भोरमदेव के 'मुख्य' मंदिर के उत्तर में लगभग आधा किलोमीटर की दूरी पर प्रस्तर निर्मित एक शिव मंदिर है; जो जनमानस में 'मड़वा महल' अथवा 'दूल्हा देव' के नाम से चर्चित है। स्थापत्य कला और प्राप्त शिलालेखों से यह मंदिर लगभग चौदहवी शताब्दी का प्रतीत होता है। यह मंदिर सामान्य से इस अर्थ में भी भिन्न है कि यह पश्चिमाभिमुख है। जेनकिन्स(1825) मंदिर के बारे में कोई जानकारी नही देतें; केवल मंड़वा महल अभिलेख के बारे में लिखते हैं "Stone under the Mandwa,loose, Sak Vikram 1406, Jyam Soontser".
जेनकिन्स के बाद सर एलेक्जेंड कनिंनघम ने अपने सर्वे(1881-82) में मंदिर के बारे में थोड़ा विस्तार से लिखा है-
" The temple of Dulha Deo, known also as the Marwa or Mandawa Mahal, is large Lingam temple built on the usual plan, with an open square Mandap in front of the sanctum .The true name of the temple has been lost since the general acceptance of the popular appellations mentioned above, which were by the Gond villagers. The open pillared hall reminded them of the open shed, supported on wooden pillars and ornamented with flowers, which is prepared on most festive occasion, but more particularly for marrige festivities. Marwa and Mandawa are only corrupt forms of Mandapa, and the other name Dulha means simply the "bridegroom". Both names, therefore, refer to the open shed erected for the celebration of weddings..........The Mandap, or open hall, of Dulha Deo is 31 feet square, leading to a small ante-room in front of the sanctum, which is 14.5 feet square outside.The chamber inside is 11 feet 4 inches by 8 feet 10 inches. The roof of the Mandap is supported on four rows of square pillars, 15 inches square, with a few plain moulding, but no carving of any kind. The centre pillars are 8 feet high. The roof of the Mandap is formed by three courses of overlapping stones in each square, close by a single stone at top ornamented with a lotus flower. The tower of the temple is built entirely of granite, which has once been plastered.It has two rows of sculptures outside, nearly all of which are obscene. In the centre of each of the three faces there is a small niche now empty".
कनिंघम में अनुसार मंदिर का कुछ और नाम रहा होगा, और 'मड़वा', 'मंडप' का ही बिगड़ा हुआ रूप है।चूंकि मंदिर के सामने हिस्से में बड़ा मंडप है, जो विवाह के लिये बनाये जाने वाले मंडप से सादृश्यता रखता है इसलिए उस क्षेत्र के निवासियों (गोड़ जनजातियों) द्वारा बाद के समय मे यह नाम प्रयोग में आया होगा। 'दूल्हा देव' के संदर्भ में भी वे यही तर्क देते हैं। सम्भव है यहां विवाह भी होते रहे होंगे। वैसे दूल्हा देव गोड़ जनजाति के देवता भी हैं।
मंदिर के स्थापत्य के बारे में डॉ गजेंद्र कुमार चन्द्ररौल(1984) और डॉ सीताराम शर्मा(1989) ने भी लिखा है। प्रस्तुत विवरण डॉ चन्द्रोल से लिया गया है-
गर्भगृह
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इस मंदिर का गर्भगृह(2.50×2.50 मी.) वर्गाकार है जिसके मध्य में शिवलिंग प्रतिष्ठित है। वर्तमान में मंदिर के शिखर का ऊपरी भाग नही है। सम्भवतः ऊपरी भाग में स्थित आमलक और कलश टूट कर नष्ट हो गये हैं।गर्भगृह के अंदर शिवलिंग विहीन जलहरी आधी से अधिक तिरछी गड़ी हुई है। दक्षिणी भित्ति पर बने आले पर चामुण्डा की(खण्डित) मूर्ति रखी है जो 40 से. मी. ऊंची तथा 37 से.मी. चौड़ी है गर्भगृह की छत में ऊपर गोल अलंकृत शतदल कमल बना हुआ है। गर्भगृह की अंदर की दीवारें सादी तथा प्लास्टर रहित है जबकि बाह्य भित्तियों पर 6 से.मी. मोटाई का प्लास्टर है। जिस पर पूर्व में पीला रंग पुता था।
टीप- (1) डॉ सीताराम शर्मा में अनुसार गर्भगृह में वर्तमान में स्थापित शिवलिंग वास्तविक नही है।
(2)गर्भगृह में आधी गड़ी हुई शिवलिंग विहीन जलहरी नही है। ऐसी स्थिति भोरमदेव के मुख्य मंदिर के उत्तर में स्थित ईंट निर्मित शिव मंदिर में अवश्य है। सम्भवतः डॉ चन्द्रोल की पुस्तक छपाई के समय चूक हुई है।इसी तरह चामुंडा की मूर्ति भी वर्तमान में नही है।
द्वार चौखट
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इस मंदिर की प्रस्तर निर्मित द्वार चौखट अलंकृत है। चौखट चार भागों में टूट चुकी है। द्वार शाखाओं के ऊपरी भाग में पुष्प वल्लरी का अंकन है। वाम पार्श्व की द्वार शाखा पर ललितासन में चतुर्भुजी गणेश बैठे हुये हैं। निचले हिस्से में शिव परिवार की आकृतियां हैं। शिव चतुर्भुजी है,उनके ऊपरी बायें हाथ मे सर्प निचले दाहिने हाथ मे त्रिशूल आयुध धारण कीये हुये हैं। इनका ऊपरी दाया हाथ अभय मुद्रा में है। तथा निचले बांये हाथ में शिवलिंग लिये हुये है। शिव के सिर पर जटा मुकुट कानों में कुंडल गले मे माला एवं यज्ञोंपवित धारण किये हुए हैं।चौकी पर नीचे नंदी बैठा हुआ है। शिव के पार्श्व में घटधारिणी खड़ी हुई है तथा किनारे पर एक परिचारिका हाथ मे चंवर लिये हुये खड़ी है। उसके ऊपर मानव विग्रह में अंजलिबद्ध मुद्रा में नागराज प्रदर्शित है जिनके सिर पर सिर्फ फण छत्र है।
मंडप(सभामंडप)
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मंड़वा महल का मंडप आयताकार(8.50 मी. लंबा तथा 7 मी. चौड़ा) है।यह कुल 16 चौकोर स्तंभों पर आधारित था। उनमें से तीन स्तम्भ खण्डित हो चुकें हैं। अतः मंडप में अब 13 स्तम्भ हैं। मंडप के मध्य के स्तम्भ 2.44 मी. ऊंचे हैं जबकि किनारे के स्तम्भ 1.96 मी. ऊंचे हैं।वर्तमान में यह मंडप ध्वस्त होने की स्थिति में है। जो समुचित संरक्षण के अभाव में मलवे कभी भी गिर सकते हैं।
टीप- मंदिर का पुरातत्व विभाग द्वारा 2003-04 में जीर्णोद्धार कराया गया है जिससे मंदिर पूर्व स्वरूप में आ गया है।
मंदिर का शिखर ग्रेनाइट प्रस्तर के शिलापट्टों से निर्मित था जिसके ऊपर बाद में प्लास्टर कर दिया गया। भोरमदेव मंदिर की भांति इसके बाह्य भित्तियों पर कटिभाग में दो पंक्तियों में काम कला सम्बन्धी मिथुन दृश्य अंकित हैं। भोरमदेव के मुख्य मंदिर की तुलना में यहां कला का ह्रास दिखाई देता है।
मड़वा महल अभिलेख सम्वत 1406(1349 ई.)
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भोरमदेव के इतिहास में सर्वाधिक महवपूर्ण अभिलेख मड़वा महल अभिलेख को माना जा सकता है; जिसमे फणिनागवंश की उत्पत्ति कथा तथा रामचन्द्र देव तक उनकी वंशावली दी हुई है। यह अभिलेख मड़वा महल से प्राप्त हुआ है जिसे वर्तमान में सुरक्षा की दृष्टि से(1985 के लगभग) महंत घासीदास संग्रहालय रायपुर में स्थानांतरित कर दिया गया है।यह अभिलेख सर्वेक्षणकर्ताओं/इतिहासकारों को आकर्षित करता रहा है और उन्होंने इसमें 'उल्लेखित' बातों का जिक्र भी किया है; मगर आश्चर्यजनक रूप से किसी ने भी इसका पाठ प्रस्तुत नही किया है। ऐसा नही कहा जा सकता कि वे सक्षम नही थें। कनिंनघम ने इस क्षेत्र के कई अभिलेखों का पाठ प्रस्तुत किया है; फिर वी.वी. मिराशी ने तो अभिलेखों का अत्यंत सूक्ष्म पाठ प्रस्तुत किया है।श्री बालचन्द जैन के 'उत्कीर्ण लेख' में भी इसका पाठ नही है। वर्तमान में सक्षम विद्वानों को इसका पाठ प्रस्तुत करना चाहिए ताकि इस अभिलेख का अक्षरसः शोधार्थियों को ज्ञात हो सके।ऊपर हमने बताया है कि जेनकिन्स(1825) केवल अभिलेख होने और संवत 1406 की जानकारी देते हैं। कनिंघम इसके बारे में लिखते हैं- " In the Mandap there is a loose slab, broken in two pieces, which is covered with a long inscription in modern Nagari characters, It's date is curiously described as "Vikram Saka, 1406, Jayanama Samvatsara." This is clearly intended for the Vikramaditya era, and is therefore equivalent to A.D. 1349, which corresponded in its latter half with the Jaya Samvatsara of the 60-year cycle of Jupiter, according to the northern reckoning........The inscription is 5 feet 3 inches long by 2 feet 3 inches broad, and contains 37 lines. It is nearly complete; but has not yet been translated. It is said to contain a genealogy of 22 kings, which, if they were generations, would place the earliest of them 550 years before the date of the record, or about A.D. 800." कनिंनघम ने लिखा है कि इसमें 22 राजाओं की वंशावली होने की बात कही जाती है मगर अभी तक इसका अनुवाद नही किया गया है। राय बहादुर हीरालाल(1916) जिस तरह से अभिलेख में उल्लेखित बातों का जिक्र करते हैं, उससे पता चलता है कि उन्होंने अभिलेख को पढ़ा था। अभिलेखों का सम्पूर्ण पाठ प्रस्तुत करना सम्भवतः उनकी योजना में ही नही था। मिराशी(1955) ने अभिलेख का पाठ प्रस्तुत नही किया है। धानू लाल श्रीवास्तव(1925) राय बहादुर हीरालाल को ही दोहराते हैं। राय बहादुर हीरालाल के आधार पर अभिलेख से निम्न बातें उभर कर आती हैं
(1) फणिनागवंशी रामचन्द्र का हैहयवंशी अम्बिकादेवी से विवाह हुआ था।
(2)रामचन्द्र ने एक शिवमंदिर का निर्माण कराया था।
(3)इससे नागवंश की उत्पत्ति की किवंदन्ति का पता चलता है जो हैहयवंश की कथा से समानता रखता है जिसके अनुसार उनके(हैहय) पूर्वज नाग और घोड़ी हैं।
(4) इस अभिलेखीय रिकार्ड के अनुसार एक नाग जातुकर्ण नामक ऋषि की कन्या मिथिला पर मोहित हो गया; और इसलिए मनुष्य रूप ग्रहण कर उससे सम्बन्ध स्थापित(विवाह) किया।
(5) इस संबंध से इस वंश का प्रथम शासक अहिराज हुआ; जिसने आस-पास के सामंतों को परास्त कर अपना साम्राज्य स्थापित किया।
(6) अहिराज से रामचन्द्र तक वंशावली इस प्रकार है-
(1) अहिराज (2)राजल्ला(पुत्र) (3)धरणीधर(पुत्र)(4)महिमदेव(पुत्र)(5)सर्ववंदन या शक्तिचन्द्र(पुत्र)(6)गोपालदेव(पुत्र)(7)नलदेव(पुत्र)(8)भुवनपाल(पुत्र)(9)कीर्तिपाल(पुत्र)(10)जयत्रपाल[भाई] (11)महिपाल(पुत्र)(12)विषमपाल(पुत्र)(13)ज(न्हु)(पुत्र)(14)जनपाल या विजनपाल(पुत्र)(15)यशोराज(पुत्र)(16)कन्नड़देव या वल्लभ(पुत्र)(17)लक्ष्मीवर्मा(पुत्र)(18)खड्गदेव्(पुत्र)
(19)भुवनैकमल्ल(पुत्र) (20)अर्जुन(पुत्र)(21)भीम(पुत्र)(22)भोज(पुत्र)(23)लक्ष्मण[लक्ष्मीवर्मा के भाई के पंथी के पंथी](24)रामचन्द्र(पुत्र)(25)अर्जून(पुत्र)
इस तरह वंशावली में पिता-पुत्र की मुख्यधारा में दो बार बदलाव हुआ है। पहली बार दसवे शासक जयत्रपाल कीर्तिपाल के भाई है। दूसरी बार लक्ष्मण लक्ष्मीवर्मा के पंथी के पंथी है(great-great-grandson)।
वंशावली में शासकों के नाम के पूर्व उन्हें विशेषणों से विभूषित किया गया प्रतीत होता है; क्योकि श्री विष्णु सिंह ठाकुर ने अपने एक आलेख में छठवें शासक गोपालदेव के लिए प्रयुक्त विशेषण का मूलपाठ से उल्लेख किया है; जो इस प्रकार है- "स्वबाहुदर्पेंण जितारिदर्प्प:"।इस तरह अभिलेख के पाठ प्रस्तुत होने से अन्य शासकों के बारे में जानकारी प्राप्त हो सकती है।
(7) अभिलेख में चार भौगोलिक नामों का उल्लेख हुआ है; चौरापुरा, संकरी नदी, राजपुरा, कुंभीपुरी। चौरापुरा जिसके पूर्व में यह मंदिर निर्मित हुआ था, निश्चित रूप से आज का 'चौरा' गांव है।यह मंदिर अभी तक इसी की सीमा में है। संकरी नदी अब सकरी कहलाती है और मंदिर से कुछ दूरी दक्षिण में बहती है। राजपुरा गांव देवता के भोगराग के लिए प्रदान किया गया था। यह आज का राजपुरा है जो चौरा से तीन मील की दूरी पर दक्षिण में है। 'कुंभीपुरी' के बारे में ज्ञात नही है कि यह आज का कौन सा गांव है या इस नाम का गांव पहले रहा हो और उजड़ गया हो। यह गांव उसी समय 'महेश' नाम के ब्राह्मण को 'अग्रहार'(भूमिदान) के रूप में दिया गया था।
(8)यह लेख पद्य में है जिसकी रचना विट्ठल नामक दक्षिणी ब्राह्मण ने की थी।हीरालाल के अनुसार अभिलेख अंत मे सम्वत में 'विक्रम सक' में 'सक' केवल समय के लिये प्रयुक्त हुआ है, 'सक संवत' के अर्थ में नही।
इस अभिलेख में रामचन्द्र द्वारा सम्वत 1406(1349) में जिस शिव मंदिर बनाने का उल्लेख है वह मड़वा महल शिव मंदिर ही होना चाहिए; क्योकि एक तो अभिलेख यहीं से प्राप्त हुआ है।दूसरा मंदिर का स्थापत्य में लगभग चौदहवी शताब्दी के लगभग का प्रतीत होता है।
मड़वा महल सती स्तम्भ लेख सम्वत 1407(1349-50)
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यह लेख 2003 में मंदिर के अनुरक्षण कार्य के समय प्राप्त हुआ था। वर्तमान मे यह लेख मंदिर प्रांगण में ही अवस्थित है। इसका पाठ सर्वप्रथम श्री राहुल कुमार सिंह ने प्रकाशित कराया था। प्रस्तुत पाठ 'उत्कीर्ण लेख' से लिया गया है। लेख सात पंक्तियों में उत्कीर्ण हैं।
(1) सम्वत 1407 वषे(वर्षे)
(2)11 सोमे सौ त(-)डग्रे
(3) फणिवंस(श) राजो सरदा-
(4)ते गार्य(-) राजेन महि(धर)
(5)पुत्र: श्री महाराज सतीम--
(6) --रनं राउत घाघम पुत्र(त्री)
(7) दुई कुल उधरे(उद्धारे) सहगमन
लेख का महत्व इस बात में है कि इसमें 'फणिवंश के राजा 'सरदा' एवं महाराज 'सतीम' का नामोल्लेख मिलता है।लेख के अंतिम दो पंक्तियों में पितृकुल तथा पति के कुल के उद्धार के लिए राउत घाघम की पुत्री के सहगमन(सती होने) का उल्लेख है। फणि वंश के अज्ञात राजाओं के नाम तथा राउत जाति के नारी के सती होने की जानकारी के कारण यह सतीलेख विशेष महत्वपूर्ण है।
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संदर्भ-
(1)एशियाटिक रिसर्चेस वाल्यूम 15- आर.जेनकिन्स(1825)
(2)कनिंनघमआर्कियोलॉजिकल सर्वे रिपोर्ट वाल्यूम 17- अलेक्जेंडर कनिंनघम(1882)
(3)इस्क्रिप्सन इन सी.पी. एंड बरार- राय बहादुर हीरालाल(1916)
(4) कार्पस इस्क्रिप्सन इंडिकेटम वाल्यूम 4, पार्ट 2- वी.वी. मिराशी(1955)
(5)अष्टराज अंभोज-धानू लाल श्रीवास्तव(1925)
(6) भोरमदेव मंदिर प्रदर्शिका- गजेंद्र कुमार चन्द्ररौल-1984
(7)भोरमदेव- सीताराम शर्मा (1989)
(9)उत्कीर्ण लेख- बालचन्द जैन ,परिवर्धित संस्करण 2005
(10)चौरा-भोरमदेव मूर्ति लेख एवं पुजारीपाली अभिलेख में उल्लिखित गोपालदेव में अभिन्नता(आलेख),कोशल पत्रिका भाग-1- विष्णु सिंह ठाकुर
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#अजय चन्द्रवंशी, वार्ड नं 09, कवर्धा, (छ. ग.)
मो. 989372832
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