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गुरुवार, 23 जुलाई 2020

दो मंदिरों की कहानी

प्रेमकुमार मणि

        अयोध्या का राम मंदिर और तिरुअनंतपुरम का पद्मनाभस्वामी मंदिर अलग.अलग कारणों से पिछले हप्ते समाचारों की सुर्ख़ियों में रहे हैं। यह भारत में ही संभव है कि महामारी के इस भयावह काल में भी हम स्वास्थ्य सेवाओं और मानव जीवन से अधिक मंदिरों की चिंता में डूबे हैं। भारत की कार्यपालिका और न्यायपालिका के केंद्र में फिलहाल ये मंदिर ही हैं।
        अयोध्या में आगामी 5 अगस्त को एयानि इन पंक्तियों के लिखे जाने से बस पन्द्रहवें रोज,  राम जन्मभूमि मंदिर का शिलान्यास होने की खबर है और यह शिलान्यास या कार्यारम्भ कोई पुरोहित नहीं, भारत के प्रधानमंत्री द्वारा किया जायेगा। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने औद्योगिक कारख़ानों को ही नए भारत का मंदिर .मस्जिद माना था। वह इसके विस्तार पर रात - दिन जोर दे रहे थे। वर्तमान प्रधानमंत्री को मंदिर निर्माण की फ़िक्र है।
        लेकिन इस मंदिर को लेकर कुछ और ख़बरें हैं, आज ही भारत के सर्वोच्च न्यायालय में इस मंदिर के स्थान को लेकर एक याचिका को मुंह की खानी पड़ी। उड़ती खबरों में मैंने सुना है कि जिन लोगों ने इस मंदिर पर अपने दावे को लेकर याचिका दायर की थी,  उन्हें लाखों रुपये का जुर्माना भी किया गया है। दरअसल यह याचिका बौद्ध धर्म से जुड़े कुछ लोगों और संस्थाओं द्वारा दायर की गई थी।
          न्यायपालिका, वह भी सर्वोच्च न्यायलय के फ़ैसलों को कोई भी इज़्ज़त करना चाहेगाय लेकिन ये कोर्ट .कचहरियां ही जब अपनी मर्यादा का आकलन नहीं कर रही हैं, तब देश में लोकतंत्र को कौन बचाएगा। सुप्रीम कोर्ट के एक निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश आज सत्ताधारी दल के सदस्य हैं। उन्हें तोहफ़ा में राज्यसभा की सदस्यता मिली है। अब तो हर जज की ख़्वाहिश होगी कि रिटायरमेंट के बाद कुछ हासिल हो। हिन्दू परंपरा में मृत्यु बाद स्वर्ग में जगह पाने के लिए हर हिन्दू कुछ '' पुण्य '' करता है, अब जज यदि रिटायरमेंट बाद सत्ता में जगह के लिए कुछ '' पुण्य '' करते हैं , तो यह हिन्दू .संस्कृति का हिस्सा माना जाना चाहिए।
          बौद्ध याचिकाकर्ताओं के दावे इतिहास के तथ्यों पर आधारित थे। उनका कहना था यह अयोध्या प्राचीन साकेत है, जो कोसल महाजनपद का मुख्य नगर था। बुद्ध की यह प्रिय स्थली थी। वहां का तत्कालीन राजा प्रसेनजित बुद्धानुयायी था। उसी के प्रसिद्ध श्रावस्ती जेतवन विहार में बुद्ध बहुत समय तक रहे थे। लम्बे समय तक साकेत प्रसिद्ध बौद्ध स्थल था। ईसा की पहली सदी में,  इसी साकेत का प्रसिद्ध बौद्ध कवि अश्वघोष था। जिसकी सुप्रसिद्ध कृति '' बुद्धचरित '' है। इन सब में कहीं राम.मंदिर की चर्चा नहीं है। 
            चीनी यात्री फक्सिऑन अथवा फाहियान  337.442 ई  ने 399 से 412 ईस्वी सन तक भारत की यात्रा की थी। उसके यात्रा - वृतांत में साकेत की विस्तृत चर्चा है। उसके अनुसार साकेत एक बड़ा बौद्ध केंद्र था। जहाँ एक सौ बौद्ध स्तूप थे। राजनीतिक तौर पर यह समय गुप्त - काल था और उस वक्त उत्तरी भारत में चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का शासन था। 
           इससे यह प्रमाणित है कि साकेत कम से कम पाँचवीं ईस्वी सदी के पूर्वार्ध तक अयोध्या नहीं बना था। और न ही यहाँ उस समय तक कोई राम मंदिर था। यदि होता तो फक्सिऑन ( faxian ) इसकी चर्चा करता। इतिहास के छात्र जानते हैं कि एक लम्बे समय तक बौद्ध और ब्राह्मण धर्म के बीच साँप.नेवले जैसी लड़ाई चली। यह भी तथ्य है कि मध्य काल आते.आते बाह्य आक्रमणकारियों और तुर्क धर्मावलम्बियों के साथ मिल कर ब्राह्मण धर्म के लोगों ने बौद्धों का समूल नाश सुनिश्चित कर दिया। पुष्यमित्र शुंग के ज़माने से शुरू हुई यह लड़ाई नालंदा.विक्रमशिला के पतन पर आकर थमी।
          लेकिन जजों को इन सब से क्या मतलब, सरकार को ध्यान में रख कर जब न्याय होगा। तब यही होगा। सर्वोच्च न्यायालय को आत्मचिंतन करना चाहिए। क्या वह न्याय को लेकर जनता में भय की स्थिति बनाना चाहता है कि लोग न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाने के पूर्व जुर्माने का भय खाएं। यह अत्यंत भयावह बात है। विनम्र रूप में प्रबुद्ध नागरिकों से इस पर सोचने की गुज़ारिश करना चाहूँगा।
          सुप्रीम कोर्ट का दूसरा फैसला कुछ रोज पहले 13 जुलाई को आया है। यह केरल के पद्मनाभस्वामी मंदिर को लेकर है। केरल की राजधानी तिरुअनंतपुरम में पद्मनाभस्वामी का एक ऐसा मंदिर है जिसके खजाने में अकूत दौलत है। शायद रिजर्ब बैंक से अधिक कुछ समय पूर्व उसके खजाने से लगभग आठ मि्ंटल खरा सोना ( गोल्ड ) गायब हो गया और किसी को कुछ पता भी नहीं चला। कोर्ट की देख रेख में कुछ वर्ष पूर्व उसके खजानों का मुआयना किया गया। मुख्य खजाने को नहीं देखा गया। उसके पहले के खजानों में ही दो लाख करोड़ के गोल्ड मिलेण् अन्य हीरे - जवाहरातों की कीमत का अनुमान नहीं लगाया जा सका।
          केरल के यादव ( अहीर ) राजाओं द्वारा निर्मित यह मंदिर त्रावणकोर राज परिवार की देख.रेख में था। 1949 में त्रावणकोर रियासत का भारतीय संघ में विलय हो गयाण् इस मंदिर के देख.रेख की ज़िम्मेदारी तत्कालीन राजा बलराम वर्मा के पास थी, लेकिन 1971 में इंदिरा गाँधी सरकार ने संविधान में छब्बीसवाँ संशोधन किया और पूर्व राजाओं के पेंशन और तमाम अन्य अधिकार समाप्त कर दिए गए।
           लेकिन पारंपरिक रूप से चल रहाए मंदिर पर राज .परिवार का अधिकारए कायम रहा। दरअसल इसकी बारीकियों पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। 1991 में बलराम वर्मा की मृत्यु हो गयीण् तब भी इस पर ध्यान नहीं दिया गया।  2007 में एक पूर्व आईपीएस अधिकारी ने केरल हाई कोर्ट में एक याचिका दायर करते हुए अनुरोध किया कि राज परिवार के अधिकार को निरस्त करते हुए प्रबंधन की ज़िम्मेदारी केरल सरकार के हाथ में दी जाय, क्योंकि संविधान के छब्बीसवें संशोधन के अनुसार पूर्व राजाओं के तमाम विशेषाधिकार निरस्त कर दिए गए है। इस की सुनवाई हुई और केरल हाई कोर्ट ने 31 जनवरी 2011 को फैसला दिया कि पूर्व राज परिवार को प्रबंधन से अलग किया जाता है, क्योंकि उनके पास अब कोई राजकीय विशेषधिकार नहीं हैं। इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी और पिछले 13 जुलाई 2020 को सर्वोच्च न्यायालय ने हाई कोर्ट के फैसले को निरस्त करते हुए पूर्व राज परिवार को प्रबंधन की ज़िम्मेदारी पुनः दे दी। 
          यह क्या है,  सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर टिप्पणी करना गुनाह है, लेकिन मुल्क की जनता,  ख़ास कर प्रबुद्ध नागरिकों से अपील तो कर ही सकता हूँ कि यह हो क्या रहा है। आपका देश किधर जा रहा है। क्या भारत में राज तंत्र फिर बहाल किये जायेंगे़ । आरएसएस का प्रस्तावित हिन्दू .राष्ट्र क्या पुरोहितवाद और राज तंत्र की सीढ़ियों पर चढ़ कर ही आएगा। क्या ये तमाम फैसले, तमाम कार्यवाहियां हमें उसी तरफ ले जा रही हैं। क्या संविधान के साथ हर स्तर पर तोड़ .मरोड़ की हरकतें हमें उस लोकतंत्र से दूर ले जा रही हैं। जिसे बहुत मुश्किल से गांधी.नेहरू और संविधान सभा ने हासिल किया था। कुल मिला कर यह कि क्या हम लोकताँत्रिक भारत से अपनी ही विदाई की तैयारी कर रहे हैं।
          हिंदी कथाकार प्रेमकुमार मणि 1970 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नौजवान सभा में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बने। छात्र.राजनीति में हिस्सेदारी। बौद्ध धर्म से प्रभावित। भिक्षु जगदीश कश्यप के सान्निध्य में नव नालंदा महाविहार में रहकर बौद्ध धर्म दर्शन का अनौपचारिक अध्ययन। 1071 में एक किताब '' मनु स्मृति '' एक प्रतिक्रिया ( भूमिका जगदीश काश्यप ) प्रकाशित। '' दिनमान '' से पत्रकारिता की शुरुआत। अब तक चार कहानी संकलन, एक उपन्यास ,  दो निबंध संकलन और जोतिबा फुले की जीवनी प्रकाशित। प्रतिनिधि कथा लेखक के रूप श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार 1993, समेत अनेक पुरस्कार प्राप्त। बिहार विधान परिषद् के सदस्य भी रहे।

मोबाइल ¸91 9431662211

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