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शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2020

कवि की पीड़ा

रीझे यादव

          हमारे कस्बे में एक कवि हैं सूर्यकांत"सुकून"! लेकिन नाम के अनुरूप उनका व्यक्तित्व नहीं है।ना तो सूरज के जैसा तेज उनके चेहरे में है और ना ही  उनकी लेखनी में आग लगाने की क्षमता। ।मैं उसे कस्बे का ही कवि समझता हूं पर वे अपने आपको हमारे अंचल के नामचीन कवि होने के गर्व से गर्वित महसूस करते हैं।
            आज अचानक रास्ते में उनसे मुलाकात हो गई।उनके मुखमुद्रा से व्यग्रता झलक रही थी जो उनके साहित्यिक तखल्लुस"सुकून"को झूठा साबित कर रही थी।वैसे मैंने उनको जब भी देखा है परेशान-हलाकान ही देखा है।पता नहीं किस साहित्यिक समिति ने या साहित्यकार ने उनको"सुकून"उपनाम से नवाजा है। भगवान जाने!!
          वैसे उपनाम रखने का रिवाज रहा है शायद साहित्य जगत में।निराला,हरिऔध,सुमन,नीरज आदि साहित्यिक उपनाम वाले साहित्यकार आज भी साहित्य के आकाश में दैदीप्यमान नक्षत्र की तरह जगमगा रहे हैं।कुछ लोगों ने अपने नगर को ही अपना उपनाम बना रखा है,जैसे-काका हाथरसी,वसीम बरेलवी आदि। मुझे लगता है कि जब कविता में भाव हुआ करती थी तब प्रकृति पर आधारित उपनाम रखा जाता था।जब से कविता में भाव खत्म हुआ है तब से साहित्यकारों में मनोभाव को उपनाम रखने का चलन बढ़ा ।उग्र,बेचैन,सुकून,निराश,अकेला,थकेला और ना जाने क्या-क्या? अजीबोगरीब तखल्लुस!!!प्रकृति की सौगातों वाले उपनाम से लेकर आज गाली गलौज वाले उपनाम तक रखने लगे हैं कुछ कलमकार।
          खैर, मुद्दे पर आते हैं।जैसे ही मैंने सुकून जी को देखा मुझे अपना चैन-सुकून में खलल पड़ता महसूस हुआ,पर क्या करते? पहचान के आदमी हैं तो उनसे बिना दुआ सलाम के आगे भी नहीं बढ़ा जा सकता था।
अभिवादन के बाद मैंने उनसे पूछा-और कविराज क्या हाल है?लाकडाऊन में तो आपको कविता लिखने को पर्याप्त समय मिला होगा।
          उन्होंने सहमति में सिर हिलाते हुए जवाब दिया-हां भाई।खूब लिखा।इतना लिखा-इतना लिखा कि कलम टें बोल गई।अब लिखे हुए को किसी को सुनाना चाहता हूं तो कोई मिल नहीं रहा।सरकार ने सोशल डिस्टेंसिंग के नाम पर बेड़ा गर्क कर रखा है। भीड़ ना करने के नाम पर साहित्यिक आयोजनों पर रोक लगी है जबकि मधुशाला में लोग दारू के लिए गुत्थम-गुत्था हुए जा रहे हैं।सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ रही है।
          उनकी तकलीफ को समझकर मैंने उनको सलाह दिया-घर में बच्चों को,भाभीजी को या नहीं तो पड़ोसियों को अपना शिकार बनाया करो।मतलब सुनाया करो।
          मेरी बात सुनकर सुकून जी ने अताउल्लाह खान वाली दर्दभरी आवाज में बताया-बच्चे को कुछ सुनाने के लिए जैसे ही मुंह खोलता हूं।बच्चे कान में ईयरफोन लगा लेते हैं।श्रीमती को सुनाने का प्रयास करता हूं तो वो मेरा हुक्का-पानी बंद करने की धमकी देती है।पडोसी मुझे देखकर ऐसे बिदकते हैं मानो मैं ही चलता-फिरता कोरोना वायरस हूं।
          उनकी मन की व्यथा समझकर मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा-तब तो एक ही उपाय है सुकून जी।आप आनलाईन कवि सम्मेलन में भाग लिजिए।
          अंधा क्या चाहे?दो आंख!!उनको तो जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई।वो मुझे संतोषी माता के व्रत विधि की तरह आनलाईन कवि सम्मेलन की प्रक्रिया पूछने लगे।
          मैंने उनको पूरी प्रक्रिया बताई और उनको एक आनलाईन कवि सम्मेलन के ग्रुप से जुडवा दिया।सुकून जी मोहक मुख मुद्रा के साथ मुझसे विदा लेकर सुकून के साथ चले गए।सुना है अब उनका आनलाईन कवि सम्मेलन जोरों से चल रहा है।उनके पास थोक मात्रा में आनलाईन प्रमाणपत्र की भरमार है।पर एक दुखद खबर भी मिली कि आनलाईन रहने के लिए नेटपैक भराने के चक्कर में उन्होंने अपनी साइकिल बेच दी है और अब पैदल ही रास्ता नापते हैं,मतलब आवागमन करते हैं।


रीझे यादव
टेंगनाबासा(छुरा)

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