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मंगलवार, 12 जुलाई 2022

कैलाश मनहर की पांच गजलें

(एक) 
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आप   चाहे   गये  हों  भूल  हमें
आपका    भूलना    कबूल  हमें 

आपको  स्वर्ग   मुबारक  साहब 
बहुत प्यारी है  पथ की धूल हमें 

आप  ए सी  में  बैठे   होंगे  जब 
छाया  देगा   यहाँ    बबूल   हमें 

आप  भगवे में  लिपट जाइयेगा 
चाहिये  पर   धवल  दुकूल  हमें 

शूल होते  तो गिला भी क्या था
चुभ  रहे  हैं कमल के  फूल हमें 
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(दो) 
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आदमी  वो कि  मौत में भी  ज़िन्दगी देखे
ज़िन्दगी वो कि रंजो ग़म में भी खुशी देखे 

जो बढ़ रहा हो ज़ुल्मतों का ज़ोर चौतरफ़ा 
नज़र  वही  जो  अँधेरों   में   रौशनी  देखे

लगे  हैं  सूखने   दरिया-ए-मुहब्बत   सारे 
कोई तो  हो कि जो  सूखे में भी नमी देखे 

खुला-खुला रहे  आकाश उड़ानों के लिये 
लहलहाती   हुई   हरी-भरी   ज़मीं    देखे 

ज़ुल्म के  सामने  डर कर  न टूट जाये वो 
रात  गहराये तो  फिर सहर भी होती देखे 
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(तीन) 
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मिसाल अपनी  आप हो  जैसे
कोई पुरखों का  श्राप हो  जैसे

रात भर   गूँजता  है कानों  में 
पीड़ितों  का विलाप  हो  जैसे 

उसका होना लगे है कुछ ऐसा
पूर्वजों   का  प्रताप   हो  जैसे 

बड़बड़ाता है  फ़ालतू  अक्सर
दीवाने   का  प्रलाप   हो  जैसे 

दु:ख आते  हैं  ऐसे  जीवन में 
वक़्त की  दग्ध-छाप हो  जैसे 
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(चार) 
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कोई मुफ़लिस  के  घर गये हैं क्या
थोड़ा  हद़  से  गुज़र  गये  हैं  क्या

इन  दिनों    दर्द    नहीं    होता  है 
ज़ख्म  सारे  ही  भर   गये  हैं क्या 

झोला अब खाली  खाली लगता है
सारे   सपने  बिखर   गये  हैं  क्या 

आजकल  मीठा  बोलते  हैं  बहुत 
सा'ब  सचमुच सुधर  गये  हैं  क्या 

हम  तो  तैयार  हैं   मरने  के लिये 
मारने    वाले  मर   गये   हैं   क्या 
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(पाँच) 
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मजदूर  की  मेहनत  फले  खेती  किसान  की 
खुशहाल  औ"  सरसब्ज़  रहे  अपनी ये ज़मीं

हर  शख़्स में  ज़िन्दा   रहे  जज़्बा-ए-मुहब्बत
दहशतज़दा  ज़रा न  हो   किसी  की  ज़िन्दगी 

हो  ख़ात्मा  इस मुल्क से  ज़ुल्मी  निज़ाम का 
चैन-ओ-अमन की  राह चलें सब खुशी खुशी 

"गर ज़ुल्मतों को मिल के निचोड़ें करोड़ों हाथ 
मिल जाये अपने हिस्से की सब को ही रौशनी

यह ख़्वाब हक़ीक़त में बदल जाये किसी रोज़
इंसाफ़-ओ-हक़  न मारे  किसी का कोई कभी 
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                               मनोहरपुर(जयपुर-राज.)
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