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शुक्रवार, 20 दिसंबर 2019

द्वन्द्व (कविता)

- व्यग्र पाण्डे 
वाणी जब अंदर-अंदर घुटती है
सच्चाई अपने ही घर में पिटती है
बोल को अपने मुखर करो रे
झूठ के सर पर पैर धरो रे
झूठ के पग नहीं होते हैं
झूठ के 'पर' जरूर होते हैं
झूठ के 'पर' कुतर डालो रे
आस्तिन में सर्प ना पालो रे
झूठ और सर्प दोनो ही डसते हैं
बिना श्रम परघर में बसते हैं
समय रहते दोनों का शमन करो रे
सच कर स्थपित फिर जयकार करो रे
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 गंगापुर सिटी (राजस्थान)

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