डॉ: सीमा शर्मा
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सीमा शर्मा |

बेगम समरू के अद्भुत और बहुआयामी चरित्र का परिचय उसके हर एक क्रिया - कलाप से मिलता है। उसने न केवल पचास वर्ष लम्बे समय तक सरधना की रियासत शासन किया वरन उसका जीवन भी अत्यंत उतार.चढ़ावों से भरा रहा। फरज़ाना से बेग़म समरू और जोआना नोबलिस से लेकर जेब - उन - निसा तक का उसका सफर आसान नहीं था।
पन्द्रह.सोलह वर्ष की एक किशोरी जिस परिवेश में थीए उसका व्यक्तित्व उन परिस्थितियों से बहुत अलग था जैसे वह जानती हो कि उसे भविष्य में कहाँ जाना है । उसके पैरों में भले घुंघरू हों लेकिन लक्ष्य कुछ और था। इसीलिए अल्पायु में ही गीत.संगीत के अतिरिक्त इतिहास, राजनीति और कूटनीति में रूचि और इनकी समझ, फरजाना के भविष्य को एक नई दिशा देती है। कम उम्र की फरज़ाना का ज्ञान तो अद्भुत था ही , विभिन्न विषयों में उसकी जिज्ञासा भी चकित करती थी। ख़ासतौर पर सैन्य और सामरिक गतिविधियों जैसे रूखे विषयों पर। वह हमेशा सौम्ब्रे के अभियानों के बारे में भी समझने और विस्तृत चर्चा करने को उत्साहित रहती।
इस उपन्यास में सन् 1767 ईस्वी से 1862 तक के कालखंड को समेटा गया है और एक ऐतिहासिक चरित्र के बहाने , उत्तर भारत में लंबे समय की राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक उथल - पुथल को बहुत बारीकी से देखा जा सकता है । इस संदर्भ में पुस्तक का यह अंश दृष्टव्य है ' इस दरकती.टूटती दुनिया में अब तक पारंगत अंग्रेज, पुर्तगाली और फ्रेंच सैनिक - कुछ लड़ाकाओं और कुछ व्यापारियों के वेश में पहले ही यहाँ दाखिल हो चुके थे। ईस्ट इंडिया कंपनी के लोग भारत में अपने पैर जमा चुके थे , पर अब युद्ध.कौशल और सामरिक व्यूह.रचना में भी उन्होंने दखल दिया। उन्होंने जमींदारों - रियासतदारों के लिए भाड़े की सेनाओं की सेवाएं देनी शुरू कर दीं। रियासतदारों को क्या चाहिए - आराम। उन्हें नहीं मालूम की उनकी यह लापरवाही और आरामतलबी के ऊपर भाड़े की अंग्रेज और फ्रेंच टुकड़ियों की रणनीति भारी पड़ने वाली हैए इतनी भारी कि वह मालिक बन बैठेंगे और यह आज के जागीरदार उनका हुक्म बजाया करेंगे। ' पृ. 0
सन् 1767 ईस्वी में दिल्ली के चावड़ी बाज़ार की उस विशेष हवेली जिसमें ' फरज़ाना' रही या कहें रहने को विवश थीए का चित्रण लेखक ने बड़ी सजीवता से किया है। फिर चाहे वह कोठे की साज.सज्जा हो या फरज़ाना की अदाएँ और सूझ- बूझ या जिन पर जर्मन योद्धा ' वाल्टर रेनहार्ट सौम्ब्रे ' मर.मिटा था। यहाँ फरज़ाना के चरित्र को उभरने के लिए लेखक ने जिन उर्दू एवं हिंदी की काव्य पंक्तियों का सहारा लिया है वे इसे यथार्थ रूप प्रदान करने में सहयोगी बन जाती हैं। रेन्हार्ट सौंब्रे और फरज़ाना का साथ कुल 13 वर्ष का रहा । 4 मई सन 1778 में रेन्हार्ट सौंब्रे की मृत्यु के समय फरजाना मात्र 28 वर्ष की थी । इस घटना ने उसे बड़ा आघात पहुंचाया और 40 दिन तक उसने पूर्णतया मातम मनाया , लेकिन 41 वें दिन बेगम ने जागीर की कमान पूरी तरह से अपने हाथ में ले ली और अपनी इस चुनौतीपूर्ण भूमिका का बखूबी निर्वाह किया।
रेन्हार्ट सौंब्रे मृत्यु के ठीक 3 साल 3 दिन बाद 7 मई 1781 को बेगम ने आगरा की रोमन कैथोलिक चर्च में ईसाई धर्म अपना लिया और ' जोहाना नोबिलिस ' बन गई । बेगम के ईसाई धर्म अपनाने के पीछे भी कई कारण बताए जाते हैं जिनमें से कुछ व्यक्तिगत तो कुछ राजनीतिक थे । बेगम समरू का चरित्र किसी रहस्य की तरह है जिसे लोगों ने अपनी अपनी तरह से चित्रित करने का प्रयास किया है लेकिन इससे बेगम का सही स्वरूप सामने नहीं आ पाता। अधिकांश लेखकों ने इसे एक विशेष पूर्वाग्रह पूर्ण दृष्टि से देखने का प्रयास किया, जैसा की साधारणतया स्त्रियों के साथ होता है। उनकी समस्त प्रतिभा को धता बताकर एउनके चरित्र को लांछित कर दिया गया। जबकि राज गोपाल सिंह वर्मा ने इस ऐतिहासिक चरित्र को बिना किसी पूर्वाग्रह के एतथ्यों के आधार पर वास्तविक रूप में चित्रित करने का प्रयास किया है। फिर चाहे बेगम समरू के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाएं हों या उसके पति रेन्हार्ट सौंब्रे की मृत्यु के बाद बेगम की ' ली वासे ' और ' जॉर्ज थॉमस ' से निकटता तथा ' ली वासे ' का आत्महत्या करना और बेगम द्वारा आत्महत्या का असफल प्रयास जैसी कितनी ही घटनाएं इस क्रम में घटती हैं, जिन्हें लेखक ने सूक्ष्मता व संवेदना के साथ अंकित किया है।
राजगोपाल सिंह वर्मा ने पुस्तक भूमिका और परिशिष्ट में बार.बार इस ओर संकेत किया है कि इतिहास में बेगम समरू का मूल्यांकन उस रूप में नहीं हो सका जिस रूप में होना चाहिए था । मुगलकालीन इतिहास में 18वीं सदी के उत्तरार्ध के इस मुख्य चरित्र की व्यापक अनदेखी की गई है। लेखक ने विभिन्न लेखकों की पुस्तकों का संदर्भ देते हुए अपनी बात को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। राजगोपाल सिंह वर्मा ने बेगम समरू के चरित्र को एक योद्धा के रूप में देखा और परखा है, जो अपनी रियासत का नेतृत्व इतनी अच्छी तरह से कर सकती है कि अच्छे - अच्छे शहंशाह भी शर्मिंदा हो जाएं, उसे कई मोर्चों पर लड़ना था , अपने स्त्रीत्व का सम्मान करना, युद्ध की रणनीतियों में घुसपैठ करना, मुस्लिम से कैथोलिक ईसाई बनना, भारतीय होकर जर्मन और फ्रेंच लड़ाकों से प्रेम और विवाह. संबंधों में बंधना, जनहितकारी कामों को अंजाम देना, अपनी रियासत के एक - एक काम पर निगाह रखना। सब अद्भुत था। वह बचपन में घोर निर्धनता में थी, पर मृत्यु के समय बेशुमार दौलत की स्वामिनी बनी। फिर भी, सिद्धांतों की पक्की थी। कोई लालच नहीं था । मदद करती थी, पर समयानुसार सख्त प्रशासक भी थी । वह अपनी स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखने के लिए हरसंभव रणनीति का उपयोग कर सकती थी। बेगम ने भारत का सबसे बड़ा कैथेड्रल सरधना में बनवाया था। उसी बेगम ने दो बार मुगल सम्राट शाह आलम की जान को अपने प्राणों की परवाह न करते हुए बचाया था य जबकि अगर वह चाहती तो उस समय की परिस्थितियों का लाभ उठाकर मुग़ल सल्तनत की सर्वे.सर्वा बनकर देश में राज कर सकती थी ।जब बेगम समरू की मृत्यु हुई तब वह अपनी सामरिक क्षमता उदारता प्रशासनिक योग्यता और धार्मिक सहिष्णुता के लिए दूर.दूर तक जानी जाती थी। पृ 64
बेगम समरू के चरित्र को लेखक ने जिस रूप में देखा, समझा और रचा है, उसे इन पंक्तियों के माध्यम से जाना जा सकता है। बेगम समरू अपने समय के पतनोन्मुख काल की सर्वाधिक दुर्जेय महिला थी। उसने अपने जीवन को बेहतर ढंग और बुद्धिमत्ता से जिया। उसका प्रशासन सौम्य और ईमानदार था। जमीनों की बेहतर देखभाल से फसलों की पैदावार उत्कृष्ट थी। उनकी प्रजा इतनी समृद्ध थी , जितनी कि तत्कालीन भारत की किसी अन्य रियासत की हो सकती थी। उसकी उदारता के चर्चे आम थे। उसने जो ठान लिया। वो किया, चाहे वो महलों का निर्माण हो, चर्चों को बनवाने का विषय हो या जनता के लिए पुल एवं अन्य उपयोगी इमारतों का निर्माण हो और ऐसे जनहितकारी कामों को पूरा करना हो, जिनके संबंध में उस समय सोचना भी अकल्पनीय था। पृ. 230
वर्षों के शोध के बाद लिखा गया यह जीवनीपरक ऐतिहासिक उपन्यास एक पठनीय कृति है। इसमें इतिहास की शुष्कता न होकर इतिहास और कल्पना का संतुलित समन्वय है। तथ्यों से बिना छेड़छाड़ किये टूटी हुई कड़ियों को कल्पना के सहारे जोड़ा गया है। जिससे यह कृति सरस और सुरुचिपूर्ण बन गयी है। इस कृति के पाठ से समझ आता है कि एक बेबस बालिका का कोठे तक पहुँचना और नर्तकी बनना उसकी नियति हो सकती है लेकिन कोठे से निकलना, अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाना तथा पचास वर्षों तक सरधना की रियासत पर राज करना कोई आसान कार्य नहीं था। यह उसके अदम्य साहस और बुद्धिमत्ता से ही संभव हो सका था। बेगम समरू जैसे सशक्त चरित्र को इतिहास में जो स्थान मिलाना चाहिए वह नहीं मिल सका। ऐसी स्थिति में यह उपन्यास और भी आवश्यक हो जाता है , जो न केवल बेगम समरू जैसे महत्त्वपूर्ण चरित्र को पाठकों के समक्ष लाता है वरन तत्कालीन सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य को भी उजागर करता है। लेखक ने इस उपन्यास में इतिहास के कई छुपे हुए रहस्य को उद्घाटित करने का प्रयास किया हैए इसी क्रम में रेन्हार्ट सौंब्रे के जीवन से जुड़े कई मिथकों को तोड़ा है तथा बेगम समरू के चरित्र के कई आयामों को यथार्थ रूप में सामने लाने का कार्य किया है ।
इस कृति में कुछ अन्य ऐसी विशेषताएं हैं जिन्होंने मुझे प्रभावित किया जैसे - इसका अनुक्रम। अनुक्रम इतना स्पष्ट है कि किसी कारण पुस्तक को पढ़ने का क्रम यदि टूट जाये तो भी , पुनः पाठन में कठिनाई नहीं होती। 270 पृष्ठ की पुस्तक में आपने अब तक क्या पढ़ा है , आप अनुक्रम से ही जान सकते हैं। इसी प्रकार प्रस्तावना के रूप में लिखा गया शम्भूदयाल शुक्ल का आलेख ' पुस्तक की भूमिका और परिशिष्ट तथा घटना क्रम आदि ने मिलकर इस कृति और अधिक पठनीय बना दिया है।
पुस्तक - बेगम समरू का सच
लेखक - राजगोपाल सिंह वर्मा
प्रकाशक - संवाद प्रकाशन मेरठ
पृष्ठ - 272 - पेपर बैक संस्करण
मूल्य.300 रुपये
समीक्षक : डॉ. सीमा शर्मा
स् 235, शास्त्रीनगर, मेरठ, पिन .250004
ईमेल sseema561@gmail.com
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