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बुधवार, 15 दिसंबर 2021

प्रगतिशीलता की पैरवी : प्रगतिशील लेखन की पक्षधरता

अजय चन्द्रवंशी
 
     नासिर अहमद सिकंदर हमारे समय के प्रगतिशील चेतना के महत्वपूर्ण कवि हैं। उनकी कविताएं आम जन- जीवन के के धूप-छाँह, राग-विराग और संघर्ष को दर्ज करती रही हैं। मगर कविताई के साथ-साथ उनके पास सार्थक आलोचना दृष्टि भी है ; जिससे वे अपने समकालीन कवि, पूर्व-पश्चात और पुरी काव्य परंपरा को देखते हैं, और समय -समय पर उन पर बोलते-लिखते रहे हैं। वे शमशेर की तरह उन उन बिरले कवि-लेखकों में हैं जिन्हें उर्दू काव्य परंपरा का सम्यक बोध है और उस पर लिखते रहे हैं।'बचपन का बाइस्कोप' के बाद उनकी दूसरी आलोचना कृति 'प्रगतिशीलता की पैरवी' में इसे देखा जा सकता है।
     जैसा कि पुस्तक के शीर्षक से ही स्पष्ट है उनका विवेचन प्रगतिशीलता की पैरवी है। बीते शताब्दी के आखरी दशक के घटनाक्रमों के बाद जब विचारधारा, इतिहास, लेखक के अंत की बात कही जाने लगी तो प्रगतिशील चेतना के समक्ष एक बड़ी चुनौती प्रस्तुत हुई और साहित्य में रूपवादी प्रवृत्ति के पक्ष में नये सिरे से दलीलें दी जाने लगी।ऐसे में जिन प्रगतिशील आलोचकों-कवियों ने रूपवाद, कुलीनतावाद के बरक्स लोकधर्मी जन कविता के पक्ष में संघर्ष किया उनमे नासिर अहमद सिकंदर का लेखन भी महत्वपूर्ण है।
     नासिर अहमद की आलोचना दृष्टि रामविलास शर्मा, केदारनाथ अग्रवाल, मुक्तिबोध ,धूमिल,विजेंद्र, अजय तिवारी को पढ़ते, उनसे बहस करते हुए विकसित हुई है, इसलिए वे बार-बार उनका जिक्र करते हैं।केदारनाथ अग्रवाल, विजेंद्र की कविताओं का जिक्र करते हुए वे प्रेम के उदात्त स्वरूप का उल्लेख करते हैं, जो अपने पारिवारिक और सामाजिक दायित्व से पृथक नही होता।
     नासिर अहमद मानते हैं की कविता को जीवन से अलग नही देखा जा सकता।कवि का जीवन, उसका आत्मसंघर्ष, उसके द्वंद्व उसकी कविता को समझने में मदद करते हैं।इस सन्दर्भ में वे मुक्तिबोध,पंकज चतुर्वेदी,केदारनाथ अग्रवाल से लेकर सुधीर सक्सेना तक का जिक्र करते हैं। कहा जा सकता है कि भ्रष्ट जीवन से महान कविता पैदा नही हो सकती।दरअसल 'भ्रष्ट व्यक्तित्व' में  संवेदना की तीव्रता, बेचैनी अथवा रचनात्मक तनाव वैसा हो ही नही सकता जो श्रेष्ठ कविता को जन्म दे सके।कविता की सापेक्ष स्वतंत्रता एक बात है, उसका जीवन से अलगाव दूसरी बात।
     कविता में विचारधारा के नाम पर केवल प्रगतिशील विचारधारा का विरोध किया जाता रहा है; मानो गैर प्रगतिशील कहे जाने वाले कवियों की कोई विचारधारा ही न रही हो! नासिर अहमद इस पाखंड को समझते हैं "अतः कहा जा सकता है की विचारधारा का विरोध अंततः प्रतिपक्ष की कविता का विरोध है"। वे इसे कई जगह रेखांकित करते हैं। 'लाँग नाइंटीज' के नाम पर अंततः प्रगतिशील कविता का विरोध किया जा रहा था। नासिर अहमद इसका उचित प्रतिवाद करते हैं ।
     लोक चेतना यथार्थवादी चेतना है जो लोक के प्रति रोमानी आसक्ति से नही बल्कि उसके अंतर्विरोध को समझते हुए वर्गीय दृष्टि से पैदा होती है। वे लिखते हैं "प्रतिपक्ष की कविता का स्वरूप न स्थानीयता और लोक की रागात्मक छवियों से बनेगा, न जटिल बिम्बों या उकसावे के उद् बोधनो से,बल्कि इसका स्वरूप उस पक्ष के दुष्प्रचारित तर्कों और निर्णयों के बरअक्स कलात्मक और संवेदनात्मक सम्बोधनों से भी बनेगा"। लोक के प्रति यथार्थवादी और रोमानी दृष्टि के भेद को वे रामविलास शर्मा की 'सिल्हार' और एकांत श्रीवास्तव की 'सिला बिनती लड़कियां' कविता के अंतर के माध्यम से दिखाते हैं। रामविलास के यहां जहां सिला बीनने की मजबूरी है, वहीं एकांत के यहां लड़कियां सिला बीनने 'रंगीन चिड़ियों की तरह उतरती हैं'। नासिर अहमद का सपष्ट मत है कि किसानों, मजदूरों के प्रति "आत्मीयता(और सहानुभूति) मानवतावाद के फलसफे पर नही वर्ग दृष्टिकोण" से ही आ सकती है।
     प्रगतिशील कविता पर अक्सर सपाटबयानी का आरोप लगाया जाता है। इस संदर्भ में राजेश जोशी के कविताओं का हवाला देते हुए नासिर लिखते हैं "लोग अक्सर वाक्यों की कला को सपाटबयानी से जोड़ते हुए विचार विमर्श करते रहे हैं लेकिन वाक्यों की कला और सपाटबयानी में सबसे बड़ा फर्क यह है कि सपाटबयानी जहां कविता में वैचारिकता से विलग होकर भी हो सकती है लेकिन वहीं वाक्यों की कला में वैचारिकता प्रमुखता से आएगी।"
     नासिर कविता कर्म को सार्थक प्रतिपक्ष मानते हैं तो कवि को अपने समय के प्रति सजग रहने और काव्य दृष्टि में विकास की अपेक्षा भी करते हैं। ऐसा न पाने पर आलोचना से नही चूकते " समकालीन काव्य-परिदृश्य इस कदर ठंडा और शांत गति से चलायमान है कि जिस भी हिंदी कवि ने अपना काव्य-मुहावरा बना लिया या पा लिया, वह उसी पर आश्रित और मुग्ध है। दसियों-बीसियों साल से उसकी कविता की वही पहचान है और कवि की पहचान भी सुरक्षित है"।
     नासिर के इस पुस्तक में वरिष्ठ से कनिष्ठ और उनके समकालीन कई कवियों के संग्रह और उनके कवि दृष्टि पर टिप्पणी है। उनमे से कईयों की अपेक्षाकृत कम चर्चा हुई है,मगर नासिर ने तटस्थता से उनका मूल्यांकन किया है; इससे प्रकट होता है कि उनके विवेचन में 'बड़े' नामों का मोह नही होता। इनमे जिन कवियों/लेखकों का विवेचन है उनमे केदारनाथ अग्रवाल, दिनकर, मुक्तिबोध, धूमिल, चंद्रकांत देवताले, वीरेन डंगवाल, राजेश जोशी, जोहरा सहगल, वीरेन डंगवाल, एकांत श्रीवास्तव, सुधीर सक्सेना,शरद कोकास, कमलेश्वर साहू,विजेंद्र, बसन्त त्रिपाठी,बुद्धिलाल पाल,जय प्रकाश मानस,घनश्याम त्रिपाठी,रमेश सिन्हा, उमाशंकर परमार, रमाकांत श्रीवास्तव आदि हैं।
    
इस तरह इस पुस्तक के समस्त आलेखों की केन्द्रीयता प्रगतिशील रचनाधर्मिता की सार्थकता पर बल देना; रचना में जीवन संघर्ष और जन संघर्ष से संवेदनात्मक जुड़ाव; लोक के प्रति यथार्थवादी दृष्टि का आग्रह और आवश्यकता जान पड़ती है।

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कृति- प्रगतिशीलता की पैरवी
लेखक- नासिर अहमद सिकन्दर
प्रकाशक- लोकोदय प्रकाशन, लखनऊ
मूल्य- ₹225

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[2019]

# , कवर्धा (छ.ग.)
   मो. 9893728320

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