेव काका की याद आ गई थी । कमर में उटूंग सफेद धोती और सर पेमारकिन कपड़े की सफेद पगड़ी । दूर से ही पहचान लिए जाते थे । यही उनका पहनावा और वेश-भूषा था । उनका चिलम का शौकीन होना और मांदर बजाना भी पूरे गांव में मशहूर था । और काम के प्रति उनका जुनून तो आस-पास के गांवों में चर्चा का विषय बना ही रहता था -"पक्का कर्मयोगी है " लोग कहा करते थे ।
बलदेव काका जब तक जीवित रहे, गांव में एक कर्मशील-कर्मयोगी किसान के रूप में लोग उनका नाम लेते रहे । उनके जीवनकाल में टांड-टिकूर में भी जोंढरा-मंडुआ,लाहर-कुरथी की खेती देख लोग उनका मिशाल देते और कहते थे-" खेती करो तो बलदेव काका जैसा नहीं तो नहीं करो...!"
धान-चावल का घर में डींग पड़ा रहता । उसपर चूहे अपना घर बना लेते थे ।
आषाढ़ शुरू होते ही बलदेव काका के कंधे पे कुदाल और उनके बैलों के कंधे पर हल-जूआंठ चढ़ जाता था और इसके साथ ही उनका किसानी काम भी शुरू हो जाता था । फिर तो बलदेव काका घर में नजर ही नहीं आते । एक बार उनका धन रोपा का काम शुरू होता तो बुढ़वा भादो मास तक अपने सारे खेतों में धान रोपाई करके ही दम लेते थे वह ।
तेल चिपाय वाले कोल्हू की तरह रोपा शुरू होने के बाद दिन भर खेत में उसका हल-बैल चलते रहता था, उस दौरान नहाना-धोना, खाना-पीना,हगना-मूतना, सब के सब उसका बाहर ही होता था ।
दोपहर को जब वह सुस्ताने के लिए महुआ पेड़ के नीचे घोलट जाते तब बैलों को जंगल में चरने को छोड़ आते थे । घड़ी दो घड़ी बाद फिर वही सुर वही ताल ! बैल किसान दोनों एकाकार हो जाते थे । तब हल के पीछे उछलते कूदते पोठी,नेटी,गरईमाछ और खांखरा (केकड़ा) जो पकड़ में आ जाते, धोती की फांड में डालते जाते, जिसे रात को घर में नमक मिर्ची के साथ कड़ुआ तेल में भूंजते और मजे से खाते थे । काका अपने बालों में कभी तेल नहीं लगाते पर मछली-केकडाओं को तेल में खूब भूंजते थे-करर्र..कर्रर खाने में लगता था । कभी कभी खाने का मौका और मजा मुझे भी मिल जाता था ।
उनके जीते जी कभी उनके खेतों के मेड टूटते-घास बढ़ते नहीं देखा,बियोनी और निकोनी में भी निपुण थे बलदेव काका !
पण्डुआ उसी बलदेव काका का बेटा था । परन्तु बाप जैसा लक्षण-गुण, एक भी नहीं । खेत उसे काटने दौड़ता और बारी-झारी में काम करना उसे जंजाल लगता था । बारी में आलू-प्याज,या फिर बैंगन-टमाटर लगाना माटी में मुंह मारने जैसा समझता था वह । लेकिन खाने का मन करता तो किसी की बारी से कुछ भी तोड-ताड लेता था । कोई टोक कर कह उठता - खाने का मन करता है-उपजाने का भी सोचना चाहिए ...!"
" एक ही टमाटर तो तोड़ा है..!"
" एक हो या दो..तनिक उपजा कर देखो तो..!"
" जादेनाय बोल भोजी.चोरीनायकरलहियो..!" वह ठेठ देहाती पर उतर आता था
मतलब कि काम करने के नाम पर पण्डुआ ऐसे रंग बदलता-बिदकता था जैसे काम करने के एवज में सौ दो सौ न देने पर ब्लॉक के बाबू लोग बिदकते हैं ।
शुरू में ऐसा नहीं था पण्डूआ । घर का सारा काम अकेले करता था, खेती-बारी के कामों में भी आगे ही रहता था । बाप जैसा होनहार रूप में उसे देखा जा रहा था । हार-फार,मैर-रकसा, सब काम बाप जैसे ही करता था । उसका बिगड़ना तो उस दिन से शुरू हुआ जब उनके दोनों बड़े बहनोइयों ने उसे घेर-घार कर उम्र में उससे बड़ी एक लड़की के साथ उसकी शादी करवा दी । दिखने में पत्नी उसकी,मौसी लगती और पण्डुआ मूसा लगता था । शादी के दूसरे दिन से ही पत्नी पण्डुआ को साथ सोने के लिए ललकारने लगी और पण्डुआ दूर दूर भागता रहा । एक रात उसके बड़का बहनोई ने पण्डुआ को धोखे से पत्नी के कमरे में धकेल दिया और बाहर से ताला बंद कर दिया था । उसी दिन से किसानी काम से पण्डुआ का मन विरक्त होना शुरू हो गया था । चमगादड़ सा मेहरारू पर लटके रहता । पत्नी ही ठेल-ठाल कर कुछ उससे कामों को करवाती थी-अपने से एक भी काम वह नहीं करता था । पहले बाप चिल्लाते-चिल्लाते मर गया फिर मां भी कुढ़ते -कुढते इस दुनिया से गुजर गयी । परन्तु काम के प्रति पण्डुआ की चाल-चलन में कोई बदलाव नहीं हुआ-कोढिआपा बढ़ता ही गया..!
जब से सरकार ने रूपए किलो चावल कोटा से देने की घोषणा की थी, पण्डुआ ने खेतों की ओर जाना ही छोड़ दिया था । किसान के हाथ में खेतों का श्रृंगार होता है । अगर किसान कुशल और मेहनती हो तो खेत भी उपज बढा कर देता है वहीं किसान निकम्मा और कामचोर-देहचोर हो तो धान की बालियां भी रोने लग जाती है ।
हर साल जोत-कोड और रोपाई के न होने से पण्डुआ के अधिकांश खेत अबपरती रहने लगे और उसके आर-मेड टूटने लगे थे । उनके बाप के जमाने में जिन टांड-टिकूरों से भी लाहर-कुरथी, और मंडुआ-बाजरा लहलहाते थे,अब उनमें बड़ी-बड़ी झाड़ियां उग आई थीं, जिसमें छिप-छिप कर प्रेमी जोड़े अपनी जिस्मानी प्यास बुझाने लगे थे । इसी चक्कर में एक बार गांव के गाजो महतो की छोटकीपुतोहू और चिमनमहतो का बड़ा बेटा को खुखड़ी उठाने गई कुछ औरतों ने रंगे हाथ प्रेमालाप करते पकड लिया था । उस दिन गांव में ढोल सा बज गया था । तब से उस जगह का नाम लोगों ने, पण्डुआ प्रेम बाग रख दिया था ।
भादो-आसीन में, दूसरों के खेतों में धान लहलहाते नजर आते,पण्डुआ के खेतों में बड़का-बडका घास और उसमें चरते जानवर नजर आते थे । इस बात पर अगर पण्डूआ से कोई कुछ कहता तो उसका जवाब भी उसी की तरह निकम्मा होता-" खेती करने में अब कोई फायदा नहीं है..खर्चाजियादा और फायदा कम होता है,ट्रेक्टर वाले दबा कर पैसे ले लेते हैं..!”
पण्डुआ में यह कामचोरी और निकम्मापन अचानक से सवार नहीं हुआ था । यह बदलाव उस संगत का परिणाम था,जिसका लीडर बिरूवा था-बिरूमहतो ! कोलियरी से नौकरी छोड़ भागा हुआ-भगोडा और गांव के अब तक का सबसे बड़ा निकम्मा-कामचोर-बिरूवा ! बड़ी आशा और उम्मीद के साथ बिरूवा की मां ने उसे अपनी जगह बदली-बहाली पर बेटे को नौकरी दी थी ताकि बुढ़ापे में सहारा बन सके लेकिन नालायक बिरूवा मां का सहारा क्या बनता,उल्टे मां पर ही बोझ बन गया था । कोलियरी में मजदूर लीडर बनने के चक्कर में काम ही छोड़कर एक दिन भाग खड़ा हुआ तो दूबारा फिर कोलियरी नहीं गया । बाद में खोजी पत्रकार बनने को निकला तो तशेडी बन गया । दवा के अभाव में एड़ियां रगड़-रगड़ कर एक दिन उसकी मां चल बसी ।
खेती-किसानी छोड़ने वाला गांव का पहला आदमी बिरूवा ही था -" क्या रखा है किसानी कार्य में,हाड तोड़ मेहनत करो-पानी हुआ तो पूरा धान-नही हुआ तो खखरी धान..!" यह उसके मुंह में हर हमेशा लगा रहता था ।
उसी का जैसा एक और था-मेघनाथ ! केवल नाम का मेघनाथ । मेघ की तरह कभी खेतों में बरसने नहीं जाता, उसके भी अधिकांश खेत परती पड़ा रह जाता था । इन्हीं लोगों के साथ पण्डुआ का उठना बैठना होता था । अब गंजेडी, नशेड़ी और तशेडी के चेले तो गीता पाठ करने वाले होंगे नहीं । जैसे गुरु वैसे चेले !
दिन निकलते ही बिरूवा घर के बाहर बरामदे में ताश निकल जाता था । फिर तो दिन भर ताश फेटना-जुआ खेलना और देर रात दारू पी घर आकर मेहरारू को ठेलना,यही काम रह गया था पण्डुआ का भी। ठेल-पेल कर पण्डूआ ने तो घर में बच्चों का ढेर लगा दिया था लेकिन बिरूवाअभी तकबेऔलाद हीथा-“ बांझा का खेत भी बांझा…!”लोग बातें बनाते थे ।
गांव में निकम्मे युवाओं की तादाद दिनों दिन काफी बढ़ती जा रही थीं ।गली के कोने-कोचे जिधर नजर दौड़ाओ, कहीं तशेडियों की जमात जमी नजर आती तो कहीं जुआरियों का दाव पेंच चल रहा होता । बाकी देखने वाले खैनी-गुटखा पहुंचाते नजर आते थे । किसी को रोजी रोजगार के पीछे दौड़ते देखना एक जमाना बीत गया था । खेती-किसानी से दूर होते यह युवा किसी काम के लायक नहीं बचेथे ।शिक्षक बहाली की तैयारी कैसे की जाए,बीडी ओ,सी ओ, कैसे बनेंइस पर सोचना ही छोड़ दिया था,इन सब ने ।कोढिआपा और मुफ्तखोरीउनके दिलो-दिमाग में घर बना लिया था ।
दो माह पहले अचानक एक दिन पण्डूआ मेरे सामने आ गया था । बुलाने पर तो कभी सामने आता नहीं था,अगर आता भी तो हजार बहाने उसके पास पहले से मौजूद होता था । उस दिन मैंआफिस से थोड़ा देर से घर लौट रहा था । देखा वह मोड़ की पान गुमटी वाले के सामने गुटका के लिए गिडगिडा रहा है और गुमटी के दुकानदार उसे लतिआए जा रहा है-" देखो पण्डूआ,ढेर उधार हो गया है,पहिलका दो फिर नया लो, नहीं तो अब एक टका का भी उधार तोरा नहीं देंगे..जाओमुलखी के माय को लेकर आओ...!"
" आइज भर दे...!"
" कहलियोने,अब उधार नाय...!"
पण्डुआ जैसे ही पल्टा, सामने मुझे पाकर वह झेंप सा गया,उसकी नजर जमीन में गड गई । लगा बेहद शर्मिंदा हो चुका है । मोटर साइकिल पर बैठे ही मैंने गुमटी वाले से पूछा-" कितना बकाया है इसका ...?"
" दो सौ बीस रूपयेकाकू ..!" उसने बताया था
मैंने अपनी पर्स से ढाई सौ रुपए निकाल कर पण्डुआ के हाथ में दिया और कहा-" लो, जाकर दे दो..जो बचे उससे जो लेना है ले लो..!"
चला तो पण्डूआ को भी साथ बिठा लिया था । रोहन नक्षत्र घुसने वाला था । आसमान पर हल्के-हल्के बादल थे । दो दिन पहले भी जम कर पानी पड़ा था । धरती से सौंधी महक अब भी आ रही थी । पण्डुआ चुपचाप मेरे पीछे बैठा हुआ था । उसके मनोभाव को मै समझ रहा था । तभी मैने धीरे से कहना शुरू किया-" एक जमाना था,जब बलदेव काका को गांव का सबसे मेहनती और सबसे सियाना किसान समझा जाता था । गांव-घर में उनका मान-सम्मान था । किसी के घर में जाते तो बैठने के लिए आदर के साथ सामने खटिया बिछा दी जाती थीऔर तुम खुद को देखो, कैसा बना लिया है और क्या बन गए हो, एक मामूली गुमटी वाला किस तरह दुत्कार कर रहा था तुम्हें, यह सब कुछ मैंतुम्हे लज्जित करने के लिए नहीं कह रहा हूं, बल्कि सच्चाई बता रहा हूं,जो हमने अपनी आंखों देखा है...!"
पण्डुआ चुप रहा !
मैंने आगे कहना जारी रखा-" किसानी में वो शान है,जो बार्डर के जवानों में होता है, किसान वे माटी पुत्र होते हैं जो कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाते हैं, किसान अन्नदाता है तो पालनहार भी किसान ही है, कोई सरकार-फरकार नहीं है, हमें अपनी किसानी काम को एक कर्म समझ कर करना चाहिए, आदमी का कर्म ही उसका सबसे बड़ा धर्म है, जैसे बाप-दादाओं ने किए, हमें उनकी विरासत को बर्बाद होने से बचाना चाहिए..!" मैनेलुकिंगग्लास में पण्डूआ का पिघलते मन को देखा फिर कहा-" परसों से रोहन नक्षत्र पड़ने वाला है, इस बार सोचता हूं रोहन में ही धान विहिन खेत में डाल दूं-रोहन के विहिन में कीड़े नहीं लगते.. कैसा रहेगा..?"
" आं.. हां.. ठीक रहेगा ददा..!"लगा वह नींद से जागा है ।
हम घर पहुंच गए थे । वह बाइक से उतरा और सर झुकाए सीधे घर जाने लगा । बाइक पर बैठा तभी से उसके अंदर कुछ बदलाव शुरू हो गया था । थोड़ी दूर जाने के बाद अचानक से वह पल्टा-मूडा और मेरे सामने आकर बोला-" दादा, इस बार हम भी विहिन डालेंगे पर विहिन धान खरीदे वास्ते पैसा नहीं है हमारे पास..!" बोल कर वह चुप हो गया था ।
यह वही पण्डुआ था,जिसने खेती की बात पर साल भर पहले टके सा जवाब देते हुए मुझसे कहा था-" आज कल खेती कौन करता है ? खेती से कोई फायदा नहीं ।जितना खेत में धान नहीं होता, उससे कहीं ज्यादा तो खर्चा हो जाता है -उतना चावल तो हर महीना सरकार हमें देतीहै । कोटा से चावल आपको नहीं मिलता है-खेती आप शौक से करें ! हमारे लिए तो अब सरकार ही माय-बाप ! जब तक ये सरकार है, हमें खेती करने की कोनोदरकार.नहीं है !" और इसी के साथ देह ऐंठते पण्डुआ चला गया था।
" ठीक है, तुम अपनी विहनाठी तैयार कर लो- मेरा हल बैल ले जाओ और विहिन धान खरीदने का पैसा कल मुझसे ले लेना...!"
“ चलो, एक भटके हुए को तो अक्लआई !” मै खुश हो उठा था ।पर यह खुशी रेगिस्तान की बारिश साबित हुई थी।
सुबह आकर पण्डुआ मुझसे ढाई हज़ार रुपए लेकर चला गया था । शाम को मै काम से घर लौटा तो पता चला कि गांव के और चार लड़कों के साथ पण्डुआ भी काम करनेबंगलौर चला गया है । मै ठगा सा घर के बाहर देर तक खड़ा सोचता रहा” अब कोई किसी पर भरोसेकैसेकरे ? दुःख मुझे इस बात से नहीं हो रही थी, कि वह ढाई हज़ार ठग कर ले गया था ! दुःख तो इस बात से हो रही थी कि उसने मेरे विश्वास और भरोसे के साथ छल किया था ।मैभारी मन से घर में कदम रखा था ।
" बड़का, कि सोचे लागला.?.पैसवालौटायदेबो...!"
" पैसे के बारे नहीं सोच रहे है-बडकी, काका-काकी की याद आ गई थी.” पहले तो मन किया नकार दूं-मना कर दूं-झूठे की पत्नी – झूठी ! यहां तुम्हें कोई पैसे- ओसे नहीं मिलेंगे, जाओ मर्द को फोन कर मंगा लो पैसे..!”पर उसकी गर्भावस्था को देख मुंह से बोल न फूटे !अंदर जाकर पांच सौ रुपए लाकर सामने टेबल पर रख दिए, जहां से उसने तुरंत उठा ली,तबमैनेकहा-" बडकी, तोहरा से एक बात कहनी है,पर समझ में नहीं आ रहा है कैसे कहूं..!"
" कि बात लागो-बडका.. कहा न, घरेक आदमी से कैसन लाज ..?"
देखा पांच सौ रुपए हाथ में आ जाने से, उसके चिंतित चेहरे की परेशानी कम हो गई थी और आवाज मेंएकटनकपन आ गई थी ।उसका नुनू अब ठीक हो जाएगा यह उसकी आंखें बोल रही थीं ।
" कहना था कि चार-चार बेटियां और एक बेटा भी हो चुका था फिर-छठा पेट में..!" आगे बोल नहीं सका ।
" बड़का..बच्चा तो सरकार दे रहलहै,हमर कि दोष..!"
बच्चे भगवान देते है,यहहमनेबहुतों बार सुना था परंतु बच्चे सरकार देती है यह पहली बार सुन रहा था । मै जोर से हंसा था-" वो कैसे भला...?" मैने पूछा था
" जब से कोटा से चार-गेहूं मिले लागलअ, गांव के ही केते आदमी धान रोपे ल छाइडदेलथिन, पहिले जे आदमी सब खेती बारी में लागल रहो हलथिन,अब ओहे आदमी सब दिन रात घारेघुसल रहो हथिन, पहिले खेते हार जोतो हलथिन अब कोटा के चार खाय-खायघारे हार जोतो हथिन,अब घर में जे उपज होतअ-नाम तो सरकारेकहोतअ ने ...!" कहते कहते वह शर्मा गई और आंचल में मुंह छिपा ली थी ।
गजब की दलील दी थी उसने।
इसके आगे मैं और कुछ बोल न सका-केवल मुस्कुरा कर रह गया था ।
" एकर बाद आरनाय-बडका...!" इसी के साथ वह हंसते हुए ढाबे से बाहर निकल गई थी ।
बोकारो, झारखंड
एक परिचय
नाम श्यामल बिहारी महतो
नाम श्यामल बिहारी महतो
जन्म पन्द्रह फरवरी उन्नीस सौ उन्हतरमुंगो ग्राम में बोकारो जिला झारखंड में
शिक्षा स्नातक
प्रकाशन -बहेलियों के बीच कहानी संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित तथा अन्य तीन कहानी संग्रह उबटन, बिजनेस और लतखोर प्रकाशित और कोयला का फूल उपन्यास प्रकाशित
संप्रति तारमीकोलियरीसीसीएल कार्मिक विभाग में वरीय लिपिक स्पेशल ग्रेड पद पर कार्यरत और मजदूर यूनियन में सक्रिय
पोस्ट तुरीयो
पिनकोड 829132
जिला बोकारो, झारखंड
वाटशपनं 9546352044
ईमेल आईडी-shyamalwriter@gmail.com
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