आज के रचना

उहो,अब की पास कर गया ( कहानी ), तमस और साम्‍प्रदायिकता ( आलेख ),समाज सुधारक गुरु संत घासीदास ( आलेख)

मंगलवार, 28 मई 2013

खोल न्याय का बंद कपाट

  •  सुरेश सर्वेद
' नीलमणी भवन ' के सामने जीप चरमरा कर रुक गयी. वह भवन वनक्षेत्र पाल हिमांशु का था. जीप से आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो के कई आरक्षक सहित अधीक्षक नित्यानंद नीचे आये. उनकी दृष्टि ने नीलमणी की भव्यता देखी. भव्यता ने स्पष्ट कर दिया कि इसके निर्माण में कम से कम पचास लाख का खर्च आया होगा. विजयानंद का आदेश मिलते ही आरक्षकों ने नीलमणी को घेर लिया. कुछ आरक्षक सहित विजयानंद भीतर गये. उन्होंने भीतर से मुख्य द्वार को भी बंद कर दिया. इस कार्यवाही से भगदड़ मचनी ही थी. आसपास के लोगो का ध्यान इस ओर खींच गया. लोग जिज्ञासा वश नीलमणी भवन के सामने जुट गये. वे आपस में कानाफूंसी करने लगे. भीतर वनक्षेत्रपाल हिमांशु उपस्थित था. विजयानंद ने उसे अपना परिचय पत्र दिखाया. कहा- हमें आपके यहां छापा मारने का अधिकार मिला है. . . ।''
फिर उन्होंने आरक्षकों को छानबीन करने का आदेश दिया. आरक्षक इधर उधर बिखर गये. हिमांशु को पूर्व से पता चल चुका था कि उसके घर छापा पड़ने वाला है. छापे से पूर्व स्वीकृति पत्र लेना पड़ता है. विजयानंद स्वीकृति लेने वनमंडलाधिकारी चन्द्रभान के पास गये वनमंडलाधिकारी चन्द्रभान वनसंरक्षक सीमांत की बैठक में गये थे. विजयानंद को वहां दौड़ना पड़ा । उन्होंने जब वनमण्डलाधिकारी से वनक्षेत्रपाल के घर में छापा मारने की स्वीकृति मांगी तो वनमण्डलाधिकारी ने शंका व्यक्त करते हुए कहा- स्वीकृति देना मेरे अधिकार क्षेत्र में आता है या नहीं मुझे इसकी जानकारी लेने दो तब ही मैं आपका सहयोग कर पाऊंगा.' विजयानंद शंकित हो गये. उन्हें लगा- वनमण्डलाधिकारी वनक्षेत्रपाल को बचाना चाह रहे हैं. उन्होंने कहा- देखिये,यह शासकीय कार्य है. इसमें आपको सहयोग देना चाहिए. आप समय खराब मत करिये. इस बीच यदि हिमांशु अवैध सम्पति का अफरा तफरी करेगा या कहीं भाग जायेगा तो इसकी जिम्मेदारी आप पर आ सकती है.' चन्द्रभान भला क्यों आफत मोल लेते. उन्होंने स्वीकृति दे दी. हिमांशु को अवसर मिल गया था. उसने बहुमूल्य वस्तुओं सहित पांच सौ ग्राम स्वर्णाभूषण कुछ जमीन के कागजात इधर उधर कर दिया. उसे लगा कि अब वह आर्थिक अपराधी के रुप में नही पकड़ा जायेगा. हिमांशु से विजयानंद पूछताछ करने लगे. यद्यपि हिमांशु निश्चिंतता व्यक्त कर रहा था पर उसकी बुद्धि अस्थिर थी. उसे कंपकंपी छूट रही थी. उसने उत्तर दिया- आपको गलत जानकारी मिली है. मेरे पास अवैध सम्पति नहीं है.'
लेकिन हिमांशु का कालाधन पकड़ाता गया. उसके यहां एक करोड़ रुपए की पासबुक मिली . बैंक लाकर से पांच सौ ग्राम स्वर्णाभूषण जप्त हुआ. पचास लाख के जमीन के कागजात पकड़े गये साथ ही नीलमणी भवन तो अवैध सम्पति का साक्ष्य था ही. हिमांशु का अपराध पकड़ा गया. उसके विरुद्ध मामला दर्ज किया गया. उस न्यायालय का न्यायाधीश निर्द्वन्द थे. हिमांशु का प्रकरण दर्ज होते ही उसकी निंदा शुरु हो गयी. अधिकारी मित्र उसकी स्तरीय जीवन पद्धति से जलते थे. उन्हें प्रसन्नता होने लगी. कुछ दिन हिमांशु अधिकारी मित्रों के बीच बैठ नहीं सका. मित्रों से सामना होता तो वे मुस्काते वह भी हिमांशु के लिए असहनीय होता. उसे लगने लगा था कि उनके फंसने से अधिकारी मित्र प्रसन्न है. हां, ऐसा ही होता है. व्यक्ति का जीवन सामान्य रहता है तब तक उस पर ऊंगली नहीं उठती. जैसे ही उस पर कष्ट आया या किसी प्रकरण में फंसा तो वह दुनियाँ का सबसे बड़ा अपराधी बन जाता है. उसकी बदनामी शुरु हो जाती है. यही स्थिति हिमांशु के लिए भी उपस्थित हो रही थी. वह अपने अधिवक्ता पल्लवी से मिल कर आ रहा था कि रास्ते में भाविका मिल गयी. वह नगर निगम में आयुक्त थी. हिमांशु उसे देख कर कटना चाहा मगर आमने सामने हो ही गया.
भाविका ने हिमांशु से कहा- तुम्हारे बारे में सुना तो अच्छा नहीं लगा. मुझे तो लगता है- तुम्हारे किसी परिचित जलनखोर ने ही तुम्हें फंसाया है.'' भाविका की बातों ने हिमांशु को अप्रभावित रखा. उसने कहना चाहा- तुम मेरे हितैषी नहीं, तुम तो जले में नमक झिड़क रही हो. मेरे फंसने पर तुम्हें भी उतनी ही प्रसन्नता हो रही है जितनी मेरे विरोधियों को. . . ।'' पर कुछ नहीं कह सका. वह अपनी पीड़ा दबा गया. भाविका आगे बढ़ गयी. वह ठेकेदार कामेश्वर के घर गयी. दरअसल शासन ने पांच स्थानों पर सुलभ शौचालय बनाने की स्वीकृति दी थी. भाविका इसका ठेका कामेश्वर को देना चाहती थी. उसने कहा-तुम्हें पाँच स्थानों पर सुलभ शौचालय का निर्माण करवाना है. जिसके लिए पचास लाख की स्वीकृति मिली है. उसमें पांच प्रतिशत मुझे देना पड़ेगा.'' कामेश्वर ने भाविका की शर्त स्वीकार कर ली. उनमे इधर उधर की चर्चा होने लगी. इसी मध्य भाविका ने हिमांशु के संबंध में चर्चा करते हुए कहा- मैं तो हिमांशु की कर्तव्य निष्ठा से प्रभावित थी. वह तो भ्रष्ट निकला. वास्तव में वन विभाग ही भ्रष्टाचार का केन्द्र है. जब अपराधी को कठोर दण्ड मिलेगा तभी बेईमानी खत्म होगी. '' जब तक व्यक्ति स्वतः फंस नहीं जाता, वह अपने आप को निर्दोष ही मानता है. कामेश्वर को अपना स्वार्थ सिद्ध करना था. वह भाविका की बातों से असहमत होते हुए भी हामी भर रहा था.
हिमांशु की अधिवक्ता पल्लवी थी. पल्लवी ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि तुम्हारे विरुद्ध साक्ष्य है. कानूनी कार्यवाही से अपराध प्रमाणित होने के स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं. तुम्हें सजा भी हो सकती है. पर तुम घबराना मत यहां हार गये तो हम आगे न्यायालय तक लड़ेगे. . . . ।''
हिमांशु सजा की बात सुन कर कांप उठा था. वह परेशान सा रहने लगा. इधर न्यायाधीश निर्द्वन्द अपने बंगले के बरामदे में बैठे थे. उनकी दृष्टि चहचहाती गौरैया चिड़ियों पर थी. वस्तुतः वहां चिड़ियों की पंचायत जुड़ी हुई थी. उसमें काली नामक चिड़िया के विरुद्ध कार्यवाही हो रही थी. दरअसल चिड़ियों ने अन्न के दाने संचय कर रखे थे ताकि भविष्य में अन्न का अभाव होने पर उसकी पूर्ति हो सके. काली ने संचित अन्न से आधे को ही चुरा लिया था. सभी चिड़ियां काली के अपराध से उत्तेजित थी. सुनहरी ने कहा- काली का अपराध अक्षम्य है. उसे कड़ा से कड़ा दण्ड मिलना चाहिए. ताकि दूसरी चिड़ियां अपने समाज को हानि पहुंचाने का दुस्साहस न कर सके.''
- हमारे समाज की दण्ड संहिता में अपराधी को जान से मारने या एक पैर और चोंच तोड़ने का प्रावधान है.'' भूरी ने वजनी शब्दों में कहा- यही दण्ड काली को भी मिलनी चाहिए.'' पीली गंभीर मुद्रा में बैठी थी. वह पूर्व के नियमों में संशोधन कराना चाहती थी. उसने अपना तर्क प्रस्तुत किया- '' नहीं,हमें इस लीक से हटना चाहिए. वरना हमारे प्रजाति के लुप्त होने का खतरा बढ़ जायेगा. साथ ही जो प्रजाति बचेगी वह अपंग रहेगी. अतः दण्ड में परिवर्तन आवश्यक है.''
पीली के विचारों पर सबने ध्यान दिया. उनमें जोरदार बहस छिड़ी. वे कानून में परिवर्तन करने तैयार हो गये. पंचायत ने अपने निर्णय से काली को अवगत कराया- काली,पंचायत इस निर्णय पर पहुंची है कि तुम्हें शारीरिक दण्ड न दिया जाये. तुमने आर्थिक अपराध किया है. तुम्हें इंक्यावन चोंच अन्न के दाने क्षतिपूर्ति के रुप में लाने होगे. तुम्हें यह निर्णय स्वीकार है या नहीं. . ?'' काली अपंगता या मृत्यु दण्ड की आशंका से भयभीत थी. पर पंचायत के सौहाद्रपूर्ण निर्णय से उसके प्राण लौट आये. वह मन ही मन प्रसन्नता से बड़बड़ायी-मैं परिश्रम से और पेट काटकर अन्न जमा कर दूंगी. उसने पंचायत से कहा- मुझे कोई आपत्ति नहीं . पंचायत का निर्णय मुझे स्वीकार्य है.'' काली अपने कार्य में जुट गयी. उसे अन्न के दाने लाने थे. वह उड़ी तथा न्यायाधीश के बंगले की ओर गयी. वह सीधा पाकगृह में घुसी. न्यायाधीश निर्द्वन्द की जिज्ञासा प्रबल थी. उनकी दृष्टि काली को खोजने लगी. अंततः उसने खोज ही निकाला. काली चांवल के भरे ड्रम पर बैठी थी. काली ने न्यायाधीश को देख लिया. उसने चांवल निकालना बंद कर दिया. वह चुपचाप बैठी दूसरी ओर देखने लगी. तथा वह तिरछी नजर से न्यायाधीश की ओर देखने लगी. न्यायाधीश ने जानबूझ कर दृष्टि दूसरी ओर कर ली. काली को अवसर मिला. उसने चांवल पर चोंच मारा और फूर्र से उड़ गयी. न्यायाधीश देखते ही रह गये. काली को अपने कार्य की सफलता पर प्रसन्नता थी.
न्यायाधीश के भी विचारों में उथल पुथल मचने लगा - हमारी भी न्याय व्यवस्था का जल रुककर गंदा हो गया है. समयानुसार उसका प्रवाहमान होना आवश्यक है. परिवर्तन होना चाहिए तभी मानव समाज को लाभ मिलेगा. आज हिमांशु के प्रकरण का निर्णय था. वह न्यायालय जाने निकला कि नित्यनंदन मिल गया. नित्यनंदन ने कृतज्ञता ज्ञापित करने पहले से नमस्कार किया. हिमांशु ने उसे सम्मान देने हाथ मिलाया. नित्यनंदन वन विभाग में दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी था. वह अस्थायी था. उसे कभी बिठा दिया जाता. कभी काम पर बुला लिया जाता. वह परेशान था. नित्यनंदन ने अपनी समस्या हिमांशु को बतायी. हिमांशु ने दौड़धूप कर नित्यनंदन को स्थायी वनरक्षक का पद दिलवा दिया. इससे नित्यनंदन हिमांशु का आभारी था. नित्यनंदन को ज्ञात था कि हिमांशु का आपराधिक प्रकरण दर्ज है. उसका निर्णय आज है. उसकी दृष्टि हिमांशु पर जा टिकी. वह कह रही थी- इसने मेरी रोजी रोटी की व्यवस्था की. मेरा भविष्य बनाया. मैं इसकी विपत्ति के समय सहायता करने में असमर्थ हूं. हिमांशु वहां से न्यायालय पहुंचा. न्यायाधीश निर्द्वन्द अपनी कुर्सी पर बैठ चुके थे.
वहां भृत्य पक्षकारों की पुकार करने लगा. हिमांशु कारावास की सजा मिलने के डर से भयभीत था. उसकी पुकार हुई तो वह कटघरे में जा खड़ा हुआ. न्यायाधीश निर्द्वन्द उत्साहित दिख रहे थे. मानों किसी विजय यात्रा पर निकले हो. उन्होंने निर्णय दिया- हिमांशु का अपराध प्रमाणित हो गया है. न्यायालय इस निर्णय पर पहुंचा है कि हिमांशु पद पर पूर्ववत बना रहेगा. उसे पदोन्नति का भी अवसर दिया जायेगा. लेकिन उसके वेतन से पच्‍चीस प्रतिशत की कटौती होगी और पेंशन से बीस प्रतिशत. वह धनराशि शासकीय कोष में जमा होगी.'' इस निर्णय से हिमांशु ही नहीं अपितु अधिवक्ता पल्लवी भी अवाक रह गयी. कानून में उपरोक्त दण्ड का प्रावधान नहीं था. पल्लवी ने हिमांशु से कहा-न्यायालय का निर्णय तुम्हारे लिए हानिकारक है. तुम्हारा वेतन कटेगा. पेंशन में भी कटौती होगी. तुम क्या खाओगे. तुम्हारा भविष्य अंधकार में चला जायेगा. इसके विरुद्ध तुम आगे न्यायालय में मुकदमा लड़ो. तुम्हें बचाने मैं हर संभव प्रयास करुंगी. तुम निरपराध सिद्ध होकर रहोगे.'' हिमांशु को अधिवक्ता का कहना अपने पक्ष में लगा. उसके बहकावे में आता कि उसे न्यायालय की दौड़धूप का स्मरण आ गया. उसे कई पेशी दौड़नी पड़ी थी. आर्थिक हानि तो उठानी पड़ी साथ ही मानसिक त्रासदी के साथ समय भी गंवाना पड़ा था. अब वह इस क्रमबद्धता को दुहराना नहीं चाहता था. उसने सोचा-अपराध प्रमाणित होने पर भी मेरी नौकरी नहीं गयी. कारावास का दण्ड नहीं मिला. हां,वेतन और पेंशन में कटौती होगी. मैं उ,च्‍चस्‍तरीय जीवन यापन से वंचित रहूंगा लेकिन निकृष्‍ट जीना नही पड़ेगा और फिर पदोन्नति के लिए भी तो बाधक नहीं है. उसने आगे न्यायालय मे अपील करने की बात अस्वीकार कर दी. हिमांशु के प्रकरण की जानकारी भाविका को मिली.
वह सकते में आ गयी. वह विचारने लगी- जो व्यक्ति घूस देता है वही पकड़वा देता है. मुझे भी किसी ने फंसा दिया तो प्रकरण दर्ज होगा. अपराध प्रमाणित होने पर वेतन कटेगा. उसके विचार ने दूसरा पहलू बदला-शासन आराम से मुझे खाने पीने लायक परिवार चलाने लायक रुपये दे रहा है फिर घूंस लेकर कर मुसीबत मोल लेने का प्रयास क्यों करुं ? वह कामेश्वर के पास गयी. कहा- देखो,सुलभ शौचालय को मजबूत और टिकाऊ बनाना है. उसमें उच्‍चस्तर का छड़ सीमेंट ईंट लगना चाहिए. रुपये जनता के है. जनहित में कार्य होना चाहिए. अगर किसी प्रकार की धांधली हुई या शिकायत मिली तो बिल रोक दूंगी.'' कामेश्वर क्षण भर भाविका का मुंह ताकता रहा. उसमें शंका उत्पन्न हो गयी-भाविका को अधिक प्रतिशत देने वाला कोई दूसरा ठेकेदार तो नहीं मिल गया. उसने कहा- यदि आपको पांच प्रतिशत कम पड़ रहे हैं तो मैं और बढ़ा सकता हूं. ''
- मुझे लेन देन से मतलब नहीं है. बस रुपयों का सदुपयोग होना चाहिए.'' भाविका अपनी बात पर अटल थी. अंततः कामेश्वर को उसकी बात माननी ही पड़ी. कहा- ठीक है. आपकी मंशा के अनुरुप ही सुलभ शौचालय बनेंगे.'' भाविका को लगा कि अपराध के फंदे से उसका गला मुक्त हो गया. साथ ही उसके वेतन की कटौती नहीं हो रही है. . . . . ।
न्यायाधीश निर्द्वन्द जितने भी निर्णय दे रहे थे वह द. प्र. सं. के अनुसार न होकर स्व विवेक से लिये गये निर्णय के अनुसार था. उनके निर्णय स्वस्थ और मौलिक थे. वे आरोपियो के हित में थे. लाभकारी निर्णय पक्षकारों पर भारी नहीं पड़ रहा था. पर अधिवक्ताओं को इसमें अपना अहित दिखा. पक्षकार दण्डित होने पर उसे सहजता से स्वीकार कर लेते. वे उकसाने पर भी आगे मुकदमा लड़ने से इंकार कर देते. साथ ही वे अधिवक्ताओं से बचने लगे. इससे अधिवक्ताओं की रोजी रोटी छिनने लगी. उन्होंने न्यायाधीश निर्द्वन्द का विरोध करना शुरु कर दिया. अपना प्रभुत्व पुनः स्थापित करना था अतः वे षड़यंत्र रचने लगे. इसे कार्य रुप में परिणित करने वे कानून का सहारा लेने लगे. अधिवक्ताओं का संघ था. उसने न्यायाधीश निर्द्वन्द की कार्य विधि के विरुद्ध उच्‍च न्यायालय में याचिका दायर कर दिया. दायर याचिका में कहा गया कि न्यायाधीश निर्द्वन्द ने न्याय प्रक्रियाओं का उल्लंघन किया है. उन्होंने शासन के संहिता के अनुरुप निर्णय न देकर घर का कानून लागू कर दिया है. उनका निर्णय दप्रस के अनुसार नहीं है. इससे दप्रस की अवमानना हुई है. उनकी मनमानी से लगता है कि उनकी बुद्धि विक्षिप्त हो चुकी है.
न्यायपालिका का भविष्य खतरे में है अतः न्यायाधीश निर्द्वन्द को निर्णय देने के अधिकार से वंचित रखा जाये.'' अधिवक्ता संघ के कर्मों की जानकारी न्यायाधीश निर्द्वन्द को मिली. वे विचलित हो उठे. वे अंर्तसोच में पड़ गये- क्या मेरी बुद्धि विक्षिप्त हो चुकी है ?'' उन्होने अपने निर्णय का विश्लेषण किया. पुनर्परीक्षण से दिया गया निर्णय सही लगा. पर उन्हें बुद्धि विक्षिप्तता पर अभी भी शक था. वे परीक्षण कराने मनोचिकित्सक अनुश्री के पास पहुंचे. वहां सचिन भी था. वे न्यायाधीश के निर्णय से अवगत हो चुके थे. अनुश्री ने सचिन से कहा-न्यायाधीश निर्द्वन्द ने न्यायक्षेत्र में नया रास्ता खोला है. इससे दण्डित व्यक्ति अपराध की ओर उन्मुख नहीं होगा. वह समाज से अपमानित-उपेक्षित भी नहीं होगा. हर स्थिति में न्यायाधीश की बुद्धि कौशल एवं विवेक को प्रतिष्ठा मिलनी ही चाहिए.'' न्यायाधीश निर्द्वन्द ने मनोचिकित्सक के मुंह से अपनी बुद्धि स्वस्थता की प्रशंसा सुनी. वे पूर्ण आश्वस्त हो गये. उन्हें किसी प्रकार के परीक्षण कराने की आवश्यकता नहीं थी. वे मनोचिकित्सक से मिले बगैर ही लौट गये. यद्यपि न्यायाधीश निर्द्वन्द की विचारधारा की प्रशंसा यत्र तत्र सर्वत्र हो रही थी पर अधिवक्ता संघ द्वारा दायर याचिका की याद आते ही उनका चित्त छिन्न-भिन्न हो जाता. उस रात उनकी आँख देर से लगी. स्वप्न में उन्होंने स्वयं को न्यायालय में पाया. वे वहां एक न्यायाधीश के रुप में नहीं अपितु एक अभियुक्त के रुप में वहां उपस्थित थे. न्याय की कुर्सी में न्यायाधीश प्रेमपाल बैठे थे.
न्यायालय ने उनसे पूछा-आपने नियमों का उल्लंघन करके दप्रस की अवमानना की है. आप अपराध पर अंकुश लगाने नियुक्त हुए है पर स्वयं आपने अपराध किये है. आप अपराधी है ?'' न्यायाधीश निर्द्वन्द छटपटा उठे. उन्होंने कहा- नहीं,मैं अपराधी नहीं. मैंने अपने अधिकार क्षेत्र की सीमा में कार्य किया हैं. न्यायाधीश का कर्म अपराधियों को दण्डित करना ही नहीं है. वे व्यक्ति को सही दिशा देने और स्वस्थ समाज निर्मित करने नियुक्त होते है. . . . । चिकित्सक रोगी की प्राण रक्षा के लिए दवाईयाँ बदल देता है. अध्यापक विद्यार्थी को उत्तीर्ण करने कृपांक देता है तो जनहित में दण्डसंहिता में परिवर्तन क्यों संभव नहीं. मैने कानूनों की पुस्तकों के अनुरुप निर्णय न देकर भी न्यायापालिका की शाख बढ़ाई है. मैं निरपराध हूं. . . . . . . . . ।'' अचानक उनकी नींद टूट गयी. यद्यपि स्वप्न के दृष्‍य लुप्त हो गये पर वे असुरक्षा के भय से मुक्त नहीं हो पाये. स्वतंत्र न्यायपालिका में पदस्थ होकर भी वे चारों ओर से घिर गये थे. दूसरे दिन न्यायाधीश निर्द्वन्द ने अपने द्वारा दिये निर्णय की प्रतियां उच्‍च न्यायालय को भेज दी. ताकि उसमें निष्पक्ष मंथन हो सके. साथ ही त्यागपत्र भी प्रस्तुत कर दिये. उच्‍च न्यायालय ने न्यायाधीश निर्द्वन्द के प्रपत्रों और अधिवक्ता संघ की याचिका को उच्‍चतम न्यायालय को विचारार्थ प्रेषित कर दिया. उच्‍चतम न्यायालय जांच कार्य में संलग्न हो गया. उसने तीन न्यायाधीशों की एक खण्डपीठ बिठायी. खण्डपीठ ने प्रश्न रखा- न्यायाधीश के निर्णय से क्या शासन और समाज पर आर्थिक बोझ पड़ा? उनका अहित हुआ?''

उत्तर मिला- नहीं,न्यायाधीश के निर्णय से अभियुक्तों को कारावास नहीं हुआ. कारागृह में बंदियों की संख्या कम हुई. इससे शासन के खर्च में बचत हुई साथ ही उसे नकद लाभ भी मिला. पक्षकारों ने दण्डीत होने के बावजूद अपील करने से इंकार कर दिये इससे स्पष्ट होता है कि निर्णय अनुचित नहीं. इससे न्यायालय में प्रकरणों की संख्या कम हुई. न्यायालय में पड़े प्रकरणों को समय पर निदान का अवसर मिलेगा.''
प्रश्न- क्या अपराधी को उचित दण्ड नहीं मिला? क्या आपराधिक कार्यों को बढ़ावा मिला ?''
- नहीं, आपराधियों को उचित दण्ड ही मिला, यही कारण है कि अपराध की संख्या में कटौती आयी हैं । अधिकारी वर्ग में धन संचय का भय व्याप्त है । उनमें वेतन और पेंशन कटौती का दहशत है । अन्य आपराधिक प्रवृत्तियों में भी गिरावट आयी है ।''
खण्डपीठ ने न्यायाधीश निर्द्वन्द से कहा - आपके प्रकरण पर खण्डपीठ विचार कर रही है । कार्यवाही पूर्ण होने पर आपको सूचना दी जायेगी । आप अपने पद पर रह कर कार्य करें . . . . . . ।

दया मृत्यु

  •  सुरेश सर्वेद
स्कड प्रक्षेपास्त्रों को आकाश में ही नष्ट करने पैट्रियड का अविष्कार हो चुका हैं पर तार पेट्रोल और बेल्ट बम धड़ल्ले से प्रयुक्त हो रहे है. आतंकी अपनी कमर में बेल्ट बम बांध कर जाता है और बटन दबाकर विस्फोट कर देता है. इससे लाशें बिछ जातीं हैं. यद्यपि मेटल डिटेक्टर बमों की उपस्थिति की जानकारी देता है पर उन्हें तत्काल नष्ट नहीं कर पाता.'' इसी विषय को लेकर वैज्ञानिकों की '' विज्ञान भवन'' में बैठक थी. वहां आकाश और नीलमणी भी उपस्थित थे. नीलमणी ने अपनी बात रखी - '' मित्रों,हम एक ऐसे बम का निर्माण करें कि बमों की उपस्थिति का पता तो लगे साथ ही वे तत्काल निष्क्रिय भी हो जाये. साथ ही अपराधी की पहचान भी बता दें. . . . ।''
वैज्ञानिक गंभीरता पूर्वक विचार कर ही रहे थे पर उन्हें प्रश्न का उत्तर नहीं मिल रहा था . उधर आकाश के ओंठो पर मुस्कान थी. दरअसल उसने पूर्व में ही इस विषय पर विचार किया और उसने 'सेफ्टी लाइफ' नामक यंत्र बनाने का काम भी प्रारंभ कर दिया. इस यंत्र में उपरोक्त चिंतन के समस्त उत्तर समाहित थे. आकाश 'सेफ्टी लाइफ' बनने के बाद वैज्ञानिकों को हतप्रभ करना चाहता था इसलिए उसने अपने अनुसंधान की चर्चा अब तक कहीं नहीं की थी. अभी वैज्ञानिक चिंतन कर ही रहे थे कि एक धमाका हुआ. दरअसल प्रणव उच्‍चशिक्षा प्राप्त युवक था. वह शासकीय सेवा में नहीं था. उसने कई विषयों पर वैज्ञानिक दृष्टि से शोध किया था. उसने अपनी उपलब्धियों का प्रदर्शन करना चाहा पर उसकी बातों को सबने हंसी में उड़ा दिया. संवादहीनता और उपेक्षा के कारण उसकी प्रतिभा दबती गई. इससे क्षुब्ध होकर वह एक हिंसक गुट में शामिल हो गया. उस गुट का नाम ' क्रांतिकारी चीता दल ' था. जिसे संक्षिप्त में ' क्राचीद' कहा जाता था. उस गुट मे कानून विद् ऋषभ , अर्थशास्त्री विश्वास जैसे अनेक लोग थे. विश्वास को पकड़ने के लिए सरकार ने दस लाख का पुरस्कार रखा था.
'क्राचीद' आर्थिक दृष्टि से कमजोर था. विश्वास चाहता था कि रुपये ' क्राचीद ' के काम आये। उसने स्वयं को पकड़वाने के लिए पुलिस को अपना पता दे दिया. साथ ही कहा कि पुरस्कार के रुपये प्रणव को मिले. पर सरकार ने विश्वास को गिरफ्तार तो करवा ली मगर पुरस्कार की राशि प्रणव को देने के बजाय उसकी खोज बीन शुरु कर दी इसकी खबर जैसे ही प्रणव को लगी वह छिपे -छिपे रहने लगा. उसमें उग्रता आ गई थी. उसे जैसे ही विज्ञान भवन में वैज्ञानिको की बैठक होने की सूचना मिली. वह बेल्टबम कमर में बांध कर ' विज्ञान भवन ' में जा पहुंचा और बटन दबा दिया इससे जोरदार धमाके के साथ विस्फोट हुआ . इस विस्फोट से सात वैज्ञानिको के अंग क्षत -विक्षत हो गए. नीलमणी की टांगे और भुजाएं शरीर से अलग हो गयी. प्रणव का शरीर कई टुकड़ों में बंट गया. प्रणव ने दूसरों के तो प्राण लिया पर स्वयं के प्राणों की रक्षा नहीं कर सका. आत्मघाती का भयावह पक्ष यही होता है कि वह दूसरों पर हमला करने से पूर्व स्वयं को मृत समझता है. घायल और बेहोश वैज्ञानिकों को अस्पताल लाया गया. उसमें आकाश भी था. उसके शरीर से छर्रे निकाले गये. रक्त देकर उपचार की व्यवस्था की गई. कई घण्टों बाद उसकी चेतना लौटी.

चेतनावस्था में आते ही आकाश पीड़ा से छटपटा उठा. चिकित्सकों ने उसे ढाढस बंधाया पर सहानुभूति से उसकी पीड़ा खत्म नहीं होनी थी. उसकी व्याकुलता को देखना सामर्थ्य से बाहर था. यद्यपि आकाश का सतत उपचार चल रहा था पर कोमल स्थल पर चोंट लगने के कारण उसकी पीड़ा ज्यों की त्यों बनी हुई थी. आकाश 'सेफ्टी लाइफ' को पूरा करना चाहता था इसके लिए वह जीना चाहता था पर असहनीय पीड़ा ने उससे जीने का साहस छीन लिया था. अब वह मृत्यु चाहने लगा था. उसने अपने अधिवक्ता सुमन के द्वारा न्यायालय में 'दयामृत्यु' के लिए आवेदन कर दिया. 'दयामृत्यु' एक जटिल प्रश्न है. विश्व की न्याय पालिका असमंजस में है कि दयामृत्यु दी जाये या नहीं. आवेदन प्रस्तुत होने के बाद शासकीय अभिभाषक बालकृष्ण ने इसका विरोध किया. कहा-'' न्यायालय को दयामृत्यु की छूट नहीं देनी चाहिए. यदि न्यायालय दयामृत्यु को इजाजत देना शुरु कर दिया तो इसका दुष्परिणाम यह होगा कि चिकित्सक अपनी जिम्मेदारी से पीछे हटेगे. वे असाध्यरोग से ग्रस्त व्यक्तियों और वृद्धों को स्वस्थ करने की जिम्मेंदारी से पीछे हटेगें. व्यक्ति सामान्य से रोग को लेकर बवाल पैदा करेगा और छोटे छोटे रोगों से मुक्ति पाने दयामृत्यु की मांग करेगा जबकि ऐसे रोगों का उपचार से निदान संभव होगा.'' आकाश के अधिवक्ता सुमन ने अपना पक्ष रखा. कहा- '' शासकीय अभिभाषक का तर्क ग्राह्य है लेकिन जिसका जीवन मृत्यु से बदतर हो. भविष्य कष्ट के सागर में गोते खा रहा हो,वह दयामृत्यु पाने का अधिकारी है. जहां तक मेरे पक्षकार आकाश की बात है तो वर्तमान में वह इसी वर्ग में आता है. न्यायालय से निवेदन है कि वह मेरे पक्षकार की स्थिति को देखते हुए उसके आवेदन पर सहानुभूति पूर्वक विचार करने की कृपा करें.''

माननीय न्यायाधीश नागार्जुन ने वकीलों के तर्कों को गंभीरता पूर्वक सुना. वे स्वयं आकाश की स्थिति को देखना चाहते थे ताकि निर्णय देने में आसान हो . वे अस्पताल परिसर पर पहुंचे कि एक पीड़ायुक्त चीख से वे ठिठक गये . उन्होंने उस पीड़ायुक्त चीख के संबंध में जानना चाहा तो उन्हें बताया गया कि यह चीख आकाश की है. आकाश की तड़पन और व्याकुलता ने न्यायाधीश को झकझोर कर रख दिया. उन्होंने आकाश के ' दयामृत्यु' के आवेदन को स्वीकृति दे दी. आवेदन स्वीकृति की चर्चा दावानल की तरह फैली. इसका समाचार चन्द्रहास को मिला. वह बेचौन हो गया. चन्द्रहास ' मानव सुरक्षा संघ ' संस्था से संबन्धित था. यह संस्था ' मासुस' के नाम से चर्चित था. उसमें भी अनेक प्रतिभावान व्यक्ति शामिल थे. 'मासुस' के सदस्य हिंसा एवं आतंकवाद के विरोधी थे. वे ' क्राचीद' के हिंसक प्रवृत्ति की आलोचना करते. उनका मानना था कि व्यक्ति हिंसा करने के बाद अपने मूल उद्देश्य से भटक जाता है. वह समाज का हितैषी बनने के बदले समाज का शत्रु बन जाता है. उसे छिपकर रहना पड़ता है तो वह अपनी विद्या या अनुसंधान को कहीं बता नहीं पाता और इस तरह वह अपने हाथों अपनी प्रतिभा को नष्ट कर लेता है. 'मासुस' का कहना था कि ' क्राचीद अपने कार्यशैली में बदलाव लाकर समाज हितार्थ कार्य का सम्मादन करें.' आकाश के द्वारा बनाया जा रहा ' सेफ्टी लाइफ ' की जानकारी चन्द्रहास को थी.

यदि आकाश की मृत्यु हो जाती तो सेफ्टी लाइफ का कार्य अधर में लटक जाता. चन्द्रहास ने ' मासुस' के सदस्यों की बैठक रख कर कहा कि किसी भी स्थिति में आकाश को जीवित रखना है. इसके लिए चाहे कोई भी कदम उठाना क्यों न पड़े ?'' इधर न्यायालय ने आकाश को दयामृत्यु देने डा. महादेवन को नियुक्त किया था. डा. महादेवन अस्पताल जाने निकला ही था कि उसका पुत्र सौरभ सामने आ गया. वैसे सौरभ उसका सगा पुत्र नहीं था. एक महिला अस्पताल में आयी. वह गर्भवती थी. उसने सौरभ को जन्म दिया और उसे वहीं छोड़ कर कहीं चली गयी. सौरभ का कोई पालक था नहीं । इधर डा. महादेवन की एक भी संतान नहीं थी. उसने सौरभ को अपने पास रख लिया और उस पर पिता का प्यार उड़ेलने लगा. सौरभ ने रुष्ट स्वर में कहा- '' पापा, आप मुझ पर कभी ध्यान नहीं देते . सदैव मरीजों के पीछे भागते रहते हैं. आपको दूसरों की जान बचाने की ही चिंता रहती है.'' सौरभ के आरोप से महादेवन विचलित नहीं हुआ. उसने प्यार का हाथ उसके सिर पर फेर कर आगे बढ़ लिया. . . . . ।
एक अवसर ऐसा आया था जब दवाई के दुष्प्रभाव से धंनजय की मृत्यु हो गयी. इससे डा. महादेवन को जनाक्रोश का सामना करना पड़ा. उसे हत्यारा तक कहा गया. महादेवन को मानसिक त्रासदी भोगनी पड़ी. उसे अपमानित भी होना पड़ा मगर उसमें न हीनता आयी और न हताशा आया क्योंकि उसने जो दवाई मरीज को दिया था वह उसके जीवनदान के लिए थी मगर उसका प्रभाव उल्टा पड़ा. आज महादेवन विचलित था उसे ऐसे व्यक्ति को मारना था जिसने न उसका अहित किया था और न उससे किसी प्रकार की शत्रुता थी. डा. महादेवन आकाश के पास पहुंचा. आकाश ने उसे देखा. महादेवन को लगा -आकाश व्यंग्य कर रहा है. कह रहा है- '' आओ डा. ,आओ. तुम उपचार करके मेरी पीड़ा तो खत्म नहीं कर सकते. हां,अपनी जिम्मेदारी को कायम रखने मुझे मार अवश्य सकते हो. . . . ।''

डा. महादेवन मन ही मन बड़बड़ा उठा- हां-हां,मैं तुम्हें अवश्य मारुंगा. . . . . ।'' डा. महादेवन अपना कार्य प्रारंभ करना चाहता था. वह आकाश के पास गया. उसका साहस जवाब देने लगा. उसने साहस संचय करने का प्रयास किया. मगर वह अपने को असहाय सा महसूस करने लगा. वह मन ही मन बड़बड़ा उठा-यह व्यक्ति मेरा लगता ही क्या है. न्यायालय ने मुझे इसके प्राण हरने का आदेश दिया है. मैं न्यायालय के आदेश का निरादर कर न अपनी नौकरी खोना चाहूंगा और न ही इसे जीवन दान देकर हंसी का पात्र बनाना चाहूंगा.'' मृत्यु मशीन को आकाश के पास लाया गया. डा. महादेवन को अब बस बटन दबाना था. उसके हाथ बटन के पास पहुंचा कि लगा- लकवा मार गया. उसकी बटन दबाने की शक्ति जाती रही. डा. महादेवन चुपचाप कमरे से बाहर निकल गया. कमरे से बाहर आते ही उसे लगा - सिर से भारी बोझ उतर गया. उसने शान्ति का अनुभव किया. न्यायालय के आदेश नहीं मानने के कारण डा. महादेवन को निलम्बित कर दिया गया . उसके स्थान पर डा. सुरजीत को यह कार्य सम्पादन करने की जिम्मेदारी सौंप दी गई. ' मासुस'  अपने उद्देश्य की सफलता के लिए योजना बनाने लगे. वह वहां से आकाश को हटाकर एक लाश को चुपचाप रख दिया. इस सफलता से मासूस के सदस्य प्रसन्न थे.

इधर डा. सुरजीत को अपना कार्य संपन्न करना था. वह जब आकाश के पास गया तो उसने पाया वह चुपचाप पड़ा है. डा. सुरजीत ने उसका चेहरा तक नहीं देखा और लाश को आकाश समझ उसके भुजा में एक सुई चुभोयी. इससे खारा जल प्रविष्ठ हुआ. फिर उसने मृत्यु मशीन का बटन दबा दिया कि सुई के द्वारा उसके हृदय में दर्दनाशक प्रशामक द्रव्य प्रवाहित हुआ अंत में घातक पोटेशियम क्लोराइड प्रवेश कर गया. बाद में उसे मृत घोषित कर दिया गया.
न्यायालयीन कार्यवाही के अनुसार तो आकाश की मृत्यु हो चुकी थी पर वास्तव में वह जीवित था. उसे तो 'मासुस' ने पूर्ण सुरक्षा के साथ अपने पास रखा था. मासुस आकाश का उपचार अपनी विधी से करने लगा. उपचार से आकाश स्वस्थ हो गया. वह पुनः 'सेफ्टी लाइफ' को पूरा करने जुट गया. एक अवसर ऐसा आया कि उसने सेफ्टी लाइफ को पूर्णरुप देने में सफलता हासिल कर ली. मासुस को समय -धन-बुद्धि का व्यय करना पड़ा था. इसका पुरस्कार यह मिला कि 'सेफ्टी लाइफ' के निर्माण में उसके योगदान को महत्वपूर्ण माना गया.
कर्तव्य के निर्वहन में उदासीनता के आरोप से डा. महादेवन बच नहीं पाया था. उसकी जीविका छीन गई थी. उसे आर्थिक कठिनाइयों से जूझना पड़ रहा था. एक दिन उसे पता चला कि आकाश तो जीवित है. वह आकाश की खोज करने लगा और उसने आकाश को पा ही लिया. उसने आकाश से कहा- तुम यहां छिपे बैठे हो. तुम्हारे कारण मेरी नौकरी गई. लोग मुझे कायर की संज्ञा दे रहे है. तुमने मानवहित के लिए 'सेफ्टी लाइफ' बनाया है. इसे अंधेरे में न रखो. इसे प्रकाश में लाओ और साथ ही मेरी जीविका वापस दिलवाओ.' आकाश को अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करना था. साथ ही डा. महादेवन को न्याय दिलाना था. वह न्यायालय जाने तैयार हो गया. . . ।

'क्राचीद' के सदस्य ऋषभ ने एक पुस्तक लिखी थी. उसका नाम 'न्याय और अधिकार चाहिए' था. उस पुस्तक में 'दयामृत्यु' पर भी विचार किया गया था कि किस परिस्थिति में दयामृत्यु को स्वीकृति देनी चाहिए . उसने उक्त पुस्तक को कानूनविदों को पढ़ाया मगर उसे सम्मान न मिलकर उसकी लेखनी को हंसी में उड़ा दिया गया. इससे वह आक्रोशित हो गया और 'क्राचीद' में शामिल हो गया. चूंकि वह 'क्राचीद' का सदस्य था । उसमें उग्रता कूट कूट कर भर गयी थी. व्यक्ति वातावरण और संगति के अनुसार व्यवहार करने लगता है अतः ऋषभ अवहेलित हुआ था तो उसमें उग्रता आ ही गयी थी. उसने सोचा-जब मुझे कहीं न्याय नहीं मिला तो क्यों न न्यायालय को ही उड़ा दूं ?'' ऋषभ ने कमर मे बेल्टबम बांधा और न्यायालय जा पहुंचा. आकाश भी डा. महादेवन के साथ वहां उपस्थित था. ऋषभ ने न्यायालय को उड़ाने बटन दबाया. बार-बार बटन दबाया पर विस्फोट नहीं हुआ. वस्तुतः आकाश के पास सेफ्टी लाइफ थी. उसके कारण बेल्टबम निष्क्रिय हो गया. ऋषभ बेल्टबम पर खींझ गया अचानक उसकी नजर आकाश की ओर गयी. उसने देखा-वह मुस्करा रहा है कार्य की असफलता से वह खीझा तो था ही उल्टा आकाश को मुस्कराते देख उसका क्रोध फनफना उठा. वह आकाश की ओर कीटकीटा कर दौड़ा. आकाश चिल्ला पड़ा- ' इसे पकड़ो,इसके पास बेल्ट बम है.' न्यायालय में देखते ही देखते भगदड़ मच गयी.
ऋषभ प्राण बचाकर भागना चाहा पर वह पकड़ा गया. न्यायालय ने आकाश को जीवित देखा तो अवाक रह गया. न्यायालय में विचार उठा-यह पीड़ित जीवन जी रहा था. यदि इसके आवेदन को न्यायालय द्वारा अमान्य कर दिया जाता तो स्वच्छ न्याय नहीं होता लेकिन इसे दयामृत्यु दी वह भी एक भूल थी क्योंकि यदि यह मर जाता तो ' मानव कल्याण' के लिए जो कार्य इसने किया है वह नहीं हो पाता. न्यायालय ने स्वयं से प्रश्न किया कि उसका निर्णय सही था या गलत कोई तो बताये. . . . ।'

न्यायालय दुविधा में था कि ऋषभ ने अपनी पुस्तक न्यायालय को सौंपते हुए कहा-सर,सदा से यही चला आ रहा है. मेरे समान अपराधी पकड़ा जाता है. उस पर न्यायलयीन कार्यवाही होती है और अपराध प्रमाणित होने की स्थिति में उसे दण्ड दे दिया जाता है. चाहे अपराध करने के पीछे कारण कुछ भी क्यों न हो. क्या यह प्रथा चलती ही रहेगी.''
न्यायालय ने कहा- नहीं. . नहीं,अब ऐसी कहानी बार-बार नहीं दुहरायी जायेगी. उन्होंने पुस्तक की ओर इंगित करते हुए कहा- ' सेफ्टी लाइफ' ने अपनी प्रतिभा का प्रमाण प्रस्तुत कर दिया. अब इसकी योग्यता को कौन नकार सकता है. यदि यह पुस्तक अपने उद्देश्य में सफल रही तो इसका सम्मान होकर रहेगा. .।

यंत्रणा

  •  सुरेश सर्वेद
मेरे खिलाफ आपराधिक प्रकरण दर्ज होते ही मैं निकृष्ट जीवन व्यतीत करने लगा. मुझ पर विद्युत कर्मचारी से मारपीट करने का आरोप था. मेरे खिलाफ दो दो धाराएं लगी थी. हालांकि मैंने न मारपीट की थी न ही जान से मारने की धमकी दी थी चूंकि विद्युत कर्मचारी ने आरक्षी केन्द्र में मेरे विरुद्ध रिर्पाेट दर्ज करा दी थी अतः मामला बना कर मेरे विरुद्ध कार्यवाही शुरु कर दी गई थी. मेरा प्रकरण न्यायाधीश मित्तल के न्यायालय में विचाराधीन था. लगी धाराओं के अनुसार प्रमाणित होने पर मुझे सात वर्ष तक की सजा मिल सकती थी. सात वर्ष के कारावास की सजा की याद से ही मैं कांप उठता. वैसे तो एक दिन की सजा भी सजा होती है पर मेरे विरुद्ध जो आपराधिक प्रकरण दर्ज किये गये थे. वह तो लम्बे समय तक जेल यात्रा की ओर संकेत कर रहे थे. सुनी सुनायी कहानी यह थी कि कारागृह का न सिर्फ प्रभारी ही अपितु वहां एक सिपाही से लेकर पुराने कैदी तक नये लोगों से वह व्यवहार करते है जो किसी भी स्थिति में उचित नहीं. सिपाही हवलदार और प्रभारी तो पिटते ही हैं वहां के पुराने कैदी भी अपनी बात मनवाने के लिए पिटाई कर देते हैं.

वहां काम भी बेहद लिया जाता है. न करने पर दण्डित किया जाता है. हालांकि मेरे अधिवक्ता तपन मुझे निर्दाेष घोषित करवाने कृतसंकल्प थे. जब भी पेशी होती मुझे सांत्वना का अमृत अवश्य पिलवा देते . मुझे उनकी सांत्वना से थोड़ी राहत मिलती मगर क्षण भर बाद ही मैं फिर अपने विचारों में उलझ जाता मुझे हर क्षण यही अनुभव होता कि मेरा अपराध प्रमाणित हो चुका है और मैं कारागृह में सजा भोगने पहुंच चुका हूं. मैं जब भी न्यायालय जातामेरी द्य्ष्टि न्यायालय के भृत्य पूर्णेन्दू पर जा टिकती. मैं उसे हर पेशी में दस रुपये देता. वह उल्टा पुल्टा नामपुकारने में माहिर था. जो पैसा देने में अनाकानी करता उसका नाम बिगाड़ कर पुकार देता और वह व्यक्ति उपस्थित नहीं हो पाता जिसकी पेशी होती. उस पर कार्यवाही शुरु हो जाती. मैं भी डरते रहता कि मेरा भी नाम बिगाड़ के पुकार न दे इसलिए उसे बिना मांगे ही दस का नोट थमा देता. मेरी मुलाकात विकास से हुई. वह अधिवक्ता तपन का मुंशी था. उसने मुझसे कहा कि यदि तुम्हारे अपराध प्रमाणित हो गये तो समझो तुम्हारी नौकरी गयी. मैं सोचने लगा कि इसका कहना गलत नहीं .

नौकरी तो जायेगी ही साथ ही कारावास की सजा भी भोगनी पड़ेगी. कारावास की सजा मिली नहीं कि वे लोग ही मुझसे घृणा करने लगेंगे जो मुझे मान सम्मानदेते हैं. व्यक्ति जब समुद्र में डूबने लगता है तो वह तिनके को ही सहारा समझ कर उससे किनारे लगने की सोचता है पर यह संभव नहीं हो पाता पर आशा नहीं छूटती. यही हाल मेरा था हालाकि मैं यह जानता था कि मुंशी मेरी क्या मदद करेगा वह मुझे क्या बचायेगा बावजूद जाने क्यों मुझे ऐसा लगने लगा कि यही तिनका मुझे किनारा लगा सकता है. मैंने कहा-विकास तुम कोई ऐसा उपाय करो कि मैं बाईज्जत बरी हो जाऊं मेरी नौकरी भी बचेगी और जगहसाई भी. एक मुंशी होकर भी मेरी बात को उसने जिस गंभीरता से लिया उससे मेरा विश्वास उस पर जम गया. जब किसी को सजा होती या दण्ड मिलता तो मुझे लगता उसे निर्णय उसके विरुद्ध नहीं अपितु मेरे विरुद्ध गया है और मैं परेशान हो उठता उस दिन मैं न ढंग से खा पाता था और नहीं रात में चौन की नींद सो पाता था. मगर जब कोई बाईज्जत बरी होता तो मैं खुश हो जाता. उस दिन मैं भर पेट खाता और रात में चौन की नींद सोता. मैं यह जान चुका था कि न्यायालय में जीत उसकी होती है जिसके पक्ष में गवाह गवाही देता है. मुझे सदैव अपने विरोधी गवाह की गवाही पर शक लगा रहता मैं यह मान गया था कि मेरे विरुद्ध गवाही दी जायेगी और मेरा अपराध करना मान लिया जायेगा.

हालांकि मेरे अधिवक्ता अक्सर यह कहा करते थे कि यदि तुम यहां से दण्डित हो गये तो हम आगे के न्यायालय में अपील करेंगे पर मैं तो यहां एक ही न्यायालय के चक्कर काट कर पस्त हो चुका था. दूसरे न्यायालय में अपील करने की सोचना भी मेरे लिए भारी पड़ता था. मन तो कई बार अपने विरोधी गवाह से बात करने की होती मगर बात नहीं कर पाता था. उससे मेरी कोई दुश्मनी भी नहीं थी. हम अक्सर मिलते. उसके सामने होते ही जहां मैं आंखे चुरा लिया करता था वहीं वे चिल्लाकर मुझे नमस्कार किया करता था. मुझे लगता कि वह मुझे सम्मान न देकर मेरी हंसी उड़ा रहा है और कह रहा कि मैं ऐसी गवाही दूंगा कि तुम जिन्दगी भर जेल की हवा खाओगे. यह तो था उसके प्रति मेरे मन का विचार पर वह मेरे बारे में वास्तव में क्या सोचता था यह तो वही जाने पर जिस दिन उसकी गवाही हुई. गवाही के बाद अधिवक्ता तपन ने जिस प्रकार से बातें मुझे बतायी इससे मैं अनुभव कर लिया  कि वह मेरा दुश्मन नहीं बना. यानि उसने मेरे विरुद्ध बयान नहीं दिया.

हर पल हर क्षण मैं भयभीत भयाक्रांत रहता . न मैं किसी से ढंग से बात कर पाता था न किसी से खुल कर मिल पाता था. तरह तरह के विचार मेरे मन में उठते रहते. मैं स्वयं को कभी कारावास में पाता तो कभी स्वतंत्र विचरण करते हुए. जिस दिन मेरे प्रकरण का निर्णय होने वाला था. अदालत तो ग्यारह बजे लगती थी मगर मैं नौ बजे ही वहां टिक गया था. अधिवक्ता का अता पता नहीं था. मुझे उस पर गुस्सा आने लगा था. मेरे मन में विचार उठने लगा था कि मेरे अधिवक्ता मेरे विरोधी के पक्ष में तो नहीं चला गया. पर क्षण भर बाद ही अब तक की हुई प्रक्रिया पर विश्लेषण करता तो अपने ही विचार के प्रति मुझे स्वयं पर गुस्सा ही नहीं तरस भी आने लगता. अधिवक्ता अपने सही समय पर पहुंच गये. वे दूसरे पक्षकारों के काम निपटाने लगे. मैं बार बार उससे पूछता मैं निरपराध घोषित होंऊगा या नहीं. मैं बार बार उनके कार्य में अवरोध पैदा करते रहता. कई बार तो वह गुस्सा जाते फिर अपने को नरम करते हुए कहते- हां भई हां,तुम निरापराध घोषित होओगे. मुझे कुछ आवश्यक काम है उसे निपटाने दो. च् मैं यह भली भांति जानता था कि मेरे अधिवक्ता जिम्मेदार व्यक्ति है मगर वे जैसे ही किसी दूसरे कार्य से दूसरी ओर जाता तो मुझे लगता कि निर्णय के समय तक ये पहुंच नहीं पायेगें और मुझे सजा सुना दी जायेगी मगर ऐसा नही हुआ. जैसे ही मेरी पुकार हुई मेरे अधिवक्ता पहुंच गये. टाइप राइटर चलने लगा .

मैं जान गया था कि इस टाइप राइटर से मेरा भविष्य लिखा जा रहा है. जैसे जैसे टाइप राइटर की बटन दबती तो कभी मुझे मेरा भविष्य उज्जवल दिखता तो कभी मुझे लगता मेरा भविष्य चौपट होने वाला है. जब मैं चाह रहा था कि जो कुछ भी टाइप किया जा रहा है. उसे मैं देखूं पर क्या यह संभव था. कदापि नहीं. मेरे हाथ पैर शून्य होने की स्थिति में पहुंच चुके थे. मैं मानसिक यंत्रणा झेल रहा था. मेरे अधिवक्ता निश्चिंत थे . मेरा मन निर्णय सुनने बेचौन था. मेरी बेचौनी को कोई महसूस नहीं कर रहा था. निर्णय जैसे ही मेरे पक्ष में आया. मुझे बाईज्जत बरी होने का निर्णय सुनाया गया. मैं इतना खुश हुआ कि अधिवक्ता समेत न्यायाधीश के कदम चूमने का मन हुआ पर मैं उतावला नहीं हुआ. मैंने आभार व्यक्त किया और अपने घर की ओर लौट गया. हालांकि मैं बाइज्जत बरी हो चुका था पर आरक्षी केन्द्र से लेकर न्यायालीन प्रक्रिया में भोगे दिनों की यंत्रणा चाह कर भी मैं नहीं भूल पाता.

सोमवार, 29 अप्रैल 2013

नहीं बिकेगी जमीन

 सुरेश सर्वेद की कहानी . नहीं बिकेगी जमीन

पुस्तैनी सम्पत्ति को बिगाड़ने की जरा सी भी इच्छा गोविन्द के मन में नहीं थीण्वह चाह रहा था जिस तरह उसके दादा की सम्पत्ति को पिता ने सहज कर रखा और पूरी ईमानदारी के साथ उस सम्पत्ति की रक्षा कीए उसी तरह उसका पुत्र जीवेश भी उसे सम्हाल कर रखे पर जीवेश खेती किसानी न करके व्यवसाय करना चाहता थाण् वह भी जमीन बेंचकरण्गोविन्द की पत्नी मालती ने कहा . जब लड़का खेती किसानी करना ही नहीं चाहता तो उस पर जबरन क्यों लादते हो घ् वह धंधा करना चाहता है तो जमीन बेचकर उसे रुपये क्यों नहीं दे देते घ्
. मालती तुम समझती क्यों नहींण् आजकल व्यवसाय में भारी प्रतिस्पर्धा हैण् व्यापार करने वाले ही जानते हैं कि वे कि स तरह दो वक्त की रोटी लायक कमाते हैं । पत्नी के प्रश्न का उत्तर गोविन्द ने दियाण्
. यहां लाभ . हानि सबके साथ लगा रहता हैण् हम भी तो खेत में बीज डालकर कभी . कभी हानि उठाते हैंण् जैसे हम खेती में जुआ खेलते हैं वैसे ही उसे व्यवसाय में जुआ खेलने दोण्लड़के का मन खेती . किसानी में बिलकुल नहीं हैण् जबरन थोपोगे तो वह मन लगाकर खेती करेगा क्या यह संभव है घ्
. तुम्हारा कहना सच है पर वह निश्चय तो करे कि आखिर कौन सा व्यवसाय करना चाहता है उसेण् किराना व्यवसाय में रखा ही क्या हैण् देख ही रही हो गॉँव में कितनी किराने की दुकान हो गयी हैण् दुकानदार दिन भर मक्खी मारते बैठे रहते हैं जिसका व्यवसाय चलता है तो वह उधारीण्
. लड़का पढ़ा . लिखा हैण्खेती . किसानी करना नहीं चाहताण् अपना हित . अहित की समझ उसे भी हैण् पढ़ . लिखकर हल जोंते क्या यह उचित है घ्
. यहीं पर तो हम मात खा जाते हैंण् यदि सभी पढ़े लिखे लोग यही सोचने लगे तब खेती कौन करेगा घ् अन्न आयेगा कहॉँ से घ् एक बात याद रखनी चाहिए कि जो जितना अधिक पढ़ा लिखा होता हैण् खेती करता है तो वह अधिक अन्न उत्पन्न करने की क्षमता रखता है ण्पढ़ा . लिखा व्यक्ति अत्याधुनिक कृषि करके कृषि उत्पादन में बढ़ोत्तरी करता हैण् पर पता नहीं आजकल के बच्चों को क्या हो गया है ए जरा सा पढ़ा लिखा नहीं कि वह दूसरे के घर नौकरी करना चाहेगा या फिर व्यवसायण्
. तुम सदैव अपनी बात मनवाने तर्क पर तर्क देते होण्
. मैंने जीवन का कटु अनुभव किया हैण् मैं कोई जीवेश का शत्रु तो नहींण् मैं भी उसका हित चाहता हूं पर उसकी माँग मुझे उचित नहीं लगतीण् क्या तुम भी यही चाहती हो कि हम उस व्यवसाय के लिए अपनी जमीन बेचकर राशि झोंक दें जिसके विषय में हमें जरा भी जानकारी न हो घ्
मॉँ . पिता में चल रहे वार्तालाप को जीवेश सुन रहा थाण् पिता के कठोर वाक्य को जीवेश सह नहीं सकाण् वह सामने आयाण् कहा . दद्दा आप व्यवसाय के लिए पैसा नहीं देना चाहते ए न दे पर याद रखे मैं खेती . किसानी नहीं करुंगा यानि नहीं करुंगाण्
. तेरी मर्जी में जो आता है करण्ण्ण् मुझे यह मंजूर नहीं कि खेती बेचकर व्यवसाय कराऊं ण्
बहस बढ़ती इससे पहले जीवेश वहां से चलता बनाण्
रात गहरा चुकी थीण्जीवेश अब तक लौटा नहीं थाण्उसकी मां मालती की आँख नहीं लग पायी थीण्गोविन्द खर्राटे भर रहा थाण्मालती की द्य्ष्टि बराबर दरवाजे पर टिकी थीण् मालती को लगा रात गहरा चुकी हैण्उसने खर्राटे भर रहे गोविन्द को झकझोर कर कहा . तुम खर्राटे भर रहे होण्जीवेश अब तक नहीं आया हैण्
. आ जायेगाण्ण्ण्ण्।
गोविन्द ने करवटे बदलते हुए नींद में ही बड़बड़ायाण्मालती सोने का प्रयास करती रही पर नींद आंखों से दूर हो चुकी थीण् अब मालती के मन में तरह . तरह की शंकाएं . कुशंकाएं जन्म लेने लगीण्उससे रहा नहीं गया तो उसने फिर से गोविन्द को झकझोरा . तुम्हें जरा भी चिंता नहींण् पता नहींए लड़का कहां चला गया होगा घ्
. तुम जैसी माताओं की वजह से ही संताने बिगड़ती हैण् अरीए वह आ जायेगा नण् तुम खुद सोती नहीं जो सोया है उसे टोचक . टोचक कर उठाती होण् तुम चुपचाप सो क्यों नहीं जाती घ् गोविन्द ने झल्लाकर कहा ण्
. तुम पता क्यों नहीं कर लेते घ्
. क्या पता करुंए कहां पता करुंण् गया है तो आयेगा ही ण्ण्ण्ण्ण् ।
और फिर गोविन्द की आँख लगने  लगीण् रात गहराने के साथ मालती समय का अंदाजा लगाती रहीण् आधी से भी ज्यादा रात गुजर चुकी थी पर जीवेश का पता नहीं थाण्पुत्र के इंतजार में मां की आंख कब लगी वह जान नहीं पायीण्पहट होने के साथ उसकी आंखें खुलीण्जीवेश आया नहीं थाण् गोविन्द अब तक नींद में ही थाण्मालती ने कहा . तुम घोड़े बेचकर सो रहे होण् तुम्हारा लड़का रात भर नहीं आयाण्इसकी जानकारी तुम्हें  हैण्ण्ण्ण्ण् घ्
अब गोविन्द रटपटायाण् कहा . क्याण्ण्ण् जीवेश रात भर नहीं आयाण्ण्ण् घ्
. नहींए मैं झूठ बोल रही हूंण्ण्ण् । मालती ने झल्लाकर कहाण्
नींद खुलते ही गोविन्द की आदत लोटा लेकर दौड़ने की थी पर आज वह इस आदत को बिसर गयाण्वह दौड़ा दिलीप के घर की ओरण्दिलीपए जीवेश का अभिन्न मित्र थाण् जब दिलीप से उसने जीवेश के संबंध में पूछा तो दिलीप ने बताया . कल कोई तीन . चार बजे के लगभग उससे मेरी मुलाकांत हुई थीण्उसके बाद वह कहां गया मैं भी नहीं जानताण्वह कुछ उदास सा थाण् घर में कोई बात हो गयी क्या काका घ्
. बात कोई बहुत बड़ी नहीं थी दिलीपण्वह चाहता है मैं जमीन बेचकर उसे व्यवसाय करने पैसा दूंण् अब तुम ही बताओए क्या व्यवसाय करने के लिए जमीन बिगाड़ना अच्छी बात है घ्
. काका आप भी नए यदि वह चाहता है व्यवसाय करना तो आप उसे रुपये क्यों नहीं दे देते घ्
. पर मेरे पास इतने रुपये नहीं है कि बिना जमीन बिगाड़े उसे दे सकूं ण्
. एक ही तो लड़का हैण् उसकी इच्छा पूरी नहीं करोगे तो काम कैसे बनेगाण् अब पता नहीं वह कहां गया होगाण्मेरी मुलाकात तो हुई थी पर उसने ऐसा कुछ नहीं बताया कि वह कहां जायेगाण्उसने इतना अवश्य कहा था . खेती . किसानी मुझसे होगी नहींण् कहीं जाकर नौकरी करनी पड़ेगीण् मैं तैयार होकर पता करता हूं वह कहां गया होगाण्ण्ण्ण् ।
दिलीप तैयार होने चला गयाण् चाय आ गयी थीण् चाय की चुस्की लेते हुए उसका मन अशांत थाण्उसके भीतर एक प्रकार से अज्ञात भय घर करता जा रहा थाण् उसमें विचार उठने लगा था कि जीवेश कोई ऐसी . वैसी कदम न उठा ले जिससे उसे परेशानी में पड़ना पड़ जायेण्चाय खत्म कर उसने खाली कप जमीन पर रख दियाण् दिलीप तैयार होकर आयाण् गोविन्द ने कहा . मैं उसकी बात मानने तैयार हूंण् भले ही जमीन बेचनी पड़े मैं उसे व्यवसाय करने पैसा दूंगाण्
दोनों निकल पड़े जीवेश की खोज मेंण् वे सारा दिन आसपास के गाँवों में जीवेश की खोज करते रहेण् उसकी खोज खबर लेते रहेण् सारा दिन निकल गयाण् जीवेश का कहीं पता नहीं चलाण्उनके अन्य संगी साथियों से जानकारी लेने का प्रयास किया गया पर किसी ने भी जीवेश के संबंध में कुछ नहीं बता सकाण्संध्या थके . हारे दोनों वापस गांव आ गयेण्घर पहुंचते ही उसकी पत्नी मालती ने पूछा . जीवेश का कहीं पता चलाण्ण्ण्ण् ।
. नहींण्ण्ण्ण्ण् ।
गोविन्द पूरी तरह थक चुका थाण्
दिन सरकता गयाण्गोविन्द ने सभी संभावित जगहों पर जीवेश का पता लगाया पर आशा जनक खबर कहीं से नहीं मिलीण्इसी तरह दिन महीना में बदल गया और छै माह हो गयेण्जीवेश का कहीं पता नहीं चलाण्एक बार तो गोविन्द के मन में इश्तिहार निकलवाने का विचार आया पर वह यह सोच कर चुप रह गया कि जीवेश आज नहीं तो कल अवश्य आयेगाण्गोविन्द आशावान था पर छैमाह बाद भी जीवेश न खुद आया और न उसकी चिठ्ठी . पत्री आयीण्मां की आंखें  रो . रो कर पथरा गयी थीण् सोच . सोच कर गोविन्द का मन बैठ गया थाण्
उस दिन छपरी की खाट पर पड़े गोविन्द कवेलू वाले छानी को निहार रहा थाण्पास ही बैठी उसकी पत्नी मालती चांवल साफ कर रही थीण् सूपे की थाप के साथ ही गोविन्द का विचार रफू चक्कर हो जाताण्अभी भी वह जीवेश के बारे में सोच रहा थाण् सूपे की थाप के बीच ही उसे अनुभव हुआ कि किसीने घर के दरवाजे की कुण्डी खटखटाया हैण् उसने मालती से कहा . लगता है किसी ने कुण्डी खटखटायीए देखो तो घ्
मालती चांवल भरे सूपे को वहीं पर रखकर दरवाजे की ओर दौड़ीण् दरवाजा खोलकर देखीण् सामने पोष्टमेन खड़ा थाण् उसने एक पत्र मालती को थमा दियाण्मालती गोविन्द के पास आयीण्पत्र उसकी ओर बढ़ाते हुए बोली . पोष्टमेन आया थाण् ये चिठ्ठी दे गयाण्ण्ण्।
क्षण भर देर किये बगैर गोविन्द खाट से उठाण् पत्नी के हाथ से पत्र लियाण् तुरंत खोलाण्यह पत्र उसके पुत्र जीवेश का थाण् मालती ने पूछा . किसकी चिठ्ठी है ण्ण्ण् घ्
. जीवेश काण्ण्ण् । गोविन्द की आँखों में चमक आ गयीण्उसने चिठ्ठी पढ़ना शुरु कियाण् पता नागपुर का दिया थाण्वह तुरंत तैयार हुआ और घर से निकलने लगाण्
मालती ने पूछा . कहां जा रहे होण्ण्ण् घ्
. मैं दिलीप के पास जा रहा हूंण् आज ही नागपुर जाकर जीवेश को ले आता हूंण्
इतना कह कर वह दिलीप के घर की ओर दौड़ाण् दिलीप घर पर ही थाण् दिलीप ने गोविन्द को देखकर कहा . कैसे आना हुआ काकाण्ण्ण् घ्
गोविन्द ने चिठ्ठी उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा . ये जीवेश की चिठ्ठी आयी हैण् वह नागपुर में रहता हैण्बेटाए उसे कैसे भी करके ले आओण् अब वह जो चाहेगाए वही होगाण्
गोविन्द का मन अधीर हो उठाण्दिलीप ने चिठ्ठी लेकर पढ़ाण् कहा . काकाए मैं कल ही नागपुर जाकर उसे ले आता हूंण्ण्ण् ।
. कल क्यों ण्ण् आज क्यों नहीं ण्ण्ण् घ्
. अभी कहां गाड़ी मिलेगी काकाण्ण् कल सुबह की गाड़ी से चला जाऊंगाण् देर रात तक उसे लेकर लौट आऊंगाण्
गोविन्द का मन उदास हो गयाण्गोविन्द चाहता था . दिलीप अभी जायेण् जितनी जल्दी हो सके लाल को लेकर आये पर यह संभव था ही नहीं उसे एक दिन प्रतीक्षा करनी ही थीण्
दूसरे दिन दिलीप नागपुर जाने के लिए निकल गयाण्जब दिलीप प्रस्थान कर रहा था तो न सिर्फ गोविन्द अपितु उसकी पत्नी मालती ने भी कई बार कहा . उसे लेकर ही आनाण्वह जो चाहेगाए जैसा चाहेगाए अब घर में वही होगाण्पुत्र के लिए वह धरती का मोह त्याग देगा कहाण्
दिलीपए जीवेश के बताये पते पर पहुंच गयाण्दिलीप को देखकर जीवेश ने उसे गले से लगा लियाण् दिलीप ने कहा . तुम यहां मजे में होए वहां तुम्हारी मां का रो . रो कर बुरा हाल हो गया हैण् तुम्हारे पिता सोच . सोच कर दुबले हो गये हैंण्ण् चलो गाँवण्ण् ।
. नहीं मित्रए मैं गाँव नहीं जाऊंगाण्ण्ण् ।
. तुम व्यवसाय करना चाहते हो नए मैंने काका को समझा दिया हैण् वे तैयार हैंए खेत बेचकर पैसा देने के लिएण्ण्।
. यदि नहीं दिए तोण्ण् घ्
. क्या तुम्हें मुझ पर विश्वास नहींण्ण् घ्
यदि जीवेश का सबसे विश्वसनीय मित्र था तो वह दिलीप ही था ण् उसने कहा .तुम कैसी बातें करते होण्मुझे तुम पर उतना विश्वास है जितना स्वयं पर नहींण्ण् ।
. तो फिर चलोए मैं तुम्हारे विश्वास का खून नहीं होने दूंगाण्
दिलीप तैयार होकर जीवेश के साथ गाँव आ गयाण् जीवेश के आने की खबर गॉँव भर दावानल की तरह फैलीण्गाँव के लोग उसके घर पर आने लगेण् रामदीन ने कहा . बेटाए तुम चले गयेण् वहां सुख शांति से रहे होगे पर पता है तेरे माता . पिता पर क्या . क्या बीता होगा घ् दिन रात ये तुम्हारे नाम लेकर जीते मरते रहे ण्
जीवेश चुप रहाण् उसी समय घनश्याम ने आकर गोविन्द से कहा . मैंने जमीन का सौदा पक्का कर दिया हैण् कल हमें रजिस्ट्री कराने जाना हैण्
. हां ए वह तो करना ही पड़ेगाण्बारिस भी लगने वाली हैण् इससे पहले वह खेत में फसल डालने खेती की साफ सफाई भी तो करेगाण् गोविन्द ने कहाण्
रात होने के साथ एक . एक कर गाँव वाले गोविन्द के घर से छंटने लगेण् दिलीप ने कहा . काका मैं भी चलता हूंण् कल समय पर तैयार हो जाऊंगाण् रजिस्ट्री कराने जाने के लिएण्
अब घर में तीन जन रह गये थेण्गोविन्द ए जीवेश से यह पूछना तो चाहता था . जमीन बेचकर प्राप्त रुपये से कौन सा व्यवसाय करेगा पर वह डर रहा था कि बात बिगड़ न जायेण् उसने जीवेश से कुछ नहीं कहाण्
प्रात: होते ही गोविन्द उठकर तैयार हो गयाण् उसने मालती से कहा . तुम जमीन के कागजात थैली में डाल देनाण् ऐसा न हो कि जाते वक्त उसे ही लेना भूल जाऊंण्
. तुम चिंता मत करोण् मैंने सारे पर्चे पट्टे थैली में डाल दिये हैण्
माता . पिता की वार्तालाप जीवेश सुन रहा थाण्वह अंर्तद्वंद में फंसा था . वह जमीन बिकवा कर जो व्यवसाय करने को सोच रहा है क्या उचित है घ् कहीं वह भविष्य सुधारने की फिराक में उसे अंधेरे में तो नहीं धकेल रहा हैण् दादा . परदादाओं की भावनाओं के साथ कहीं वह खिलवाड़ तो नहीं कर रहा है घ् उसका एक मन कहता . वह जो करने जा रहा है वह उचित है पर दूसरे ही क्षण उसके दूसरे मन उसे भंवर जाल में फंसा देताण्
दस बज चुके थेण्गोविन्द तैयार हो चुका थाण्दिलीप और घनश्याम के साथ जमीन के खरीददार मंगलू उसके घर आयाण्गोविन्द ने जीवेश को आवाज दीण्जीवेश घर पर नहीं थाण्उसने मालती से पूछाण् मालती ने भी अनभिज्ञता जाहिर कीण् अब फिर गोविन्द के मन में शंका सिपचने लगी . कहीं जीवेश फिर से शहर की ओर तो नहीं भाग गया घ् वह बाहर निकलाण् गाँव में तीन . चार लोगों से पूछाण्पर किसी ने संतोष जनक जवाब नहीं दियाण्खेत की ओर से चरवाहा सहदेव आ रहा थाण् उसने गोविन्द से कहा . तुम जीवेश को खोज रहे हो न घ्
. हांए क्या तुमने उसे देखा है ण्ण्ण् घ्
. हांए हांण्ण्ण् मैंने उसे तुम्हारी खेत की ओर जाते देखा है ण्
. क्याण्ण्ण् घ् गोविन्द की आँखें आश्चर्य से फटी की फटी रह गयीण् एक प्रकार से भय भी उसके भीतर सिपचने लगा . जीवेश खेत में जाकर उलटा सीधा न कर लेण् गोविन्दए घनश्याम ए मंगलू और दिलीप के साथ खेत की ओर दौड़ाण्वे खेत की मेड़ पर खड़े होकर एक एक करके आवाज दीण् उधर से आवाज आयी . मैं लीमाही खेत में हूंण् यहां आ जाओ ण्ण् ।
सबके सब लीमाही खेत की ओर दौड़े ण् उन्होंने देखा . जीवेश उथला खेत को खोदने में व्यस्त हैण् वे उसके पास गयेण् गोविन्द ने कहा . ये तुम क्या कर रहे हो घ्
. दद्दा इस पर पानी नहीं चढ़ पाता इसलिए यहां पर अन्न उत्पन्न नहीं होता हैण्उबड़ . खाबड़ जमीन को समतल बनाने में जुटा हूं ण्ण्ण्ण् ।
. अरे ए हमने तो इस जमीन को बेचने का निर्णय ले लिया हैण् अब इसकी सुधार की जिम्मेदारी हमारी नहींण् चलोए हमें इस जमीन की रजिस्ट्री कराने जाना है ण्ण्ण् ।
. नहीं दद्दा अब यह जमीन नहीं बिकेगीण्
और वह उथली जमीन को खोदकर नीचली जमीन में मिट्टी डालने लगाण्ण्ण्ण् ।

आक्रोश

 सुरेश सर्वेद की कहानी
बादल की टुकड़ियों को देखकर विश्राम तिलमिला रहा थाण्मानसून के आगमन की खबर फैली और एक बारिस हुई भीण्फिर बारिस थमी तो बरसने का ही नाम नहीं ले रही थीण्इधर किसान खेत में हल चला चुके थेण्बीज छींच चुके थेण्बीज अंकुरित होने के बजाय सड़ने लगे थेण्अकाल की स्थिति बनती जा रही थीण्उधर देश की सीमा पर लड़ाई चल रही थीण्घुंसपैठियों को खदेड़ने लगे थे रंणबांकुरेण्इन चिन्ताओं से दूर देश के राजनेता चुनाव की तैयारी में लगे थेण्

विश्राम का दिमाग सोच.सोच कर सातवें आसमान पर चढ़ा जा रहा था ण्खींझन इतनी थी कि उसके मुृंह से अनायस गालियां निकल पड़ती.स्साले हरामी के पिल्लों को चुनाव की पड़ी हैण्अब बनाएंगे अकाल और सीमा पर चल रही लड़ाई को चुनावी मुद्दाण्इन नौंटकी बाजों का बिगड़ता भी क्या है घ् देश की जनता की भावनाओं से खेलना ही एक मात्र कार्य है इन हरामखोरों काण्हानि सहते हैं किसानण्भूख सहते हैं इनके बच्चेंण्राष्ट्र को बचाने शहीद होते हैॅ सीमा पर डंटे सैनिकण्उजड़ती हैं मांग उनकी पत्नियों कीण्उनके माता पिता को पुत्र खोना पड़ता हैण्पिता के हाथ का साया उठता है तो उनके बच्चे के सिर सेण्इन सफेदपोशों का क्याघ् शहीद के परिवार जन से मिल कर दो शब्द संवेदना के कह देंगेण्मगरमच्छ के आंसू बहा देंगे और कर्म का इतिश्रीण् खटमल बन राष्ट्र का खून चूसने के अलावा और कर ही क्या रहें है देश के नेताघ्

विश्राम की अकुलाहट बढ़ती जा रही थीण्उसकी नजर कभी आकाश की ओर दौड़ती तो कभी टेलीविजन पर जिसमें देश की सीमा पर हो रही लड़ाई को दिखाया जा रहा थाण्उसकी छटपटाहट बढ़ती जा रही थीण्विद्रोह का मन बनता जा रहा थाण्वह स्वयं से लड़ रहा था कि उसकी पत्नी सुषमा आयीण्बोली.कल रामधन आया थाण्कह रहा था.उसको उसकी मजदूरी चाहिएण्वह बाहर कमाने.खाने जायेगाण्

विश्राम ने ध्यान से पत्नी की बातें सुनीण्उसके ओंठों पर मुस्कान तैर आयीण्उस मुस्कान में कड़वाहट थीण्वह बड़बड़ाया.स्साले लूच्चे.लंफगे और करेंगे भी क्या! पेट भरने शहर जायेगा और खपाएगा शरीरण्यहां लंगोटी लगाकर रहेगाण्शहर की हवा लगी कि टेकनी उतरता नहीं कुल्हे से ण् ण्ण्ण् उसके विचार में परिवर्तन आया.समय की धारा के साथ न बहना भी समझदारी नहींण्ठीक ही हैण्यहां रह कर करेगा भी क्या! शहर जायेगाएरोजी.रोटी के साथ कुछ विकास भी तो करेगाण्यहां भूख काटने को दौड़ेगीण्कर्ज चढ़ेगाण्चोरी चकारी की प्रवृत्ति बढ़ेगीण्उसने सुषमा से कहा.तो उसे उसकी मजदूरी दे देनी थीण्

.खेत का काम अधूरा पड़ा हैण्मजदूरी पाते ही वह शहर भाग जायेगाण्कौन करेगा अधूरा काम घ्

पत्नी के कथन में दम था ण्पर इसमें स्वार्थ भी लिप्त थाण्पत्नी के स्वार्थपन पर फिर एक बार विश्राम के मस्तिष्क में विचार कौंधा.स्वार्थी बन गई है सुषमाण्अपने काम पूरा करने का आस दूसरे से क्यों घ् हमारी इसी कमजोरी का ही तो फायदा उठाया जाता हैण्ऊंगली करता है और शेर के मांिनंद पंजा मारता हैण्खेत हमारा है इसकी देखरेख की जिम्मेदारी हमारी बनती हैण्इसे क्यों किसी दूसरे के कंधे पर डालेघ् क्या इतना कमजोर पड़ गया है खेतिहारों के कंधे घ् मजदूर मेहनत करते हैंण्मजदूरी से जीवन चलाते हैंण्क्या उनकी मेहनताना रोकना मानवता है घ् नहींण्ण्नहींण्ण्। उसने पत्नी से कहा. वह शहर जाये या और कहीं जायेण्हमें क्याण्उसने पूरी ईमानदारी और लगन के साथ काम किया हैण्उसे उसकी मजदूरी दे देनी थीण्खेत का काम साधने का ठेका तो वह लिया नहीं हैण्

पत्नी चुपचाप चली गईण्विश्राम घर से निकल खेत की ओर चल पड़ाण्दूर से खेतों को देख कर उसका मन कुलबुलाने लगाण्उसके मस्तिष्क में चिड़चिड़ाहट पैदा होने लगीण्खेत की मेड़ पर पैर पड़ेण्नजर खेत में दौड़ीण्जोंते.बोये खेतों की मिट्टी सूख चुकी थीण्वह खेत के भीतर घुसाण् एक मिट्टी का चीड़ा;टुकड़ाद्ध उठायाण्उसे हाथ से मसलाण्मिट्टी ऐसे मसल गयी मानोएसूखी रेत होण्उसने कुनमुनाया.इस बार भी अकाल सिर पर मंडरायेगाण् कर्ज चढ़ेगाण्खेती बिकेगीण्हम किसानों से अच्छा तो उन मजदूरों के दिन कटते हैंण्खेत में अन्न उपजे न उपजे उन्हें मजदूरी देनी ही पड़ती हैण्यहां अकाल पड़ा नहीं कि पलायन करने उतावले हो जाते हैंण्शहर में मजदूरी कर जीवनयापन कर लेते हैण्हम मात्र पचास.सौ एकड़ जमीन होने की शेखी बघारते रह जाते हैंण्हाथ क्या खाक लगता हैण्बाहर जाने का भी नाम नहीं ले पातेण्झूठे लिबास ओढ़ेएबड़े होने का दम भरते हैंण्चार जानवर बांध कर बहाना बना देते हैं.बिना मुँह के जानवर को किसके भरोसा छोड़कर जाये घ् मूक जानवरों पर दोषारोपण कर देते हैंण्छि: कितनी घृणित मानसिकता है हमारीण्

विश्राम अब पल भर वहां ठहरने के पक्ष मे नहीं थाण्खेतों की दुर्दशा ने उसके मन को झकझोर कर रख दियाण्उसने एक बार टुकड़ियों में बिखरे बादल को देंखाण्उसके मन में बादल के प्रति नफरत पैदा होने लगीण्गुजरे वर्ष भी बादल घुमड़कर आतेण्बारिस किधर होती थी पता ही नहीं चलता थाण्परिणाम खेत में डाले गये बीज खेत में ही जल गएण्पिछले वर्ष के अकाल की मार से उबर नहीं पाया था और इस साल भी अकाल सिर पर मंडरा रहा थाण्

विश्राम वापस बस्ती की ओर चल पड़ाण्बस्ती में पहुंचकर देखा. मनहरण के घर के सामने भीड़ इक्ठ्ठी हैण्उसने डाकिया को लौटते देखा थाण्वह जानता था.मनहरण का इकलौता बेटा सेना में भर्ती हैण्उसकी भी ड्यूटी उसी क्षेत्र में लगी हैएजहां गोली.बारुद चल रही हैण्उसके भीतर एक अज्ञात आशंका सिपचने लगीण्उसकी चाल बढ़ गयीण्उसे रोने की आवाज सुनाई देने लगीण्वह समझ गया कि कुछ तो गड़बड़ हैण्वह नजदीक गयाण्वहां स्पष्ट हो गया कि मनहरण का इकलौता देश के लिए शहीद हो गयाण्मनहरण सिर पीट.पीट कर रो रहा थाण्विश्राम के पास उसे हमदर्दी के दो शब्द कहने के अलावा और कुछ नहीं थाण्

देश की सीमा की रक्षा करते हुए मनहरण का पुत्र शहीद हो गयाएयह चर्चा कुछ दिनों तक रही फिर धीरे धीरे लोग भूलने लगे और एक दिन ऐसा अवसर आया कि सब भूल ही गएण्

चुनाव सन्निकट थाण्अकाल ने अपन तेवर दिखा दिया थाण्अकाल की विभीषिका से बचने अधिकांश लोग गांव छोड़ चुके थेण्रह गए थे तो विश्राम जैसे किसानण्गांव सूना पड़ गया थाण्खेत सांय.सांय करने लगी थीण्गांव के सूनापन को भंग करती तो चुनाव में लगी गाड़ियांण्लाउडिस्पीकरों की आवाजेंण्

उस दिन विश्राम छपरी में खाट डाले लेटा थाण्पत्नी समीप बैठी चांवल साफ कर रही थीण्गांव के चौराहे पर लाउडस्पीकरों से आवाज गूंज रही थीण्विश्राम जानता था.आज दो प्रतिद्वंदी आपस मे टकरायेंगेण्दोनो नेताओ के लिए दो राजनीतिक दलों मे बंटे ग्रामीण अलग.अलग मंच बना रखे थेण्नेताओ ंके आगमन होते ही लाउडिस्पीकरों से उनके आगमन की खबर फैलाने का काम शुरु हो गयाण्आवाज विश्राम के कान तक पहुंचीण्उसने उधर ही कान दे दियाण् आए नेता भाषण ठोंक रहा था.बार.बार चुनाव का भार जनता पर पड़ती हैण्दुख की बात है कि कुर्सी हथियाने के फिराक में सरकार गिरा दी जाती हैण्चुनाव की स्थिति निर्मित कर दी जाती हैण्यह वह नेता था जिसकी सरकार थी और वह गिर गयी थीण्विपक्ष के नेता की आवाज आयी.आज देश में विदेशी शक्तियां काबिज होती जा रही हैण्देश की सीमा रक्षा करने हमारे जवान अपनी जान की बाजियां लगा रहें हैंण्इस गांव की मिट्टी ने भी एक जवान ऐसा दिया जिसने अपनी धरती मां की लाज रखने अपनी जान दे दीण्यदि हमारी सरकार रहती तो यह दिन देखने नहीं मिलताण्

विश्राम एक.एक शब्द को गांठ मे बांध रहा थाण्शहीद के नाम पर नेता वोट बटोरने भाषण ठोंक रहा था और विश्राम के तन बदन में आग लग रही थी ण्वह खाट से उठा और पटाव की ओर बढ़ाण्पत्नी सूपा चलाना भूलएविश्राम की ओर देखने लगीण्विश्राम पटाव से नीचे आया तो उसके हाथ में वह लाठी थी जिसे उसने वर्षों पूर्व पकने के लिए रख दिया थाण्लाठी पक कर काली और वजनदार हो गई थीण्विश्राम का चेहरा क्रोध से फनफना रहा थाण्पत्नी अवाक थीण्उसने साहस एकत्रित कर पूछा. लाठी लेकर तुम किधर चले ।

विश्राम ने पत्नी पर एक नजर डाली ण्उसकी आंखों से क्रोध झलक रहा थाण्कहा. मंच पर जो राजनीतिक रोटी सेंक रहे हैं उन्हें इस लाठी का कमाल दिखानेण्ण्ण्।

विश्राम जिधर से आवाज उभर रही थी उधर बढ़ गयाण्ण्ण्ण्।

हलकू इक्कीसवीं सदी का



 सुरेश सर्वेद की कहानी

हलकू शहर से वापस अपने गाँव आ गया। उसके पास अब लबालब सम्पति थी। धन दौलत के कारण ग्रामीण उसे अब हलकू कहने से परहेज करने लगे। अब वह सेठ के नाम से पुकारा जाने लगा। उसे भरपूर मान सम्मान मिलने लगा, जो लोग हलकू को देखकर कन्नी काटते थे वे ही लोग उसके करीबी हो गये थे।
आज से कुछ वर्ष पूर्व हलकू इसी गाँव का एक छोटा किसान था। यहां थोड़ी सी खेती थी। उसमें फसल उगा कर जीवन यापन करता था। एक समय नील गाय उनकी खेतों की फसलों को चर गयी। उसकी पत्नी मुन्नी ने कहा - '' यहां हर साल यही हाल होता है। फसल बर्बाद होती है। साहूकारों का कर्ज अदा नहीं होता। ऊपर से और कर्ज चढ़ते जाता है। इससे अच्छा तो शहर जाकर काम करते। वहां दो वक्त की रोटी तो चैन से मिलती। कुछ बचा भी लेते .............।''
मुन्नी की सलाह हलकू को पसंद आयी। उसने कहा - '' तुम्हारा कहना गलत नहीं। शहर में कैसी भी स्थित में दो वक्त की रोटी तो मिलेगी ही साथ ही मैं '' पूस की रात'' में ठण्ड सहने से भी बच जाऊंगा । यहां तो ठण्ड सहते प्राण ही निकल जायेगे।
दूसरे दिन वे शहर जाने निकल गये। सही समय पर वे रेल्वे स्टेशन पहुंचे। वहां उनके साथ जबरा भी आया था। वह रेल छूटने के बाद वापस लौट गया था, उदास निराश .........।
हलकू ने शहर की चकाचौंध को देखा तो देखते ही रह गया। उसने तो आज तक गांव में झोपड़ियां, टूटी - फूटी खपरैल का मकान ही देखा था। वहां गाड़ी के फिसलते चक्के को देख कर हलकू ने सोचा - '' मैंने ठीक ही किया जो कि जबरा को अपने साथ यहां नहीं लाया । यहां के फिसलते चक्के में आकर पीस जाता तो.......।''
हलकू ,मुन्नी को काम मिलने में देर नहीं लगी। उन्हें मकान बनाने का काम मिला। उनकी कमाई दिन दुनी रात चौगुनी होने लगी। जीवन में सुख आता गया। हलकू की इज्जत बढ़ती गई। एक अवसर ऐसा आया कि वह मजदूरी छोड़ कर स्वयं ठेकेदार बन गया। हलकू के ठेकेदार बनते ही मुन्नी घर पर रहने लगी। उनकी आमदनी बढ़ी साथ ही उनके रहन सहन में भी बदलाव आ गया। जहां हलकू सफारी पहनता था वहीं मुन्नी ऊंची से ऊंची साड़ी पहनने लगी। हलकू के पास अत्याधुनिक समान हो गये। टी:वी:सोफा,कूलर,फ्रीज़,चार पहिया वाहन के अतिरिक्त उसका बैंक बैलेन्स भी बढ़ गयी और मुन्नी जवाहरो से लद गई। अब उन्हें झोपड़पट्टी में रहना रास नहीं आ रहा था वे एक कालोनी मे रहने आ गये। कालोनी ऐसी थी जहां समाज के तथाकथित सभ्य और उच्चवर्गीय लोग रहते थे। वहां की महिलाओं से मुन्नी की जान पहचान बढ़ गयी।
एक दिन मुन्नी हरजीत कौर के घर गयी। वहां उसने बंटी नाम का एक विदेशी नस्ल का कुत्ता देखा। उसे जबरा की याद हो आयी। उसने जबरा का जिक्र हरजीत कौर के सामने नहीं किया। आखिर जबरा देशी नस्ल का कुत्ता था। उसका जिक्र करती तो उसकी इज्जत पर आंच आ सकती थी। शाम को जब हलकू घर आया तो मुन्नी ने बंटी की तारीफ में ऐसा पुल बांधा कि हलकू भी विदेशी नस्ल के कुत्ते से प्रभावित हो गया। उसने दूसरे ही दिन एक कुत्ता खरीद कर ले लाया वह भी विदेशी नस्ल का। उन लोगों ने उसका नाम '' टीपू '' रख दिया।
टीपू बहुत ही नखरे बाज था। वह दिन भर घर में उधम मचाता। मुन्नी को उसके साथ खेलने में खूब मजा आता था। टीपू जिधर दौड़ता मुन्नी उसके पीछे दौड़ती और उसे उठाकर चुम लेती। हलकू भी काम से आते ही उसके साथ खेलने लग जाता था। उसे कभी कंधे पर बिठता तो कभी सीने से चिपका लेता। उसे दुलारता.पुचकारता..........।
सुख सुविधा बढ़ने के साथ ही मुन्नी के शरीर में आलस्य घर करता गया। एक अवसर ऐसा आया कि उसने एक काम वाली रख ली। उसके हिस्से में भोजन बनाना छोड़ सभी काम आ गये। अब मुन्नी के पास बहुत समय खाली रहता था । समय का उपयोग करने उसने एक क्लब में सदस्यता ग्रहण कर ली।
जिस दिन मुन्नी ने सदस्यता ग्रहण की, वह बहुत ही खुश थी। उसे उस रात ढंग से नींद भी नहीं आयी। वह देर रात तक क्लब के बारे में ही सोचती रही। उसने क्लब की खूबियां पड़ोसियो से सुन रखी थी। वह जब भी क्लब के संबंध में पड़ोसियों से सुनती उसके भीतर भी क्लब में सदस्यता लेने की चाहत होती और आज उसकी चाहत पूरी हो गयी थी।
पहले दिन मुन्नी सहमी - सहमी थी। वहां की एक - एक गतिविधियों को वह जांचती परखती रही। पहले तो वहां की चकाचौंध ने मुन्नी को आश्चर्य में डाल दिया था। वह झिझक भी रही थी, आखिर वह गाँव की महिला थी। ऐसा वातावरण उसने कभी नहीं देखा था। पहला अनुभव था अत: उसमें झिझक होना स्वाभाविक था। धीरे से वह समय आया कि उसके भीतर का झिझक पूरी तरह खत्म हो गया और वह पूरी तरह खुल गयी।
समय अपनी धुरी पर चलायमान था।
एक रात हलकू ने मुन्नी के समक्ष गाँव जाने का प्रस्ताव रखा। मुन्नी ने सहजता पूर्वक उस प्रस्ताव का समर्थन कर दिया। जब से बहू बन कर आयी थी,मुन्नी उस गाँव की होकर रह गयी थी। उसे वह धरती अपनी धरती जैसी लगने लगी,और किसे अपनी धरती को देखने की चाहत नहीं होती होगी। उसे उन महिलाओं का स्मरण हो आया जो उसके खपते शरीर को देख कर उस पर दया किया करती थी। उनकी गरीबी पर तरस खाया करती थी। उन्हें सांत्वना दिया करती थी।
एक दिन वे शहर छोड़ गाँव आ गये।
जिस दिन वे गांव आये, उनके साथ वे सामान थे जिसे ग्रामीणों ने कभी देखा ही नहीं था। ट्रक से उतरने वाले हर सामान पर ग्रामीणों की नजर जा टिकती। हलकू सीना ताने खड़ा समान उतरवाता रहा। मुन्नी भी वहीं पर खड़ी थी। वह स्वर्णाभूषण से लदी थी। गांव की महिलाएं उसके स्वर्णाभूषण को देखती रही। सामान उतर ही रहा था कि जबरा कहीं से लहसता हुआ आया। वह हलकू के पास पहुंच कर उसे सूंघने लगा। हलकू के फूलपेंट मे जरा सा दाग लग गया। हलकू को गुस्सा आ गया। उसने उसे दुत्कार दिया। जबरा ने एकटक हलकू को देखा। उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि यह वही हलकू है जो उसके साथ चौबीसों घण्टे रहा करता था । पूस की रात में एक साथ खेत में रात काटा करते थे। आव से पार करते थे। वह मुन्नी की ओर लपका। मुन्नी एक कुत्ते को सीने से चिपका रखी थी। जबरा को देख कर वह कुत्ता कुई - कुई करने लगा। जबरा वहां भी दुत्कारा गया। जबरा वहां से छटक कर दूर जा खड़ा हुआ।
हलकू के पास न सोने चांदी की कमी थी न आधुनिक सामानो का। रुपयों से वह भरा पूरा था। कुछ ही दिनों बाद उसके घर बिजली भी लग गयी। बिजली लगते ही उसके घर रंगीन टी वी शुरु हो गयी। अब तो हलकू के घर में वे लोग भी आने लगे जो पूर्व में हलकू से कोई मतलब रखने से भी कतराते थे। हलकू और मुन्नी का व्यवहार जबरा को चुभ गया था। वह समझ नहीं पा रहा था कि ये दोंनों इतना बदल कैसे गये। जबरा ने खाना - पीना त्याग दिया। वह दिन भर हलकू के घर के सामने बैठे हलकू के घर की ओर निहारा करता था। कभी - कभार मुन्नी एक दो रोटी उसे फेंककर दे देती उसे वह सूंघता तो था पर खाता नहीं था। जबरा का शरीर जर्जर होता गया। एक दिन गॉँव में खबर फैली कि जबरा मर गया। खबर हलकू के कान तक पहुंची । खबर सुनते ही हलकू अपनी उस खेत की ओर दौड़ा जहां जबरा मरा पड़ा था। यह वही जगह थी जहां वह पूस की रात में आव जला कर फसल की रखवाली किया करता था। आव से पार करने का प्रयास किया करता था। बीते दिनों की याद से हलकू की आँखें छलछला आयीं। तीन चार दिनो तक हलकू को जबरा की याद सताती रही फिर भूल गया धीरे- धीरे जबरा को हलकू और मुन्नी दोनों....।
हलकू ने किराना की दुकान डाल लिया था। उसकी दुकान चल पड़ी। सहना की दुकानदारी मार खाने लगी। सहना कर्ज में डूबता गया। एक अवसर ऐसा आया कि उसे हलकू से भी उधारी मांगनी पड़ी। खेती खार तो उसके बिक ही चुके थे । जब सहना ने हलकू से उधारी की मांग की तो हलकू को उस दिन का स्मरण हो आया, जब हलकू छोटा किसान था और सहना का उधारी अदा नहीं कर पाया था। कर्ज नहीं लौटा पाने के कारण सहना ने उसे भला बुरा कहा था। हलकू के मन में तो एक बार आया कि सहना को दुत्कार कर भगा दें पर उसने ऐसा नहीं किया। उसने सहना से कहा -  '' सहना,उधारी लोगे तो लौटाओगे कहां से, तुम्हारी खेती - किसानी तो बिक चुकी है और फिर तुम्हारे पास गिरवी रखने का भी कुछ नहीं है। तुम एक काम करो। तुम्हे व्यवसाय का ज्ञान है। तुम मेरे यहां काम करो मैं तुम्हें मेहनताना दूंगा। उससे अपना घर परिवार चलाना......।''
सहना के पास हलकू की बात मानने के अलावा और कोई चारा नहीं था। वह हलकू की दूकान में नौकरी करने लग गया।

जागृति

सुरेश सर्वेद की कहानी
खेत की मेढ़ पर कदम रखते ही मनहरण की दृष्टि खेत के भीतरी हिस्से में दौड़ी। खेतों में बोई फसल को देखकर उसका पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। उसे फसलें दुश्मनों की तरह लगी। वह बौखला गया- सबको जला दूंगा, स्साले मुंह चिढ़ाने उतारु है......।''
यह तो वह क्रोधावेश में कह गया था। वह एक किसान था। खेती किसानी उसका मुख्य कार्य था। जीविकोपार्जन का साधन। कहीं किसान अपनी बोई फसलों से चिढ़ेगा। मगर मनहरण को चिढ़ हुई थी। क्षण भर नहीं सरका था कि उसे अपने बौखलाए पन का ध्यान आया। विचार मे बदलाव आया और उसने स्वत: को कोसने से परहेज नहीं किया - '' मैं कितना मूर्ख हूं, खेत के इन पौधों की क्या गलती। पानी ही न हो तो फिर कहाँ से इनमें हरियाली आयेगी......।'' मनहरण ने मन की कड़ुवाहट को निकालने के लिए पंच सरपंच से लेकर विधायक और मंत्री तक को बड़बड़ा कर गालियां दे डाली - '' भिखमंग्गों की तरह आ जाते हैं स्साले, वोट मांगने। प्रलोभन पर प्रलोभन देते हैं स्वार्थ सधा नहीं कि भूल जाते हैं कहाँ सड़क बनवानी है। कहाँ नहर बांध बनवाना है। कहाँ स्कूल खोलनी है और कहाँ अन्य व्यवस्था देनी है। प्रपंच ही प्रपंच रचते हैं। मिट्टी से भी सस्ती हो चुकी है स्सालों की जुबान......।''
मनहरण के विचार में परिवर्तन आ गया था। उसे जिन फसलो पर क्रोध आ रहा था उन फसलों पर अब दया आने लगी। वह करुणा से ओतप्रोत हो गया। उसकी आँखें छलछला आयी। दो - तीन बूंद आँसू आंखों से छलक कर धरती पर भी गिरे। शेष आँसुओं को गले में पड़े गमछे ने सोख लिया।
उसने एक बार पुन: फसलों पर नजर दौड़ाई, खेत की जमीन को ताका। जमीन में दरारे पड़ गयी थी। फसल अब फसल नहीं रह गयी थी। वह पीली पड़ अब सूखने लगी थी। फसलों की दुर्दशा देखकर उसकी आत्मा कराह उठी। उसका क्रोध भी फनफना उठा। पैर कांप गये। भुजाएं फड़क गयी। भौहें तनी अब उससे फसलो की दुर्दशा देखी नही जा रही थी। वह घर की ओर लौट गया।
बरसात के दिन थे। वातावरण एकदम विपरीत था। वह जल्दी - जल्दी घर आया। क्रोध से वह तप रहा था। घर में प्रवेश करते ही पहले पत्नी पर भड़का फिर बच्चों पर चीखा और अंत में स्वयं पर झुंझलाया। मनहरण की गतिविधियाँ परिवार वालों को समझ आ गयी थी। वे समझ चुके थे कि मनहरण क्रोध से तप रहा है, खैर इसी मे है कि सब अपने - अपने काम में लग जाये। मुन्ना .मुन्नी पुस्तक पढ़ने लगे। पत्नी चांवल साफ करने लगी। मनहरण दीवाल से लगी खाट को धम्म से बिछाया और उसमे चित्त पड़ गया। वातावरण खामोश होना चाहता था पर बार . बार उस शान्त वातावरण में सूपे की थप खलल पैदा कर देती थी।
धरती पुत्र मनहरण शांतप्रिय व्यक्ति था। वह कभी - कभी ही अशांत होता था। जिस दिन वह अशांत होता तो उससे बात करने की तो दूर उससे आंख मिलाने का भी कोई साहस कर ले तो उससे बहादुर और कोई नहीं। शांतिप्रिय व्यक्ति इसलिए क्योंकि वह काफी हद तक अन्याय और अत्याचार को सहने की ताकत रखता था। उसकी इंसानियत तब गड्मड् हो जाती जब अन्याय चरम सीमा को भी लाँघ जाता था। उसके नथुने तब फूलने लगते जब अन्याय ही अन्याय होता चला जाता था। उसकी प्रवृत्ति ठीक उस बाँध के समान थी जो सहनशक्ति तक पानी थामता है और अति हो जाने पर फूट कर तबाही मचा देता है ........।
संध्या का समय था। चिड़ियां दाना चुगकर अपने बसेरों को लौट रही थीं। दुधारु गायें रंभाने लगी थी। बछड़े मां से मिलने आतुर थे। संध्या ने रात का रुप लेना शुरु कर दिया था। अब मंदिर में घंटा - घंटी बजने लगे। आरती की आवाज उभरने लगी। भोजन बन चुका था। मनहरण भोजन करने बैठ गया। वह पहला निवाला मुंह में डालने ही वाला था कि कोटवार की हाँक उसके कान से टकरायी। मुंह तक पहुंचे निवाले को रोककर वह कोटवार की हाँक को सुनने लगा। कोटवार ने रात में पंचायत जुड़ने की मुनादी दी थी।
रात में लोग पंचायत स्थल पर एकत्रित हुए।
गांव से दूर श्मशान था। वहाँ आवारा कुत्ते भौकने लगे थे। कुत्ते एक दूसरे को अपनी आवाज द्वारा परास्त करने के प्रयास में थे। कुत्तों की स्वर लहरी गाँव तक पहुंच रही थी।
इस गाँव का रिवाज ही अजीब था। जब . जब यहाँ पंचायत जुड़ती। मुद्दे की बातों पर बहस न होकर विषयांतर हो जाया करता था। बहस छिड़ती और ग्रामीण आपस में टकराने लगते। बैठक में अनेक ग्रामीण उपस्थित होते और खासकर तब जब मजेदार विषयों पर पंचायत जुड़ती थी। गड़े मुर्दे तो उखाड़े ही जाते साथ ही जिसके विरुद्ध पंचायत जुड़ती उसकी भी हंसी उड़ा दी जाती थी।
पंचायत लगभग जुड़ चुकी थी। पंचायत किस विषय को लेकर जुड़ी थी यह उत्सुकता का विषय था। सरपंच के कहने पर ही यह पंचायत बुलायी गयी थी। उसने कहना शुरु किया - '' आज पंचायत कुछ ऐसे मुद्दों को लेकर बुलायी गयी है जो गंभीर समस्या है, नहर बनवाने को लेकर पंचायत जोड़ी गयी है। प्रश्न यह है कि यदि नहर निकालते समय किसी की जमीन आयी तो वह जमीन देगा या नहीं। जब सबकी सहमति मिलेगी तभी नहर बनाने आगे की प्रक्रिया की जायेगी।''
. हमें भला क्या आपत्ति होगी यदि हाथ दो हाथ जमीन देना पड़े तो इसमे आपत्ति कैसी। कम से कम नहर बनने के बाद हमें अवर्षा के समय पानी तो भरपूर मिलेगा ।''  लगभग सभी ग्रामीणों का यही विचार था।
. अगर आप सब सहमत हैं तो समझो प्रस्ताव तो भेज ही दिया गया साथ ही नहर भी यथा संभव शीघ्र बन जायेगी।''
पंचायत में ही कार्यवाही की गई। नहर कहाँ से निकलनी है यह तो विभागीय कार्य था बावजूद ग्रामीणों ने एक रुपरेखा तैयार की जिससे सभी को बराबर का पानी मिल सके। इसके बाद ग्रामीण अपने - अपने घर लौट गये।
उस बैठक के बाद ग्रामीण आगे क्या कार्यवाही होने वाली है को जानने उत्सुक थे। एक दिन गांव भर खबर फैल गयी कि जिस स्थान से नहर बनाने का प्रस्ताव तैयार किया गया था उस दिशा को विभाग ने सही नहीं माना और ऐसी दिशा तय की गई जिधर से नहर निकलने के बाद मुश्किल से बीस प्रतिशत कृषि भूमि को पानी मिल सकता था। इससे गाँव का हित तो होता अपितु गांव के कई किसानों की जमीन दब अवश्य जायेगी। इस खबर से गाँव में कानाफूंसी होने लगी और चर्चा तो यहाँ तक चल पड़ी कि जिस दिशा से नहर निकालने विभागीय कार्यवाही की जा रही है, उधर सरपंच की ही सबसे ज्यादा खेती है। खबर मनहरण के कानों तक पहुंची। वह सीधा सरपंच के घर गया। सरपंच घर पर ही था उसने मनहरण को देखकर कहा - आओ मनहरण, बोलो कैसे आना हुआ.......।''
. सुना है. विभाग ने दिशा बदल कर नहर बनाने की प्रक्रिया शुरु कर दी है......।''
. तुमने ठीक ही सुना है........।''
. मगर ऐसा क्यों हुआ .....।''
. तुम तो यह जानते ही हो कि पूर्व से पश्चिम हमने नहर निकालने प्रस्ताव तैयार किया था। उत्तर .दक्षिण गाँव होने के कारण हम गाँव के समीप से नहर नहीं चाहते थे। मगर विभाग का कहना है कि उत्तर से दक्षिण नहर नहीं बनाई जा सकती क्योंकि इससे जंगल की करोड़ों रुपयों की लकड़ियाँ काटनी पड़ेंगी। वन भूमि नहर के चपेट में आयेगी जबकि यह सुरक्षित वन क्षेत्र है। सुरक्षित वनक्षेत्र से लकड़ियाँ भी तो नहीं काटी जा सकती। इससे दो विभागों मे टकराव की स्थिति निर्मित होगी और इस विवाद के मध्य हम कई वर्षों तक नहर पाने से वंचित रह जायेंगे।
. अब क्या होगा सरपंचजी।'' मनहरण की आवाज में उदासी थी।
. यही तो मैं भी सोच रहा हूं मनहरण, आज रात फिर बैठक रखा हूं।''
मनहरण ने सरपंच से विदा ली और लौट आया।
रात को फिर पंचायत जुड़ी।
सरपंच ने कहा -'' तुम सबको यह पता चल ही चुका होगा कि विभाग द्वारा नहर की दिशा बदल दी गई है। मैं आप लोगों से सलाह लेना चाहता हूँ कि अब क्या करना चाहिए, क्या हमें विभाग द्वारा निर्धारित दिशा से नहर बनने देना चाहिए। आप अपनी बात रख सकते हैं .......।''
सरपंच के सामने मुंह खोलने का साहस गाँव वाले तो क्या वे लोग भी नहीं कर पाते थे जिन पंचों के भरोसे उनकी कुर्सी टिकी हुई थी। इसी का परिणाम था कि सरपंच को जो उचित लगता वही होता था। मगर आज तो किसी को कुछ बोलना ही था यदि नहीं बोला गया तो सरपंच मनमानी करके नहर निकलवा देगा और उसका पानी स्वयं के खेतों तक पहुंचवा देगा यह गांव वाले जान चुके थे। मगर बोले तो बोले कौन। अभी ग्रामीण उधेड़ बुन में थे कि मनहरण ने ग्रामीणों से कहा -'' यदि आप सबकी सहमति हो तो मैं अपनी बात रखूं।''
ग्रामीणों ने मौन स्वीकृति दी। मनहरण ने कहा -'' आज से दस वर्ष पूर्व की घटना आप सबको याद ही होगी। अकाल की मार झेले थे हम सब। त्राहि - त्राहि मची थी। पानी के अभाव में फसल तो हुई नहीं हम अपने जानवरो को भी नहीं बचा सके। कईयों की जमीनें पानी के मोल बिक गयी। गाँव के कई परिवारों ने रोजी रोटी के लिए परदेश पलायन कर लिया। तब भी हम गंभीर हुए थे और नहर की मांग की थी। हम वर्तमान में जिन स्थानों से नहर निकालने का प्रस्ताव पारित किए हैं पहले भी उसी दिशा से नहर निकालने की माँग की गई थी तब उसे स्वीकृति भी मिल गयी थी मगर अब सरपंच का कहना है कि सुरक्षित वन के कारण विभाग उधर से नहर निकालने की अनुमति नहीं दे रहा है ........।''
बैठक में पूरी तरह सन्नाटा छा गया । पूरा गाँव मनहरण की बात को गंभीर होकर सुन रहा था । मनहरण ने आगे कहा -'' आप सब यह भी जान रहे हैं कि जिस दिशा से हमने नहर निकालने की मांग की थी उस दिशा से नहर बनाना भी शुरु हो गया था।  कुछ दिन काम भी चला फिर अचानक बंद कर दिया गया और फिर चूँकि बरसात लग गयी, अत: बीच में काम रोक दिया गया। क्या तुममे से कोई जानता हैं।
ग्रामीणों को तो कुछ समझ नहीं आ रहा था मगर सरपंच सब कुछ समझ गया था। मनहरण ने कहा -'' सरपंच साहब से मैं कुछ प्रश्न करना चाहूंगा यदि उन्हें कोई आपत्ति न हो तो।'' .
- मुझे भला क्यों आपत्ति होने लगी। तुम निश्चिंत होकर प्रश्न करो मैं उत्तर दूंगा।'' .
- जिन दिनों हम अकाल की मार सह रहे थे, उन दिनों भी आप ही सरपंच थे न ।'' .
- तुम्हारा कहना गलत नहीं, वास्तव में उन दिनों मैं ही सरपंच था।
- तब भी नहर निकालने की योजना बनी थी। योजना ही नहीं बनी थी अपितु काम भी शुरु हो गया था और कुछ दूर तक उसी ओर से नहर बनने का कार्य सम्पादित हो रहा था जिधर से वर्तमान मे मांग की गई है। प्रथम प्रश्न यह है कि नहर बनते बनते आखिर क्यों रोक दिया गया। दूसरा यह कि जिस ओर से नहर पूर्व में बनाने स्वीकृति दे दी गई थी उसमें फिर अड़ंगा क्यों ।''
- तुम्हारा प्रश्न ठीक है, पूर्व में जो रुपये मिले थे वह खर्च हो गए अत: काम अधूरा रह गया। पता नहीं शासन अब उस दिशा से नहर निकालने क्यों सहमत नहीं है .......।''
- आप और कितना झूठ बोलेगे सरपंच साहब.......।'' मनहरण की आवाज तेज हो गयी। उसने कहा- आखिर आप कब तक हम ग्रामीणों को बेवकूफ बनाते रहेंगे......।'' वह ग्रामीणों की ओर मुखातिब हुआ-'' गाँव वालो शायद आप लोगों को सच्चाई का ज्ञान नहीं इसलिए इनकी बातों पर आंखें मूंद कर हम सहमत हो जाते हैण् पूर्व में नहर बनते-बनते इसलिए रोक दी गई क्योंकि शासन से राशि तो पर्याप्त मिली थी मगर उसमें अधिकारियों से मिल कर भारी मात्रा में भ्रष्टाचार किया गया। राहत राशि का दुरुपयोग किया गया। इसलिए शासन ने जांच का आदेश देकर काम रुकवा दिया जाँच भी शुरु हुई मगर खा पी कर मामला रफा . दफा कर दिया गया। जिस नहर नाली की माँग हम कर रहे हैं। कागजों में बन चुकी है क्या एक काम के लिए दो दो बार राशि दी जा सकती है । दूसरी बात यह कि जिधर से सरपंच नहर निकलवाने की योजना बना रहे है .मुझे बताएँ कि इससे क्या सरपंच के सिवा हम किसी को लाभ मिल सकता है ......।''
ग्रामीणों में कानाफूसी शुरु हो गयी। उन्हें एक एक प्रकरण याद आने लगा। मनहरण ने आगे कहा -''क्या अब भी हम ऐसे भ्रष्ट और स्वार्थी सरपंच को बर्दाश्त करते रहेंगे। क्या हम छले जाते ही रहेगे। क्या हमने सोचने - समझने की शक्ति खो दी है। क्या हमें अब ऐसे नाकाबपोश सामजसेवियों की असलियत समाज के समक्ष नहीं रख देनी चाहिए ......।''
मनहरण हाँफ गया था। सरपंच हड़बड़ा गया था और ग्रामीण उत्तेजित हो गए। किसी एक ने आवाज दी - '' सरपंच मुर्दाबाद .....।'' इसी के साथ पूरी जनता जनार्दन '' मुर्दाबाद .मुर्दाबाद '' के नारे लगाने लगे। सरपंच वहां से खिसकने की सोच रहा था पर भीड़ से वह बचता तो बचता कैसे। लोहा गरम था। मनहरण ने कहा - ऐसे सरपंच को हम पद से हटा कर ही दम लेंगें ......।'' वहां सभी वार्डो के पंच भी उपस्थित थे। आनन - फानन में सचिव को बुलाया गया। सरपंच को अपदस्थ करने का प्रस्ताव तैयार किया गया। सरपंच के विपक्ष मे पूरे आठों पंच उतर आये। एकतरफा कार्यवाही हुई और सरपंच को हटाने की कार्यवाही कर शासन को भेज दिया गया। कुछ दिनों बाद गाँव में एक और नारा गूंजायमान हुआ. मनहरण भइया ......।''
- '' जिन्दाबाद ''
-''.मनहरण भइया''
-'' जिन्दाबाद।'' .
- '' गांव का नेता कैसा हो''
-'' मनहरण भइया जैसा हो.......।''
और इसी के साथ गांव जाग गया.....।

शनिवार, 27 अप्रैल 2013

वसुन्धरा

 सुरेश सर्वेद की कहानी -

सुरेश सर्वेद
हरनारायण की चाहत थी - उसके घर भी एक गाय हो. इस चाहत को पूरा करने वह उसके घर पहुंच जाता जो गाय बेचने के इच्छुक होता. दुर्भाग्य-वह जब पहुंचता गाय बिक चुकी होती. वह हताश- निराश घर लौट आता. गाय पालने की ललक उसमें इतनी थी कि वह कैसी भी गाय खरीदने को तैयार था. उसे खबर लगी-हर्षित अपनी बछिया बेचने वाला है . एक बार उसकी आंखों के सामने बछिया झलक गयी. उसकी हड्डियां शरीर से निकल आयी थी. आंखें धंस गयी थी. दो- चार कदम चलने के बाद वह बैठ जाती . कमजोर बछिया की झलक ने उसे रोकने का प्रयास किया मगर उसमें गाय पालने की ललक थी. वह हर्षित के घर जा पहुंचा. उसने सोचा - बछिया अभी बच्ची है. भरपेट दानापानी मिलेगा सही देखरेख होगी तो उसका शरीर भर जाएगा. उसने सौदा किया और बछिया को अपने घर ले आया. उसने उसका नाम वसुन्धरा रख दिया.
हरनारायण प्रातः से ही उसकी देखरेख में लग जाता. उसकी सेवा जतन का ही परिणाम था कि वसुन्धरा का शरीर समय के पूर्व भर गया. वह बछिया से गाय बन गयी. अब वसुन्धरा को देखकर यह नहीं लगता था कि यह वही बछिया है जिसे हरनारायण ,हर्षित से खरीद कर लाया था. एक दिन हरनारायण ने देखा -वसुन्धरा के पीछे तीन-चार सांड पड़े हैं. हरनारायण प्रसन्नता से खिल उठा. उस दिन से वसुन्धरा की सेवा- जतन और अधिक होने लगी.
उन दिनों गांव में गलघोंटू रोग का प्रकोप था.इस रोग ने कई पशुओं की जान ले ली थी जब जब कोई पशु इस रोग का शिकार हुआ , हरनारायण को भय सताने लगा.यहां तक कि उसने उस रात सपने में भी वसुन्धरा को इस रोग से ग्रसित हो छटपटाते देखा.उसने देखा- वसुन्धरा तेज बुखार से तड़प रही है.वह लहक रही है.उसके गले में सूजन आ गयी है.थूंक निगलना भी उसके लिए मुश्किल हो गया है.सामने हरी- हरी घास पड़ी है पर वह खा नहीं पा रही है.उसके घर पशुचिकित्सक आ गया है पर उसने भी प्रयास करके वसुन्धरा को नहीं बचा सका. हरनारायण ,वसुन्धरा से लिपट गया. वह दहाड़ मार कर रो पड़ा.....।
अचानक हरनारायण की नींद टूट गयी. कुछ क्षण वह असमंजस में पड़ा रहा. हरनारायण दबे पांव वसुन्धरा के पास गया . वसुन्धरा आँखे बंद किए कुछ चबुला रही थी. हरनारायण का स्नेह वसुन्धरा के प्रति जाग गया. वह वसुन्धरा पर स्नेह का हाथ फेरना चाहा ,पर ऐसा नहीं कर सका उसे लगा ,स्पर्श से वसुन्धरा की आँख खुल जाएगी ,उसकी नींद उजड़ जाएगी. वह चुपचाप लौट गया.
वसुन्धरा गर्भ से थी. हरनारायण चाहता था- पेट में पल रहा बच्चा ह्ष्ट- पुष्ट हो . वह चुनी खली खरीदने शहर गया. उस दिन वसुन्धरा की देख रेख की जिम्मेदारी उसकी पत्नी कल्याणी पर आ गयी. कल्याणी गृह कार्य में लगी थी. उसकी पुत्री प्रियंका ,वसुन्धरा के पास जा पहुंची. वसुन्धरा बैठी थी . प्रियंका ने उसकी पूंछ पकड़ी . वसुन्धरा रटपटा कर उठ खड़ी हुई. प्रियंका उसके सिर के पास आ गई. उसने वसुन्धरा के कान पकड़ ली. अपनी ओर खींची. वसुन्धरा ने धीरे से सिर हिलाया. प्रियंका के हाथ से उसका कान छूट गया. प्रियंका ने पुनः प्रयास करके उसके कान पकड़ ली. वसुन्धरा ने पुनः सिर हिलाया. कान फिर छूट गया. इस खेल में दोनों को मजा आ रहा था. अचानक वसुन्धरा के खुर में प्रियंका का पैर आ गया. प्रियंका चित्कार मार कर चीख पड़ी. वसुन्धरा को अपनी गलती का ज्ञान हो गया . उसने झट अपना पैर उठा लिया.
प्रियंका की कारुणिक आवाज कल्याणी तक पहुंची. वह दौड़ कर आयी. वह प्रियंका के पैर में खुर का चिन्ह देख कर तड़प उठी. प्रियंका को उठा. वसुन्धरा को गालियां देती घर के भीतर चली गई. वसुन्धरा को अन्जाने में हुई गलती का दण्ड मिला. उसे दिन भर भूखा- प्यासा रहना पड़ा.
हरनारायण शहर से लौटा. वह वसुन्धरा के पास गया. वसुन्धरा गुमसुम बैठी थी. हरनारायण को देख वह उठ खड़ी हुई. हरनारायण ने देखा-वसुन्धरा के पास न खाने को घास है न पीने का पानी. उसने पत्नी कल्याणी को आवाज दी. कल्याणी आयी. आते ही कहने लगी-आज इसने प्रियंका के पैर को कुचल दिया. हरनारायण समझ गया-कारण यही था,वसुन्धरा के पास घास और पानी नहीं होने का . वह विवाद नहीं चाहता था. स्वयं घास लाकर उसने वसुन्धरा के सामने डाल दिया. वसुन्धरा भूखी- प्यासी तो थी ही वह घास खाने लगी.
कुछ दिन बाद वसुन्धरा का प्रसव - पीड़ा उठी. उसने ह्ष्ट-पुष्ट और स्वस्थ बछड़े को जन्म दिया. बछड़ा के जन्म लेतें ही वसुन्धरा उसे चांटने लगी. बछड़ा खड़ा होने का प्रयास करने लगा. कल्याणी सूपे भर धान भर लाई. उसे वसुन्धरा के सामने रख दी. वसुन्धरा धान खाने लगी.
अब हरनारायण के घर दूध होता,पति-पत्नी और प्रियंका छकते तक पीते. बचा हुआ दूध कल्याणी जमा देती. जिससे दही बनता . कल्याणी बिलोकर उससे लेवना निकालती,उसका घी बनाती. मठा पड़ोसियों में बाँट देती.
प्रति संध्या हरनारायण ,वसुन्धरा की प्रतीक्षा करता . वसुन्धरा बाहर से चर कर आती फिर भी हरनारायण उसे दानापानी देने उतावला रहता. प्रतिदिनानुसार उस दिन भी वह वसुन्धरा का इंतजार कर रहा था बर्दी के सभी पशु अपने -अपने घर में आ गए थे पर वसुन्धरा अभी तक नहीं आई थी. हरनारायण हड़बड़ाया. वह बरदिहा रामेश्वर के घर गया. पूछा- वसुन्धरा अब तक नहीं आई है .''

- कैसी बातें करते हो . उसने मेरी आंखों के सामने गांव में प्रवेश किया.''

रामेश्वर का कहना सत्य था. वसुन्धरा उस समय छँट गयी,जब रामेश्वर बर्दी से अलग हो भाग रही गाय को रोकने दौड़ा. जब रामेश्वर उस गाय को रोककर लाया तब तक अनेक पशु घरों में घुस चूके थे . रामेश्वर ने सोचा- वसुन्धरा भी अपने घर चली गई होगी मगर यहां तो वसुन्धरा के घर नहीं पहुंचने की खबर मिल रही थी. रामेश्वर, हरनारायण के साथ आस पास के खेतों को खोजा. वसुन्धरा का कहीं पता नहीं चला.

हरनारायण घर पहुंचा. पत्नी कल्याणी पूछ बैठी- वसुन्धरा का पता चला ?''

-नहीं. . . . . ।'' हरनारायण का उत्तर था.

उस रात हरनारायण को नींद नहीं आयी. बछड़े को भूसा पैरा खाना पड़ा. मां का दूध नहीं मिल पाया था. वह भी रात भर चिल्लाता रहा. जैसे-जैसे बछड़ा चिल्लाता,हरनारायण को वसुन्धरा पर खीझ होती. वह बड़बड़ा उठता-उस कलंकिनी को बच्चे की भी याद नहीं आई. हरनारायण बछड़े को अपने पास ही बांध रखा था. वह उसे सहलाने लगा-चुप बेटा,चुप. रात भर निकाल ले . उसे सुबह खोज लाऊंगा ------।''
बछड़े को सांत्वना नहीं मां चाहिए था. उस रात न हरनारायण सो पाया न ही बछड़ा. जरा सी आहट होती . हरनारायण दरवाजा खोलकर देखता. हर आहट में उसे वसुन्धरा के आने का भान होता.

दूसरे दिन प्रातः होते ही हरनारायण ,वसुन्धरा की खोज में निकल गया. सारा दिन आसपास के गाँवों में ,खेत खार में खोजता रहा . संध्या तक खाली हाथ थके हारे लौट आया. अब हरनारायण का ध्यान ज्योतिष की ओर गया. गांव के देवी- देवताओं का स्मरण किया. मनौतियां मनायी . जिसने ,जिस दिशा को सुझाया,वह उधर ही दौड़ा. पांच दिन - रात एक करने पर भी वसुन्धरा नहीं मिली.

उस रात हरनारायण थककर सो रहा था कि अचानक उसकी नींद खुल गयी बाहर की आवाज को सुनकर . उसके कान में पदचाप की आवाज आ रही थी उसे लग रहा था कि बाहर कोई पशु खड़ा कुछ चबुला रहा है. उसे लगा कि बाहर वसुन्धरा ही खड़ी होगी मगर वह थककर इतना चूर हो चुका था कि उसमें खाट से उतरने की भी शक्ति नहीं रह गयी थी मगर उससे रहा नहीं गया. वह खाट से नीचे उतरा. सोचा-यदि सचमुच वसुन्धरा ही होगी तो . . उसने बड़बड़ाया- पहले तो दो-तीन डंडे लगाऊंगा फिर भीतर लाऊंगा. वह बाहर आया. वास्तव में बाहर वसुन्धरा ही खड़ी थी. उसने सोचा तो था कि वसुन्धरा होगी तो दो-तीन लाठी लगाऊंगा मगर सामने वसुन्धरा को पाकर उसका यह विचार भरभरा गया. उसमें हड़बड़ी मच गयी कि कितनी जल्दी वसुन्धरा को घर के भीतर ले जाएं. उसने वसुन्धरा को भीतर की ओर धकेला. उसकी पत्नी कल्याणी भी जाग चुकी थी. वह वसुन्धरा को दाना पानी देने में पति का सहयोग करने लगी.

वसुन्धरा का ध्यान दाना-पानी पर नहीं लग रहा था. उसका ध्यान बछड़े की ओर दौड़ रहा था. बछड़े को माँ के आगमन का भान हो चुका था वह हम्मा- हम्मा चिल्लाने लगा. वसुन्धरा का ममत्व उमड़ पड़ा. वह भी चिल्लाने लगी. हरनारायण ने बछड़े को खोल दिया बछड़ा मां के पास पहुंचा भी नहीं था कि वसुन्धरा के स्तन से दूध की धारा फूट पड़ी. बछड़ा दौड़कर मां के पास आया. वह स्तनपान करने लगा. वसुन्धरा,बछड़े को चाटने लगी.

समय चक्र क्रियाशील था. वसुन्धरा वृद्धावस्था में पहुंच चुकी थी. बछड़ा जवानी में कदम रख चुका था. हरनारायण उसकी जोड़ी भरना चाहता था. हरनारायण ने एक बैल खरीद लाया. वसुन्धरा के पुत्र के साथ उसकी जोड़ी अच्छी जमी. हरनारायण उन्हें खेत में लेकर गया. वापस आया तो कल्याणी से कहा-वसुन्धरा के पुत्र ने तो कमाल ही कर दिखाया. इसकी कार्यक्षमता तीव्र है. हम जिस खेत को दो दिन में जोतते थे इसने एक ही दिन में जोत दिखाया.

हरनारायण की आवाज वसुन्धरा तक पहुंची. उसका छाती गर्व से फूल गयी वह मन ही मन बड़बड़ा उठी-आखिर पुत्र किसका है ? उसका ध्यान अपनी स्थिति पर गया. उसे पीड़ा हुई. अब उसकी शारीरिक शक्ति क्षीण हो चुकी थी. चार कदम चलती कि हांफने लग जाती . मुंह से झाग निकलने लग जाता. शारीरिक अक्षमता ने उसकी पाचन शक्ति छीन ली थी. वह लालच में आकर यदि अधिक घास खा जाती तो पतला दस्त हो जाता.

वसुन्धरा का ध्यान अतीत में भटक गया. तब वह जवान थी. और बर्दी से छंट गयी थी. . . . . वसुन्धरा हरी-हरी घास चरती आगे बढ़ती गयी. घास चरने की धुन में कब जंगल पहुंच गयी,उसे इसका भी ज्ञान नहीं रहा. वसुन्धरा रास्ता भटक गयी. वह रास्ता ढूंढती रही मगर उसका साक्षात्कार पहाड़ और चट्टानों से ही होता रहा.

वसुन्धरा भटक रही थी कि उसने एक शेर को अपनी ओर आते देखा. मृत्यु से साक्षात्कार हो रहा था. वसुन्धरा भयभीत हो गई. वह भय से सिहरती कि उसमें विचार उठा-यदि मैं डर कर भागती हूं तो शेर मुझे जीवित नहीं छोड़ेगा. मरना तो है ही फिर डर कर क्यों भागूं ?'' उसने साहस एकत्रित किया. वह तनकर खड़ी हो गयी. उसकी आंखें शेर पर जा टिकी . यह प्रतिस्पर्धा का स्पष्ट संकेत था. शेर ने वसुन्धरा का रुप देखा तो वसुन्धरा पर हमला करने की शक्ति खो बैठा. वह चुपचाप आगे बढ़ गया.

यद्यपि शेर आगे बढ़ गया था पर वसुन्धरा ने अपनी हिम्मत मजबूत बनाये रखा. ध्यान को चौकस रखकर वह आगे बढ़ गयी. उसे भय था -शेर पीछे से वार न कर दे . वह बहुत दूर निकल गयी पर भी शेर ने आक्रमण नहीं किया. तब उसने अपना शरीर को शनैःशनै सामान्य बनाया. वह पुनः घर का रास्ता ढूंढने लगी. एक सप्ताह बाद ही वह घर का रास्ता पा सकी.

पूर्व की यादों से वसुन्धरा बाहर आयी. उसने अपने पुत्र की ओर देखा. उसे प्रसन्नता हुई कि उसका पुत्र कर्मवीर है न कि कामचोर.

गाँव में भूपत आया था. हरनारायण उसके पास ,वसुन्धरा को बेच देना चाहता था. उसमें विचार कौंधा-वसुन्धरा ने हमें दूध दिया. घी दिया, एक कमाऊ पुत दिया . स्वार्थ वश कुछ रुपयों के लिए क्या वसुन्धरा को बेचना उचित है ?''

उसने वसुन्धरा को बेचने का विचार त्याग दिया.

मौसी माँ नहीं, माँ

 सुरेश सर्वेद की कहानी

बारह वर्षीय रंजना आयी. आते ही अवन्ति से कहने लगी- दीदी,आपकी सौतेली मां क्या आपको सचमुच खूब सताती थी ?''
- हां री मेरी मौसी मां बहुत ही निष्ठुर थी. बात-बात पर मुझसे मारामारी करती थी. दिन-रात काम करके भी मुझे पेट भर खाना नहीं मिलता था.''
रंजना वहीं जमीन पर ही बैठ गई. उसने गौर से रंजना की ओर देखा कहा-क्या सभी मौसी मां एक समान होती है ?''
अवन्ति की दृष्टि रंजना पर जा टिकी.बच्ची का यह प्रश्न उसे अटपटा लगा. अवन्ति ने रंजना की आंखों में वह भाव पढ़ा जिसे वह भोग चुकी थी. कहा-रंजना,आज तुम इस तरह के प्रश्न करने क्यों लगी ?''
- ऐसे ही. . . . ।
रंजना ने सच्चाई दबाने का प्रयास किया. अवन्ति पूरी बात जानने के पक्ष में थी. उसने फिर से कुरेदा. अवन्ति बताना तो नहीं चाहती थी मगर वह बताने लगी-दीदी,मेरे पापा भी मौसी मां लाना चाहते हैं।''
- क्या . . . ?''
- हां दीदी,मैं चाहती हूं आप पापा को मना करो न . . . . ।''
बच्ची की मासूमियत पर अवन्ति को दया आ गई मगर वह उसके पापा को मना करे तो करे क्यों ?अवन्ति पशोपेश में थी . उसने कहा- तुम अपने पापा से क्यों नहीं कहती कि वे दूसरी मां न लाये. . . . ।''
- मैंने मना किया पर वे मेरी बात नहीं माने कहने लगे -तुम्हारी ही सुविधा के लिए मैं दूसरी शादी करना चाहता हूं।''
- जब तुम्हारी कह नहीं माने तो फिर मेरी कह कैसे मानेंगे । मैं उनसे नहीं कह सकती।''
- क्यों दीदी,मेरा एक सहयोग नहीं कर सकती. क्या आप भी चाहती हैं कि मेरी मौसी मां आये और मुझ पर अत्याचार करें. . . ?''
- नहीं . . नहीं. . . मैं यह क्यों चाहने लगी . . . ?''
' मौसी मां ' शब्द अवन्ति के लिए विष बन चुका था. वह कामना करती थी-कभी किसी को मौसी मां का छाया भी न पड़े. वह चाहती तो यहां तक थी कि मौसी मां लाने की प्रथा ही समाप्त हो जाये पर यह क्या संभव है ? कदापि नहीं . . . . ।''
अवन्ति बमुश्किल दस साल की रही होगी. उसकी मां जो बीमार पड़ी कि खाट से उसका शव ही उठा. अवन्ति अभी मां की स्मृति से बाहर भी निकल नहीं पायी थी उसके पिता शिशुपाल ने उसके समक्ष मौसी मां लाने का प्रस्ताव रखा. पिता के प्रस्ताव प्रस्ताव नहीं था वे तो दूसरी शादी करने का निर्णय ले चुके थे मात्र वे अवन्ति को बता देना चाहते थे तभी तो मना करने पर भी वे दूसरी शादी करने से नहीं चूके.
अवन्ति की नई मां आ चुकी थी. पहली -पहली तो नई मां अवन्ति की खूब पूछ परख करती रही फिर धीरे-धीरे वह अवन्ति से वही व्यवहार करने लगी जो प्रायः मौसी माये करती है. शुरु में उसने अवन्ति को स्वयं भोजन निकाल कर लेने कहा. फिर छोटे-छोटे काम तियारने लगी. एक समय ऐसा आया कि अवन्ति काम की बोझ तले दबने लगी. वह शुरु में तो समझ नहीं पायी कि मौसी मां उसके साथ क्या व्यवहार करना चाहती है पर समय के साथ वह सब समझने लगी . दिन -दिन मौसी मां का व्यवहार कठोर होता गया. और अवन्ति पर काम का बोझ तो बढ़ा पर खाना में कटौती होती गई.
अवन्ति मौसी मां की शिकायत अपने पिता से करना चाहती थी पर वह साहस नहीं कर पाती थी. उसके पिता भी तो वह पिता नहीं रह गये थे जो उसकी सगी मां के समय थे उनके भी व्यवहार में परिवर्तन आ चुका था. पर अवन्ति अपना दुख रखना चाहती थी. एक दिन बहुत साहस कर उसने मौसी मां की शिकायत पिता से कर ही दी. पति के सामने मौसी मां तो चुप रही पर उनके जाते ही अवन्ति पर बरस पड़ी और उसका अत्याचार दिन-दिन बढ़ता चला गया. जब तब वह पिता के समक्ष अवन्ति की शिकायत करने लगी अब तो अवन्ति के पापा अवन्ति के पिता न होकर सिर्फ उसकी मौसी मां के पति रह गये थे. अवन्ति की मौसी मां तो चाहती थी कि वह पढ़े लिखे मत मगर उसने पढ़ाई में कोई कसर नहीं छोड़ी वह पढ़ लिखकर आगे बढ़ती चली गई. वह तकलीफ सह कर पढ़ी और प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होती गई . उसकी प्रतिभा का सम्मान हुआ उसकी नौकरी लग गई.
अपने बुरे दिनों की तस्वीर को वह अब तक नहीं भूल पायी थी. वह चाह तो रही थी कि रंजना के पापा वह गलती न करे जो उसके पिता ने किए थे. उसने रंजना से कहा- मैं तुम्हारे पापा से बात करुंगी ।
उस दिन रंजना आयी. पूछा - दीदी,क्या आपने मेरे पापा से बात की ?''
अवन्ति चुप रही । उसने सोचा तो रंजना के पापा से बात करेगी पर कर नहीं पाई थी. रंजना ने कहा - पापा दूसरी शादी करने जा रहे हैं.''
रंजना की आँखों में दहशत और शरीर में कंपकपी थी. अवन्ति ने उसे समझाने का प्रयास किया - तुम इतना डर क्यों रही हो ? हर माँ एक समान नहीं होती. तुम अपने घर जाओ.''
- नहीं दीदी, मैं अब कभी अपने घर नहीं जाऊंगी. मैं अब आपके ही साथ रहूंगी. नई मां मुझे जीते जी मार डालेगी.''
- तुम्हारी मौसी मां ऐसा नहीं करेगी, तुम अपने घर जाओ.''
- नहीं, मैं नहीं जाती. . . ।''
रंजना ढिठाई पर उतर आयी. एक बार तो अवन्ति की इच्छा उसे अपने ही पास रख लेने की हुई, पर यह संभव नहीं था. एक सामान्य सी जान - पहचान थी. उसने बहला - फुसलाकर रंजना को वापस भेज दी.
रंजना दो - तीन तक अवन्ति के घर नहीं आयी. दरवाजे में जरा सी आहट होती तो अवन्ति को लगता - रंजना आयी होगी. सामने रंजना को न पा कर वह निराश हो जाती. अब उसके मन में रंजना के लिए दया उमड़ने लगी. एक अज्ञात आशंका भी उसके भीतर सिपचने लगी. उसे लगने लगा - कहीं रंजना की नई मां ने तो उसे उसके घर आने से तो मना नहीं कर दी. वह रंजना से मिलना चाहती थी. वह उसके घर जाना चाहती थी. चाह कर भी वह नहीं पा रही थी. चार - पांच दिन बाद रंजना उसके घर आयी. रंजना को देखकर अवन्ति उसकी ओर लपकी.रंजना उसके निकट पहुंच चुकी थी. अवन्ति ने रंजना के चेहरे को गौर से देखा. उसके चेहरे में उसने पढ़ने का प्रयास किया - रंजना दुखी तो नहीं. उसकी नई मां उसे प्रताड़ित तो नहीं करती. अवन्ति के भीतर तरह - तरह के प्रश्न हिचकोले खाने लगे. उसने अपनी जिज्ञासा पूरी करने पूछ ही बैठी - रंजना, तेरी नई मां कैसी है ?''
रंजना अनुत्तरित रही. उसकी भाव - भंगिमा से अवन्ति को लगने लगा - वास्तव में रंजना की नई मां उसे तपना शुरु कर दिया है. उसकी दृष्टि रंजना के उस हाथ पर गई जिसमें पट्टी बंधी थी. उसे देख अवन्ति कांप गयी. उसने उसके हाथ को पकड़कर पूछा - क्या तुम्हें नई मां ने चोटिल किया ?''
रंजना चुप रही. अवन्ति को लगा - उसकी नई मां ने संभवतः कहीं बताने से मना करी होगी. उसने कहा - रंजना, तुम मेरे साथ रहना चाहती थी न,आज से तुम मेरे साथ रहो. मैं यह नहीं चाहती कि किसी मासूम के साथ अत्याचार हो.''
रंजना खिलखिलाकर हंस पड़ी. अवन्ति को कुछ समझ नहीं आया. वह खिलखिलाती रंजना को अपलक देखने लगी. रंजना ने हंसी रोक कर कहा - आप तो व्यर्थ परेशान हो रही है. दीदी, मैं आपको लेने आयी हूं. नई मां ने आपको बुलायी है.''
- मगर क्यों ?''
- अब चलिए भी . . . ।''
रंजना जबर्दस्ती करने लगी. आखिरकार अवन्ति को रंजना के साथ उसके घर जाना ही पड़ा. रंजना ने अपनी नई मां से अवन्ति को मिलवाया. नई मां ने दोनों हाथ जोड़कर अवन्ति को नमस्ते किया. अवन्ति के मन में नई मां के प्रति जो भी घृणित विचार आया था , वह रफू - चक्कर हो गया. नई मां ने कहा - आपसे मिलकर खुशी हुई. रंजना सदैव आपके बारे में बातें करती रहती है. कहती है - आप बहुत अच्छी है. . . आपसे मिलने की इच्छा होती थी, पर काम के अधिकता के कारण नहीं मिल पा रही थी. आप बैठिए. मैं चाय बनाकर लाती हूं.''
अवन्ति आज्ञाकारी शिष्या की तरह चुपचाप बैठ गयी. जो भी मलाल नई मां के प्रति उसके मन में था, वह खत्म हो गया. उसने रंजना को अपनी ओर खींची. बोली- तुम्हारी नई मां तो बहुत अच्छी लगती है ?''
- हां दीदी, वह मुझसे बहुत प्यार करती है. मुझे लगता ही नहीं कि मेरी अपनी मां न होकर यह मौसी मां है.''
- फिर तुम मुझसे छिपायी क्यों ? हाथ में चोट कहां से आयी है ?''
नई मां चाय बना लायी थी. चाय का कप अवन्ति को थमाते हुए बोली - यह बहुत ही चंचल है. दिन भर उधम मचाती है. कल मैं सब्जी काटने बैठी थी. कहने लगी - सब्जी मैं सुधारुंगी. मना करने पर भी नहीं मानी और चाकू से अपने हाथ को चोट पहुंचा ली.''
- क्यों रंजना, मैं ये क्या सुन रही हूं ?''
- दीदी, मुझे मां कुछ काम नहीं करने देतीं. कहती हैं - अभी तुम छोटी हो. तुम्हारे खेलने - खाने के दिन है. यहां मैं काम हूं काम करने वाली. अपना ससुराल जाना, वहां काम करना. दीदी, आप ही बताएं - क्या मैं अपने घर काम नहीं कर सकती ?''
- आपने सुना न, यह बहुत जिद्दी है. कहा मानती ही नहीं. महिला जीवन भर तो काम करती ही है. बचपने में ही वह सुख क्यों न भोग लिया जाये जिसे पाने बाद में तरसना पड़े ?''
नई मां के शब्दों में वजन थी. अवन्ति ने विचार भी नहीं किया था कि मौसी मां ऐसी भी होती है. उसने रंजना से कहा - मां की कहा क्यों नहीं मानती ? हित की ही तो बात करती है.''
नई मां सोप - सुपाड़ी लाने चली गयी. अवन्ति ने कहा - रंजना, तुमने क्यों नहीं बतायी, तुम्हारी मौसी मां इतनी अच्छी है ?''
- मैं चाहती थी, आप स्वयं मिल कर देखे कि मेरी मौसी मां, मौसी मां है कि मां. . . . ।''
अवन्ति ने मन ही मन विचार किया तो उसे लगा - ऐसी ममतामयी महिला ' मौसी मां' हो ही नहीं सकती. वह संतुष्ट थी कि रंजना को ' मौसी मां ' नहीं अपितु ' मां '  मिली है. . . ।

गुरुवार, 18 अप्रैल 2013

बिना शीर्षक

सुरेश सर्वेद की कहानी 


नवजात शिशु के जन्म लेने के साथ ही परिवार में उसके नामकरण को लेकर तरह - तरह के नाम सुझाये जाते हैं। अंत में निर्णय होता है और नवजात शिशु के नाम को अंतिम रूप दे दिया जाता है। खिलावन के यहां भी नवजात शिशु ने जन्म लिया। पहले जिज्ञासा जागी कि वह लड़का है या लड़की। जब लोगों को ज्ञात हो गया कि नवजात शिशु लड़का है तो उसके नाम क्या रखा जाए इस पर चर्चा चल पड़ी। सबने अपनी - अपनी ओर से नाम सुझाये। किसी ने कुछ कहा तो किसी ने कुछ। अंतत: निर्णय हुआ कि नवजात शिशु का जन्म बुधवार को हुआ है तो उसका नाम क्यों न बुधराम रख दिया जाए। इस पर एक राय बनी और उस नवजात शिशु का नाम बुधराम रख दिया गया।
बुधराम अभी पांच बरस का नहीं हुआ था कि उसके नाम के साथ खिलवाड़ होना शुरू हो गया। उसके अच्छे - खासे  नाम को बिगाड़ दिया गया। अब वह बुधराम की जगह बुद्धु के नाम से पुकारा जाने लगा। बुद्धु उर्फ बुधराम बचपन से शांत स्वभाव का व्यक्ति निकला। बुद्धु की न किसी से दुश्मनी थी और न ही किसी से बहुत अधिक दोस्ती। जब बुधराम के नाम को बिगाड़ कर बुद्धु संबोधित किया जाने लगा तब बुधराम को जरा भी दुख नहीं हुआ और न कभी किसी से गिला - सिकवा किया। उसके नाम में परिवर्तन आ जाने से उसके आदत - व्यवहार में तो परिवर्तन नहीं आ गया था। उसकी शक्ल - सूरत वही थी। उसमें शारीरिक परिवर्तन भी नहीं आया।
नाम को संक्षिप्त रूप देने का उसे जरा भी पीड़ा नहीं थी। पीड़ा थी तो इस बात की कि उसका जन्म ऐसे परिवार में क्यों हुआ जहां बचपन से लेकर बूढ़ापे तक छोटे वर्ग होने का ढप्पा लगा रहे। वह व्यवहार कुशल था। कभी किसी को पीड़ा पहुंचाने का साहस नहीं किया। यदि शुरू से उसमें यह अवगुण आता तो कम से कम उसके नाम बिगाड़ने का साहस तो कोई नहीं कर पाता। उसे कभी - कभी पीड़ा होती कि अच्छे खासे नामधारी लोग सभ्य कहलाने का दंभ तो भरते हैं मगर उससे घृणित व्यक्ति कोई दिखता ही नहीं। सभ्य होने का लिबास ओढ़ कर मानवता को विस्मृत कर गये हैं। कई बार बुधराम ने भी अपने स्वभाव में परिवर्तन लाने का विचार किया पर वह सफल नहीं हो सका। बचपन से जिस स्वभाव को उसने ग्रहण किया था उसे पृथक करने का साहस नहीं कर पा रहा था बुधराम। नासमझ भी अपने को समझदार समझते और बुधराम के बहुत अच्छे विचारों को भी हंसी में उड़ा देते। बुधराम में इतनी समझ तो थी ही कि जो व्यक्ति स्वयं को समझदार समझ कर डिंग हॉक रहा है वह किस स्तर के विचार का व्यक्ति है। उसमें कितनी वैचारिक शक्ति है। पीड़ित को प्रताड़ित करना और असहाय को उपेक्षित करना कितना उचित है यह विचारणीय तथ्य है।
बुद्धु में एक आदत थी - वह सब जान समझकर भी अनजान बना रहता। अनजान बने रहने में ही उसकी भलाई थी। उसने न कभी किसी के सामने अपनी बड़ाई हाकी न ही अपने आपको होशियार होने का दावा पेश किया। लोग नाम के अनुरूप उसे बुद्धु ही समझते थे, एकदम नासमझ। उससे जो जैसा चाहता व्यवहार करता। अभद्र व्यवहार का भी वह प्रतिकार नहीं करता था। उसकी आदत में यह सब सुमार हो चुका था। उसके जीवन की यदि कोई पीड़ा थी तो वह अंजलि की पीड़ा। वही अंजलि जो भरी जवानी में विधवा हो गयी। उसने अपनी आँखों के सामने अंजलि को खेलती बढ़ती, ब्याहती, गौना जाते देखा था। वह अब भी उस अंजलि को नहीं भूल पाया था जिसने बचपने में चोरी छिपे उसे कुछ न कुछ खाने को लाकर दे देती थी और हंसकर भाग जाती थी। अंजलि और बुद्धु का ऐसा एक भी दिन नहीं जाता था जब उनकी मुलाकांत नहीं होती रही हो। समय का तगाजा आया और अंजलि बचपने से युवास्वथा की ओर कदम रखने लगी। अंजलि की बढ़ती उम्र के साथ उस पर प्रतिबंध का भी शिकंजा कसना शुरू हो गया। अब उसके माता - पिता को यह कतई पसंद नहीं था कि अंजलि की मुलाकात बुद्धु से हो पर दुनियादारी से अनभिज्ञ अंजलि बुद्धु से मिलती रही और उनकी मित्रता में किसी भी प्रकार से दुराव नहीं आया।
बुद्धु उर्फ बुधराम उस मेले को भी अब तक नहीं भूल पाया है जहां दोनों पहुंचकर झूला, झूला करते थे। मेले में घूम - घूम कर खिलौने खरीदते। जो मन में आता खाते और संध्या होतेे - होते अपने - अपने घर पहुंच जाते। यह तो थी बचपन की बात। तब अंजलि की कोई सहेली नहीं थी पर समय के साथ सहेलियाँ भी बनने लगी और अब वह सहेलियों के साथ मेले जाने लगी। एक बार वह मेले में  चूड़ियाँ खरीद रही थी कि बुधराम आ धमका। बुधराम ने कहा - अंजलि, तुम्हारी कलाई मे हरी - हरी चूड़ियाँ खूब जमेगी ....। ज्ज्
- सुना अंजलि, तुम्हारे बुद्धु की बात ? यह तुम्हारे मन की बात जानता है ....। ज्ज्
एक सहेली ने कहा और खिलखिलाकर हंस पड़ी। तब अंजलि ने झेपते हुए कहा था - बुद्धु मेरे बचपन का मित्र है। वह मेरी पसंद नापसंद जानेगा ही। ज्ज्
अंजलि की इस बात पर बुद्धु को गर्व हुआ था। उसका सीना तन गया था। उसे अंजलि का ऐसा कहना अच्छा ही नहीं, बल्कि बहुत ही अच्छा लगा था। तब बुद्धु ने कहा था - अब तो अंजलि ब्याह कर चली जायेगी, तुम लोगों को दूसरी सहेलियाँ मिल जायेंगी पर मैं तो अंजलि के ससुराल जाने के बाद सब कुछ खो दूंगा, अकेला रह जाऊंगा न ...। ज्ज्
- अंजलि का बस चले तो वह तेरे नाम की चूड़ियाँ पहन ले पर क्या करे बेचारी ...। ज्ज् एक सहेली ने कहा और सभी सहेलियाँ हंस पड़ी।
बुद्धु को बुरा लगा। उसने कहा - तुम लोग ऐसी बात करके हमें हंसंी का पात्र बनाना चाहती हो यह ठीक नहीं ....। ज्ज्
इस पर अंजलि ने कहा - ठीक ही तो कह रही है मेरी सहेलियाँ ...। ज्ज्
इतना कहकर अंजलि सहेलियों के साथ वहां से खिसक ली। एक क्षण तो बुद्धु को समझ ही नहीं आया कि अंजलि सच कह गयी या मजाक। उसे तो बस इतना समझ आया था कि अंजलि को भी हरी - हरी चूड़ियाँ पसंद है। उसने दर्जन भर हरी - हरी चूड़ियाँ खरीद लिया। रास्ते भर वह खुश था। उसके मन में कोई पाप तो था नहीं अपितु उसे खुशी थी कि वह अंजलि के पसंद की चीज ले जा रहा है और चूड़ियों को देखकर अंजलि फूली नहीं समायेगी। वह चूड़ियाँ लेकर अंजलि के घर जा धमका। सामने अंजलि मिल गयी। उसने चूड़ियाँ निकाली कहा - लाओ अंजलि, हाथ बढ़ाओ, मैं तुम्हारी पसंद की चूड़ियाँ खरीद लाया हूं। तुम्हारी कलाइयों में डाल देता हूं ....।ज्ज्
चूड़ियाँ अभी खनकी नहीं थी। बुद्धु की आवाज घर के भीतर बैठे अंजलि के पिता के कान से जा टकरायी। वे तड़फड़ा गये। क्षण भर गंवाये बगैर वे उस दिशा को दौड़े जहां से बुद्धु की आवाज उभर रही थी। बुद्धु अंजलि की कलाई में चूड़ियाँ चढ़ाने ही वाला था कि अंजलि के पिता दीनानाथ वहां पहुंच गये। बुद्धु को दूर धकेलते हुए उन्होंने कहा - नासमझ बन मेरे घर डांका डालना चाहता है .....। ज्ज्  और उन्होंने दो - तीन तमाचे बुद्धु के गाल में जड़ दिए। बुद्धु को कुछ समझ नहीं आया। दीनानाथ ने आगे कहा - अब कभी अंजलि के आसपास भी दिखा तो तेरे हाथ - पैर तोड़ दूंगा ...। ज्ज्
और दीनानाथ अंजलि को ढकेलते हुए भीतर ले गया। बुद्धु को कुछ समझ नहीं आया था। वह मार खाकर, चूड़ियाँ को सम्हालकर चुपचाप अंजलि के घर से निकल गया। फिर उस दिन के बाद से उसने कभी अंजलि के घर की ओर देखने की हिम्मत नहीं की। उसने अंजलि की सगाई होने, ब्याह होने और गौना होने की खबरें किसी के मुंह से सुनीं। इसी बीच उसने अंजलि के पिता के बीमार होने और उनकी मृत्यु होने की भी खबर सुनी पर उसे कोई फर्क नहीं पड़ा। उसे एक जबर्दस्त झटका उस दिन लगा जब किसी  ने बताया कि अंजलि के पति का निधन हो गया और अंजलि विधवा हो गयी। उस दिन जो पीड़ा बुद्धु को हुई थी ऐसी पीड़ा उसने कभी महसूस नहीं किया था। उसके नाम को संक्षिप्त किया तब भी उसे यह पीड़ा नहीं हुई थी। उसने एक दिन सुना कि अंजलि अब गांव आ गयी है और अब वह मायका में ही रहेगी अपने भाई - भाभी के साथ।
अंजलि जब बच्ची थी तभी उसकी माता चल बसी थी। अब उसके पास भाई - भाभी के पास सिर छिपाने के अलावा कोई चारा नहीं था। अंजलि के भाई तो बहन को चाहता था पर भाभी उसे पसंद नहीं करती थी। अंजलि के सामने पूरा जीवन पड़ा था और वह दिन सरकने के साथ समझने लगी थी कि वह पीड़ित जीवन ही व्यतीत करेगी। भाभी की तानें सुनकर भी वह चुप रहती। कभी किसी के सामने यह प्रदर्शित करने का प्रयास ही नहीं किया कि वह कितनी पीड़ित है। उसने तो सदैव सबके सामने यह बताने का ही प्रयास किया कि उससे सुखी इस दुनियाँ में और कोई है ही नहीं। पर सच्चाई चार दीवारी में कैद करने से कैद हो सकती है ? धीरे - धीरे अंजलि पर हो रहे अत्याचार एक कान से दूसरे कान तक पहुंचने लगा। यह तो गॉंव था। एक न एक दिन खबर बुद्धु तक पहुंचनी ही थी। बुद्धु ने सुना तो पीड़ा से तड़प उठा। वह कर भी क्या सकता था। अंजलि की घूंटन भरी जिंदगी की कहानी बुद्धु के मन में अंजलि के प्रति सहानुभूति जागृत करती चली गयी। एक बार और सिर्फ एक बार वह अंजलि से मिलना चाहता था। बचपन का अपनापन उसे अंजलि की ओर खींचने बाध्य कर रहा था पर लोक लाज के भय के कारण वह चाह कर भी अंजलि से नहीं मिल पा रहा था।
उस दिन सुहागन महिलाएं वट सावित्री उपवास थी। वे पूजा करने मंदिर जा रही थी। बुद्धु सुहागन महिलाओं को देखते खड़ा था। अचानक दो महिलाएं चर्चा कर रही थी उधर ही बुद्धु  का ध्यान गया। एक महिला ने कहा - लो देखो, कैसे सज - संवर कर आ रही है, अंजलि। पति के मरने का जरा भी पीड़ा नहीं। ज्ज्
दूसरी महिला ने कहा - मैं तो कहती हूं बहना, किसी शुभ कार्य पर जाते वक्त ऐसी बदनसीबों का दर्शन ही न हो, ऐसे लोगों का मुंह देखकर जाना भी पाप है पाप। बनते काम बिगड़ जाता है। ज्ज्
- हां बहन हां, एक साल भी तो नहीं रही और खा गयी अच्छे साखे जवान पति को ...। ज्ज्
बुद्धु ने देखा - अंजलि को उस दिन बहुत दिनों बाद। महिलाओं की आवाज अंजलि तक पहुंच चुकी थी। वह पीड़ित हो गयी। मगर जितनी पीड़ा अंजलि को हुई थी उससे कहीं अधिक पीड़ा बुद्धु को हुई थी। अंजलि सब सुनकर भी चुपचाप आगे बढ़ने लगी। तभी पहली महिला ने कहा - ऐसी ही महिलाओं को कुलक्षणी कहा जाता है। ऐसी महिलाओं के कदम जहां भी पड़े , समझो उस घर की बर्बादी शुरू ...।
अब अंजलि के लिए असहनीय हो गया। वह उल्टे पांव अपने घर की ओर दौड़ पड़ी। एक क्षण तो बुद्धु को कुछ समझ नहीं आया कि वह करे तो करे क्या, पर दूसरे ही क्षण वह अपने घर गया। उसने उन चूड़ियों को सहेज कर रखा था जिन्हें उसने मेला में अंजलि के लिए खरीदा था। उन चूड़ियों के साथ चुटकी भर सिंदूर लेकर अंजलि के घर जा पहुंचा। अंजलि सिर झुकाकर रो रही थी। बुद्धु ने उसकी सूनी मांग में सिंदूर भर दिया। किसी के स्पर्श पाकर अंजलि हड़बड़ा गयी। सामने बुद्धु को देखकर वह और भी हड़बड़ा गयी। बुद्धु ने उसके हाथ को पकड़ उसकी कलाईयों में चूड़ियाँ डाल दी। बुद्धु के इस कृत्य को दूर खड़ा अंजलि के भाई देख रहा था। वह उन दोनों के पास आया तब तक और कई लोग वहां पहुंच चुके थे। वे दोनों महिलाएं भी वहां पहुंच चुकी थी जिनने उसे ताने दिये थे। सामने अपने भइया को देखकर अंजलि डर के मारे कांपने लगी। बुद्धु चुपचाप शांत खड़ा रहा। अंजलि ने कांपती आवाज से कहा - भइया, मुझे मालूम नहीं था, बुद्धु ऐसा करेगा ...।
बहन को एक बार फिर से सुहागन देखकर उसके भाई का मन गदगद हो गया। उसने अंजलि से कुछ न कह कर बुद्धु की ओर आशा भरी स्नेह की नजर डाली। बुद्धु को उसकी आँखों की भाषा पढ़ने में देर न लगी। उसने अंजलि के हाथ को थामा और उसे अपने घर की ओर ले चला। सारा गाँव नजारा देखता ही रह गया ....।