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रविवार, 12 जनवरी 2020

कुमार गिरिजेश की रचनाएं

कुमार गिरिजेश
 
 
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1】।।हँसी।।

मरना अगर उपहास का विषय है तुम्हारे लिए

तो जाओ हँसों 

अपनी पूरी हँसी निचोड़ दो

सीरिया में बहुत सी लाशें

तुम्हारे हँसने का इन्तेजार कर रही हैं

अगर तुम बहुत दूर नहीं जा सकते

तो चले जाओ अपने आसपास के किसी सरकारी अस्पताल में

जहाँ मरने के बाद मुर्दाघर में पड़ी रहती हैं

अपनों के आने के इंतेज़ार में लावारिश लाशें

तुम और भी हँसना चाहते हो तो

गोरखपुर और मुजफ़्फ़रपुर जा सकते हो

कोटा और अहमदाबाद भी बहुत दूर नहीं है

मासूम बच्चों ने जहाँ हवा और दवा न मिलने से 

त्याग दी थी अपनी निश्छल हँसी

बटोर लो अपने लिए वो सारी हँसी 

जो बच गयी है बच्चों के हँसे जाने से

मैं जानता हूँ मरना तुम्हरे लिए उपहास ही है

इसलिए हर मौत पर तुम एक मौका तलाशते हो

मगर एक बात समझ लो 

ये जितने भी लोग हैं जो मर गए हैं 

या फिर मार दिए गए हैं 

तुम्हरी हँसी को जिंदा रखने के लिए 

तुम्हारे मरने पर

इनमें से किसी को भी हँसी नहीं आएगी !


【2】।।लिंचिंग।।

लिंचिंग सिर्फ़ वो नहीं है

जब किसी को बीच सड़क पर

जाति-धर्म, खान-पान 

रहन-सहन और पहनावे

को आधार बना कर

या फिर सोशल मीडिया से

हिंसा के हथियार उठाकर

भीड़तंत्र के द्वारा 

रौंद दी जाए किसी की अस्मिता

कुचल दिए जाए भविष्य के सपने

या फिर सीधे सीधे 

मार दिया जाए किसी को जान से

लिंचिंग वो भी है

जब पूरी व्यवस्था मिलकर

दिन दहाड़े, सबके सामने

क़त्ल कर दे कानून का!


【3】।। आत्महत्या से पहले ।।

आत्महत्या से पहले

मरती है वो उम्मीद

जो जीने की संभावना 

ख़त्म कर देती है

कितनी ही बार मरता है कोई

आत्महत्या से पहले

बार-बार मरने की थकान

कर देती है मजबूर

आत्महत्या करने को

पर क्या वो मार पाता है

अपनी समास्याओं को

क्या वो दे पाता है

अपनी मौत से

किसी को ज़िन्दगी ?

शायद हाँ !

आत्महत्या करके 

दे जाता है वो

नेताओं को मौका

राजनीति की रोटियाँ 

सेंकने का मौका

अपनी चिता पर 

पर दुःखद है 

किसी का यूँ

आत्महत्या से पहले मर जाना 


【4】।। नींद और कुत्ता।।

कल रात मेरी नींद को 

एक कुत्ता काट गया

और भौंकते हुए ये कह गया 

हमसे भी नहीं सीखते कुछ

मुसीबत की आहट आते ही

एक के भौंकने की आवाज से 

सभी शुरू कर देते हैं भौंकना

आवाज़ एक समूह बन जाती है

मुसीबत दूर से ही डरते हुए चुपचाप

निकल जाती है दूसरी गली में !

और तुम हो कि फर्क नहीं पड़ता तुम पर

तुम्हारे आसपास इतना कुछ घटित हो रहा

फिर भी इन सबसे तटस्थ होकर

बेधड़क सोए हो तुम नींद में ?



 【5】॥हाँ मैं बारिश में छींट देता हूँ॥

हाँ मैं बारिश में छींट देता हूँ 

अपने तमाम शब्द जरई की तरह

ताकि फूट सके नए-नए अर्थ रोपनी के बाद

भावनाओं से लबालब भरी गड़ही में

नंगे पाँव उतरकर कई बार मैंने

महसूस किया है विचारों का कीचड़

जो घुटनों तक जकड़ लेता है

और रोक देता है मेरी सारी गति

फिर भी हमेशा कोशिश करता हूँ

कविता की नई पौध उठा सके अपना सर 

कीचड़ के भीतर से एकदम तनकर !

हाँ मैं बारिश में छींट देता हूँ

अपने तमाम शब्द जरई की तरह 

ताकि मेड़ पर बैठे बैठे देख सकूँ

मेंढक की टर्र-टर्र पर झूमते हुए

अपने अर्ध शहरी मन को

जो भीतर से अब भी गँवई ही है

केवल मुलम्मा ही चढ़ा है दिखावे का

जड़े अब भी जमीन में दबी हुई हैं

खाद पानी सब कुछ वहीं से तो मिलता है

बाहरी दुनिया में साँस लेने के लिए !

हाँ मैं बारिश में  छींट देता हूँ

अपने तमाम शब्द जरई की तरह

ताकि गंदले पानी में उगी हुई फसल की तरह

मैं भी उगा सकूँ अपना अस्तित्व !
 
परिचय
पता - 111- A  , विकास विहार रोहिणी सेक्टर 22, नई दिल्ली 110086
मोबाइल -8700946957
सम्प्रति- हिंदी शिक्षक, दिल्ली
"रात का सूरज" कविता संग्रह में कविताएँ प्रकाशित,सहित्यनामा और प्रतिबद्ध पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित, प्रतिलिपि,स्टोरी मिरर जैसी कुछ बेबी पत्रिकाओं में भी रचनाएँ प्रकाशित।

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