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शनिवार, 18 सितंबर 2021

नामवर होने का अर्थ : भारत यायावर

अजय चन्द्रवंशी

       हिंदी आलोचना में रामचन्द्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा के बाद सर्वाधिक चर्चित आलोचक डॉ. नामवर सिंह हैं।उनका रचनाकाल मुख्यतः बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक तक रहा है। इतने लंबे समय के पठन-पाठन, लेखन में लोगों की उनसे अपेक्षाकृत कम पुस्तक लिखने की शिकायत रही हैं।यह एक हद तक सही है मगर इधर उनके आलेखों, भाषणों को पुस्तकाकार देने से उनकी काफ़ी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, जिससे इस शिकायत में कमी आयी है।
       देखा जाय तो नामवर जी का आलोचनात्मक विवेक और दृष्टि प्रगतिशील आंदोलन के प्रभाव और सानिध्य में ही विकसित हुआ है और वे इसे स्वीकार भी करते हैं। कविता से आलोचना की तरफ उनका झुकाव प्रगतिशील लेखक संघ की बैठकों में होने वाली बहसों से हुआ।
       नामवर जी की किताबें कम अवश्य रहीं मगर वे काफ़ी चर्चित हुईं। 'छायावाद'(1954), 'इतिहास और आलोचना'(1955), 'कहानी : नयी कहानी'(1964), 'कविता के नए प्रतिमान'(1968), 'दूसरी परम्परा की खोज'(1982) ऐसी पुस्तकें हैं जो आज भी बहस के केंद्र में रहती हैं।इन किताबों ने अपने समय मे हलचल पैदा की थीं, जिन पर आज भी वाद-विवाद होते रहते हैं।
       नामवर जी प्रगतिशील आलोचक हैं। उनकी विवेचना पद्धति और विश्व दृष्टि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद से विकसित हुई है, मगर वे लगातार स्वयं को मांजते रहे हैं। बहुत कम आलोचक बदलते समय की रचनाशीलता से स्वयं को जोड़ पाते हैं, इस दृष्टि से नामवर जी अनन्य हैं। वे नये रचनाकारों पर हमेशा लिखते रहे, बोलते रहें।नये परिप्रेक्ष्य में उनकी दृष्टि और कोण में परिवर्तन की आलोचना भी हुई।बहुतों ने उसे वैचारिक विचलन कहा।'कविता के नये प्रतिमान' में उन्होंने अंग्रेजी के नयी समीक्षा का प्रभाव ग्रहण करते हुए बदलते परिस्थितियों में कविता के लिए नये प्रतिमान की आवश्यकता पर बल दिया।कई आलोचकों ने इस पर कहा की कविता के नये प्रतिमान नही अपितु नयी कविता के प्रतिमान की आवश्यकता है। हालांकि लक्ष्मीकांत वर्मा इस पर पुस्तक भी लिख चुके थे जिसकी नामवर जी ने तीव्र आलोचना की।नेमीचंद जैन आदि ने इसे रूपवादी झुकाव कहा। नामवर जी द्वारा छायावादी भावबोध की आलोचना और उसे 'शिशु आस्था' कहने पर डॉ रामविलास शर्मा ने उसकी तीव्र आलोचना की। बहरहाल यह बहस आज भी जारी है।
        नामवर जी का कहना है 'कविता के नए प्रतिमान' में कविता के रूप पक्ष पर अतिरिक्त बल रूपवादी आलोचना की चुनौतियों से मार्क्सवादी आलोचना को लोहा लेने के लिए दिया गया है। उनका मानना है कि  "मार्क्सवादी साहित्य- दृष्टि बराबर ही कविता की 'सापेक्ष स्वतंत्रता' पर बल देती रही है। हिंदी से और उदाहरण लें तो मुक्तिबोध के अलावा, जिनका मत 'कविता के नए प्रतिमान' में उद्धृत है, डॉ रामविलास शर्मा के 'आस्था और सौंदर्य' में भी यही मान्यता व्यक्त की गई है। आगे वे लिखते हैं "रूपवाद का उत्तर स्थूल समाजशास्त्रीयता नहीं, बल्कि विषयवस्तु और रूपविधान के द्वंद्वात्मक सम्बन्धों की सही जानकारी पर आधारित सच्ची मार्क्सवादी आलोचना ही हो सकती है।"
        अपने दीर्घकालिक लेखकीय जीवन में कई विद्वानों से उनका वैचारिक मुठभेड़ हुआ, जो स्वाभाविक है। समर्थ आलोचना में सर्वत्र सहमति नहीं होती; सैद्धांतिक विवेचन में भी लेखकीय व्यक्तित्व के रंग होते हैं। सहमति-असहमति का द्वंद्व आलोचना का मूलाधार होता है।नामवर जी के लेखन में आचार्य रामचंद्र शुक्ल से लेकर, शिवदान सिंह चौहान, राम विलास शर्मा,नंद दुलारे वाजपेयी, नगेन्द्र, अज्ञेय, अशोक वाजपेयी जैसे महत्वपूर्ण लेखकों-आलोचकों से बहस है।
        रामविलास जी से उनकी लंबी बहस को रेखांकित किया जाता रहा है, मगर इसमे सर्वत्र असहमति नही है। रामविलास जी से उनकी बहस प्रगतिशील आलोचना की आंतरिक बहस है, कलावाद-रूपवाद के प्रति दोनो आक्रमक रहे हैं। रामविलास जी से उनकी बहस रामचन्द्र शुक्ल-हजारी प्रसाद द्विवेदी का मूल्यांकन, परंपरा का मूल्यांकन, छायावाद, नयी कविता, मुक्तिबोध,नवजागरण आदि बहुत से बिंदुओं को लेकर है।बावजूद इसके नामवर जी उन्हें वाद-विवाद-संवाद में अपना गुरु मानते हैं।
       बहरहाल यहां हमारा उद्देश्य इन बहसों की विवेचना करना नही है।नावमर जी ने अपनी व्यवस्थित आत्मकथा नही लिखी है। लेकिन 'तद्भव' में 'जीवन क्या जिया' शीर्षक से लिखा उनका आत्मकथात्मक आलेख महत्वपूर्ण है। इससे उनके जीवन संघर्ष की झलक मिलती है। नामवर जी पर पत्रिकाओं के कई विशेषांक और पुस्तकें प्रकाशित हो चुके हैं,हो रहे हैं।हम अपनी पाठकीय सीमा के कारण उन सभी विशेषांकों और पुस्तकों को नही देख सके हैं।फ़िलहाल हम जिस पुस्तक की बात कर रहे हैं वह चर्चित कवि-आलोचक श्री भारत यायावर कृत 'नामवर होने का अर्थ' है, जो सन 2012 में प्रकाशित हुई थी। तब नामवर सिंह जी वर्तमान थे। पुस्तक में 'स्पष्टीकरण' के अलावा छोटे-बड़े पैतीस अध्याय हैं जिनमे नामवर जी के बचपन से लेकर सन 2010 तक के उनके लेखकीय जीवन की झांकी है। लेखक ने स्वयं लिखा है "प्रस्तुत पुस्तक नामवर सिंह के जीवन एवं साहित्य का एक पार्श्वचित्र या प्रोफाइल है। इसे सही मायने में 'जीवनी' भी नहीं कहा जा सकता। कोशिश यह रही है कि उनके जीवन एवं साहित्य का एक सामान्य परिचय इस पुस्तक द्वारा प्रस्तुत हो जाए।" हमारी समझ से लेखक अपनी कोशिश में सफल रहे हैं।
       इस पुस्तक की एक खासियत यह भी है कि इसमे नामवर जी के कविपक्ष को पर्याप्त स्थान दिया गया है। अधिकतर लेखकों की तरह नामवर जी ने भी अपनी लेखकीय यात्रा कविता से प्रारम्भ की थी। बाद में उनके आलोचक व्यक्तिव में उनका कविरूप एक तरह से छुप गया। पुस्तक से पता चलता है कि उन्होंने चालीस और पचास के दशक में काफ़ी कविताएं लिखी हैं।इस पुस्तक में उनकी कई कविताएं पढ़ने को मिल जाएंगी। न केवल लिखी अपितु उनकी रचनाएं तत्कालीन महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में छपती भी रहीं। यहाँ तक कि उनका एक कविता संग्रह 'नीम के फूल' छपने की स्थिति तक पहुँच गया था।
         पुस्तक का पहला अध्याय 'आलोचक नामवर सिंह का महत्व' है। यायावर जी ने इसमे नामवर जी के महत्व को रेखांकित किया है। इस बात से लगभग सभी सहमत रहे हैं कि नामवर जी अन्यों की अपेक्षा समकालीन साहित्य से बराबर जुड़े रहे, उनके बारे में लिखते बोलते रहें। वे बहुत जगह अपने ही पूर्व धारणाओं को छोड़ने से नही हिचकते रहे, यह उनका सबल पक्ष है। यायावर जी इस पर बल देते हैं वह सही हैं मगर इस प्रक्रिया में वे कई जगह अतिकथनों का सहारा लेते हैं, जो उचित नही जान पड़ता। मसलन जब वे लिखते हैं  "आचार्य शुक्ल के समीक्षात्मक अवदान को इस प्रकार समग्रता में देखने और उनके अंतर्विरोधों पर उँगली रखने और उनकी सीमाओं का रेखांकन एक छोटे से निबंध में जिस प्रकार किया है, वैसा बहुतेरे आलोचकों द्वारा स्वतंत्र रूप में उन पर पुस्तक लिखकर भी नही किया गया है।" यदि यह रामविलास जी के लिए कहा गया है तो ध्यातव्य है कि स्वयं नामवर जी डॉ शर्मा के 'आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना' को शुक्ल जी पर लिखी गई श्रेष्ठ किताब मानते रहें हैं।
        यायावर जी नामवर जी का महत्व रेखाँकित करते हैं मगर पता नही क्यों उनके लिए प्रगतिशील अथवा मार्क्सवादी आलोचक शब्द के प्रयोग से बचते प्रतीत होते हैं। जबकि नामवर जी प्रगतिशील आलोचना के आधार स्तम्भों में हैं।यहां इस बात को जोर देकर कही जानी चाहिए कि रामविलास जी से उनकी बहस प्रगतिशील आलोचना की आंतरिक बहस है। यायावर जी लिखते हैं "इसलिए वे अस्सी की उम्र पार करने के बाद भी गतिशील हैं और 'समकालीन' बने हुए हैं। उनके अग्रज आलोचक नंददुलारे वाजपेयी, हजारी प्रसाद द्विवेदी, शिवदान सिंह चौहान, रामविलास शर्मा आदि अपने जीवन-काल में ही पुराने ढंग के आलोचक बनकर रह गए थे, 'समकालीन' नही रह गए थे।" नामवर जी समकालीन रचनाकारों पर लिखते-बोलते रहें यह अवश्य उनके महत्व को दिखाता है, मगर जो आलोचक 'समकालीन' लेखकों पर बात  न करे तो इसका अर्थ यह नही की उसने समकालीन समस्याओं से आँख मुंद लिया है। वर्तमान के बहुत सी समस्याओं के जड़ अतीत में होते हैं, इसलिए उनके निराकरण के लिए परम्परा का सम्यक मूल्यांकन भी जरूरी होता है। रामविलास जी के परवर्ती लेखन को इस संदर्भ में देखा जा सकता है। हजारी प्रसाद द्विवेदी जी भी पुराने साहित्य की बात करते हैं तब भी उनका संबंध वर्तमान से बना रहता है। इसलिए वे 'अशोक के फूल' जैसे निबन्ध में यह बात कह सके " सबकुछ में मिलावट है, सबकुछ अविशुद्ध है। शुद्ध है केवल मनुष्य की दुर्दम जिजीविषा(जीने की इच्छा)।वह गंगा की अबाधित-अनाहत धारा के समान सबकुछ को हजम करने के बाद भी पवित्र है। सभ्यता और संस्कृति का मोह क्षण-भर बाधा उपस्थित करता है, धर्माचार का संस्कार थोड़ी देर तक इस बाधा से टक्कर लेता है, पर इस दुर्दम धारा में सबकुछ बह जाते हैं।"
        लेकिन यायावर जी की किताब में इन बहस के बिंदुओं के अलावा नामवर जी के रचनाधर्मिता को समझने के लिए बहुत कुछ है। उनके जन्म, परिवेश, बनारस में अध्ययन, कविता लेखन की शुरुआत, त्रिलोचन से मित्रता,प्रगतिशील लेखक संघ के बैठकों में शिरकत,बनारस के संघर्ष के दिन, द्विवेदी जी का सानिध्य, गोष्ठियों में बहस और आलोचना की शुरुआत, बनारस में अध्यापन और निष्कासन,सागर में अध्यापन और निष्कासन, दिल्ली में 'आलोचना 'का सम्पादन, जोधपुर में अध्यापन,'मुक्तिबोध और धूमिल की महत्ता ,नन्द किशोर नवल से आत्मीयता और प्रोत्साहन,फिर जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय में अवकाश ग्रहण करने तक अध्यापन। और इन सबके बीच उनका गहन अध्ययन,लेखन, भाषण, मित्रो, छात्रों से आत्मीयता बहुत कुछ है।
        त्रिलोचन जी उचित हो नामवर जी की आँखों को "पुस्तक पगी आँखे" कहते थे। उनके गहन अध्ययन का हर कोई कायल रहा है। इस पुस्तक में उल्लेखनीय यह भी है कि इसमे नामवर जी के युवावस्था के प्रारंभिक निबंधों , टिप्पणियों के अंश(कहीं कहीं पुरा) दिया है, जिससे उनकी प्रतिभा का पता चलता है। अपने पहले ही निबन्ध में जो तुलसीदास पर लिखा गया था,तथा शुक्ल जी पर पहले निबन्ध में ही प्रौढ़ता और कसावट दिखाई देता है।इस तरह के और कई टिप्पणियां हैं। इसी तरह पुस्तक में पचास-साठ के दशक के कई बहसों और गोष्ठियों के रिपोर्ट और विवरण दिए गए हैं जिनसे नामवर जी के दृष्टिकोण के साथ-साथ अन्य लेखकों के विचारों का भी पता चलता है।
इस  तरह यायवर जी के इस किताब से नामवर जी के व्यक्तित्व एवं उनके रचनात्मकता को समझने में पर्याप्त मदद मिलती है ।लेखक ने विवेचना के अलावा पुरानी पत्रिकाओं एवं फाइलों से सामाग्री जुटाने में यथेष्ट श्रम किया है।
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*  'कविता के नए प्रतिमान' से नामवर जी की उद्धृत टिप्पणी के लिए देखें दूसरे संस्करण की भूमिका
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पुस्तक- नामवर होने का अर्थ
लेखक- भारत यायावर
प्रकाशन- किताबघर, दिल्ली
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#अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छ. ग.)
  मो. 9893728320

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