''डोम कच , नकटा या नकटौरा नाटक शब्द का ही अपभ्रंश रहा होगा ,कालान्तर में जिसे उच्चारण की सुविधा की दृष्टि से ''नकटा' या नकटौरा ''कहा जाने लगा. लोक नाट्य की यह परम्परा जब ''डोम कच'' के नाम से जानी गयी तो इसका अभिप्राय यही था की पूर्व में संभ्रांत घरों की महिलायें सार्वजनिक टूर पर समाज के सामने नहीं आ पाती थीं .और नाटक, नृत्य आदि में उनका भाग लेना सामाजिक लोक लाज की दृष्टि से वर्जित था ,अत; जाट जाटिन,धोबिन, ,या डोम डोमिन के द्वारा ही इस इस नाटक को अभिनीत किये जाने की परम्परा का निर्वाह किया जाता रहा होगा. जिस प्रकार की उन्मुक्तता और बिंदास पन उन गीतों में प्रस्तुत किया जाता है, वह संभ्रांत महिलायें उतनी सहजता से प्रस्तुत नहीं कर पाती होंगी, .......पर आज समय बदल गया है. आज तो पढी लिखी महिलायें भी बढ़ चढ़ कर इस गीत, नाटक में हिस्सा लेती हैं, ...शायद इसी बहाने सास ननदों पर कटूक्तियां कर अपने मन का सारा तनाव भी धो पोंछ कर बहा डालती हैं. -----''ये जी, सासू के बोलिया कैसन लागेला, जैसे हरियर मिरिचिया तितैया लागेला''[हे सखी, सासू का ताना मारना तुझे कैसा लगता है?.सखी उत्तर देती है-जैसे हरी मिर्च का तीखा स्वाद'' गीतों में वार्तालाप ,छेड़छाड़, नोक झोंक से भरा यह नाटक बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, का लोकप्रिय, एवं प्रचलित ,अनिवार्य परम्परा है. ,यह रंग कर्म का वह पक्ष है जिसमे आवश्यकतानुसार पात्रों की संख्या घटाई, बढ़ाई जा सकती है.संवाद जोड़े जा सकते हैं, और इसमें सिर्फ महिलायें ही भाग ले सकती हैं. ऐसा भी कहा जा सकता है की पुरुषों की अनुपस्थिति मेंमहिलायें अपनी शक्ति और रुतबे का प्रदर्शन कर पुरुषोचित आचरण करती हैं ,स्वांग भरती हैं, वैसी ही वेश भूषा में सज धज कर तैयार होती हैं. या यो कहें की एक रात की सत्ता का वैभव प्रदर्शित कर राजसी सुख का अनुभव करती हैंइस नाटक में दूल्हा दुल्हन से लेकर पंडित, वैद तक सारी भूमिकाएं महिलायें ही निभाती हैं. पुरुष वेश धारण कर...विवाह होता है ,पंडित आते हैं और विवाह की सारी रस्मे दोहराई जाती हैं. ..हास परिहास के साथ. इसी बीच वर की माँ विवाह मंडप में सुहाग चुनरी ओढ़ कर घूँघट निकाले, ..एक अखंड दीप जला कर चुपचाप बैठी रहती है. जिसमे दो बातियाँ जलाई जाती हैं, कहते हैं जब विवाह समपन्न हो जाता है तब जलते जलते दोनों बातियाँ एकाकार हो जाती हैं,अर्थात वधू पक्ष के घर विवाह संपन्न हो गयाऔर आगे का जीवन मंगलमय रहेगा.फिर महिलायें खुल कर हास परिहास करती हुई मंडप के चारो और गोल घेरे में घूमती हुई गीत गाती हैं जिसे ''झूमर'' कहते हैं. उन्मुक्तता इतनी की शारीरिक अंगो का उल्लेख कर एक दुसरे को छेड़ती हैं.और तरहतरह रोचक गीत गाकर केवातावरण में उत्साह व् रस घोल देती हैं. ----''काला रे बालम मोरा काला,ससुर लाये बुढ़िया, जेठ लाये जवानी, काला लाया रे सौत बारह बरस की ''-----फिर दूल्हा दुल्हन का चुमावन होता है.इसके पूर्व एक चारापाए के पाए को या लकड़ी के पाते को गीले आटे को थाप कर सिर का आकार दिया जाता है, इसमे नाक, मुंह बनाकरबच्चे की तरह कपडे पहनाकर कहीं छुपा दिया जाता है ताकि आने वाली वधू उसे देख न सके. इसे ''जलुवा'' कहते हैं. कुछ हास परिहास के बाद दुल्हन गर्भवती हो जाती है.और इस जलुवे को ही पुत्र रुपमे जन्म दिलवाया जाता है. जलुवा की नाक, आँख बनाते समय भी महिलाए नाटकीय भाव भंगिमा से समझाती हैं की इसकी नाक लम्बी है, बहू लम्बी नाक वाली आयेगी, इसकी आँखें छोटी हैं बहू कानी आयेगी.गर्भवती महिला सासू, देवर, ननद ,जेठानी आदि से गर्भावस्था के दौरान तरह तरह की फरमाईश करती है,यह भी गाकर ही नाटक में व्यक्त किया जाता है ,वह कुछ मांगती है और पीछे से सारी महिलायें ''वाह वाह जी वाह वह ''कहती हुई ताल देती रहती हैं. ----
''ए बालम ,बनारस जैबे''--वाह वाह जी वाह वाह ''
बनारस के साड़ी लैबे''--वाह वाह जी वाह वाह ''
ए बलम, जलेबी खइबाइ-वाह वाह जी वाह वाह '
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