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उहो,अब की पास कर गया ( कहानी ), तमस और साम्‍प्रदायिकता ( आलेख ),समाज सुधारक गुरु संत घासीदास ( आलेख)

शनिवार, 28 दिसंबर 2019

जा रहा हूँ

अशोक बाबू माहौर 
तमाम चीजें 
साथ लेकर मस्तमौला 
चले जा रहा हूँ 
पता नहीं कहाँ? 
किस ओर? 
कलम कागज 
और रोटी का टुकड़ा रखे 
जेब में। 
न मंजिल 
न पथ का भरोसा 
बस पद बढ़ाते 
ओजस्वी मन लिए 
गाता गुनगुनाता 
शब्द जोड़ते 
बढ़ रहा हूँ आगे 
ठीक वैसे ही जैसे हवा में 
भटकता एक कागज का टुकड़ा। 

       परिचय 
संपर्क :ग्राम कदमन का पुरा, 
तहसील अम्बाह, जिला मुरैना (मप्र) 476111 
मो 8802706980

हार के आगे ही जीत है - आचार्य शिवम्

आचार्य शिवम्

'हार के आगे ही जीत है' – यह बात अक्सर सुनने को मिल जाती है। अब प्रश्न उठता है कि– 'क्या जीत का रास्ता हार से होकर जाता है?', 'क्या हार जीत का मार्ग प्रशस्त करती है?', 'क्या हार को जीत मान लिया जाय?', 'क्या हार होने पर हार से सबक लेकर जीत जाने के लिए कोशिश करनी चाहिए? याकि 'हार-जीत से परे अपने कर्तव्य पथ पर अग्रसर होना चाहिए?' इस तरह के कई और भी प्रश्न हो सकते हैं। परन्तु, बात केवल प्रश्न की नहीं है, कुछ और भी है जिसे जानना-समझना जरूरी है। पहले प्रश्न को ही ले लें तो यह जरूरी नहीं कि हर जीत का रास्ता हार के गलियारे से होकर ही जाता हो। इसी प्रकार से प्रत्येक हार जीत का ही मार्ग प्रशस्त करती हो, यह भी निश्चित नहीं। हार को जीत मानना तो कुछ अधिक ही दार्शनिक (प्रेमी, पागल और फकीर के लिए उपयुक्त) हो जायेगा – 'प्रेम वह व्यवहार है जो जीत माने हार को/ तलवार की भी धार पर चलना सिखा दे यार को' (कवि दिनेश सिंह)। हार से सबक लेकर जीत जाने के लिए कोशिश करने में कोई बुराई नहीं। प्रसिद्ध साहित्यकार सोहनलाल द्विवेदी जी कहते भी हैं कि– 'लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती/ कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।' द्विवेदी जी कोशिश के महत्व को रेखांकित तो करते हैं, किन्तु यह भी कह देते हैं कि 'कोशिश' करने वाले की हार नहीं होती है। यानी कि जीत होगी भी कि नहीं, इस पर वह कुछ कहते ही नहीं दिखते। वह मेहनत करने और विश्वास एवं उत्साह बनाये रखने का मूल मन्त्र जरूर देते हैं, कुछ इस तरह से –
     असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो
     क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो
     जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम
     संघर्ष का मैदान छोड़ मत भागो तुम
     कुछ किये बिना ही जय-जयकार नहीं होती
     कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।

     सफल होना एक कला है; असफल होना उससे भी बड़ी कला है। सफल होने पर कर्ता को अक्सर अपनी अच्छाइयाँ ही दिखाई देती हैं, कमियों पर तो उसकी नज़र ही नहीं जा पाती। किन्तु, असफल होने पर कर्ता सदैव दोहरे अनुभव से गुज़रता है– वह अपनी अच्छाइयों और कमियों को जाँचता-परखता है और यथा-शक्ति उनमें सुधार भी करता है। इस दृष्टि से तो असफलता (हार) सफलता (जीत) से बड़ी कला हुई? कला एक साधन तो हो सकती है, साध्य कभी नहीं। इसलिए यहाँ पर असफलता साधन-भर है और सफलता साध्य। इस साधन और साध्य के बीच की दूरी को तय करने के लिए, अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए दृढ़ इच्छा-शक्ति, सूझ-बूझ, कठोर परिश्रम एवं लगन भी बेहद जरूरी है। यह सब होने पर हो सकता है कि कर्ता को जय-जयकार का अनुभव हो जाय और उसकी हार न हो। अब प्रश्न उठता है कि- 'फिर जीत का क्या?' भगवद्गीता कहती है कि 'हार-जीत से परे जाकर' अपना नियत कर्म करो, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है, कर्म के बिना तो शरीर-निर्वाह भी नहीं हो सकता –
     नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
     शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः।।
     भक्त के लिए भक्ति श्रेष्ठ है, ज्ञानी के लिए ज्ञान श्रेष्ठ है और कर्मयोगी के लिए कर्म श्रेष्ठ है। इससे तो यही हुआ कि 'श्रेष्ठ' की प्राप्ति ही जीवन का उद्देश्य है। हार-जीत तो अपनी जगह हैं। अब प्रश्न उठता है कि यदि तात्विक दृष्टि से हार का विलोम जीत नहीं हो सकता (द्विवेदी जी की कविता के संदर्भ में), तो क्या श्रेष्ठता जीत का पर्याय हो सकती है? आलोचक-विचारक इस प्रश्न पर मौन भी हो सकते हैं। मौन होना कोई बुरी बात तो नहीं। किन्तु, भावक के मन में यह प्रश्न तो उठेगा ही कि आखिर क्यों हार-जीत 'नहीं आते कार (लकीर) के भीतर/ निराकार जपते हरि हर हर' (रावण-सीता संवाद) और क्यों कृष्ण-अर्जुन संवाद इस श्लोक में 'कर्म करना श्रेष्ठ है' कहकर इतिश्री कर लेता है। कृष्ण तो जगद्गुरु हैं– 'कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम!' वह तो सब जानते हैं। कहीं वह हार-जीत की सीमाओं की ओर तो इशारा नहीं कर रहे? जैसे वह कह रहे हों– हार-जीत से तो राग-द्वेष उपजता है, दुःख-सुख उपजता है; इससे आनंद नहीं मिलने वाला। आनंद तो हार-जीत से परे जाकर कर्म करते रहने में है– निष्काम कर्म।     प्रश्न यह भी है कि कृष्ण जैसा गुरु सबको कहाँ मिलता है। फिर तो प्रश्न यह भी होगा कि अर्जुन जैसा शिष्य भी सबको कहाँ मिलता है। पर सच तो यह है कि खोजने से सब मिल जाता है; कोशिश करने से सब कुछ संभव है। संभव है तो प्रगति है। मनुष्य प्रगति करना चाहता है– उसकी यह प्रगति आंतरिक भी हो सकती है और बाह्य भी। किन्तु, प्रगति ऐसे ही नहीं होती। प्रगति-पथ पर संघर्ष और सृजन दोनों साथ-साथ चलते हैं। कभी-कभी तो संघर्ष इतना कठिन हो जाता है कि कर्ता को महसूस होने लगता है कि वह असहाय है, कमजोर है, शक्तिहीन है और इसलिए वह सार्थक सृजन नहीं कर सकता, अपने लक्ष्य को भेद नहीं सकता, अपने श्रेष्ठ को प्राप्त नहीं कर सकता– जबकि सच कुछ और ही होता है। सच तो यह है कि इस ब्रह्मांड में कोई भी असहाय, कमजोर, शक्तिहीन नहीं है। जरूरत सिर्फ इतनी-सी है कि वह अपने आपको पहचान ले कि उसके भीतर भी शक्ति है, उत्साह है, उमंग है, विद्या है, ज्ञान है, शील है, गुण है, धर्म है और वह अपनी हार को जीत में और जीत को आनंद में बदलने की सामर्थ्य रखता है। तब निश्चय ही वह अपनी समस्त शक्तियों को संगठित कर उनका ठीक से प्रयोग करते हुए अपने मार्ग पर प्रशस्त हो सकेगा। आज दुनियाँ में ऐसे तमाम लोग हैं जिन्होंने अपने आपको पहचाना, अपनी शक्तियों को पहचाना और अपने सत्कर्मों के बल पर बेहद सफल हुए। कभी लियोनार्डो द विन्ची को एक चित्र बनाने में वर्षों लगे थे, कभी डार्विन पिता की नजर में आलसी हुआ करते थे, कभी स्वामी विवेकानंद नरेन्द्र हुआ करते थे, कभी होंडा इंटरव्यू में निराश हुए थे, कभी रामानुजम बारहवीं में फेल हुए थे, कभी अब्दुल कलाम साहब अखबार बेचा करते थे, कभी नरेन्द्र मोदी चाय बेंचते थे, कभी टॉम क्रूज को 14 साल में 15 स्कूल बदलने पड़े थे, कभी मिस्टर बीन अपने साथियों के बीच मजाक का पात्र बने थे आदि– किन्तु, इन जैसे तमाम लोगों ने कभी हार नहीं मानी और इतिहास रच दिया। ऐसी विशिष्ट विभूतियों ने यह साबित कर दिया कि हार के आगे ही जीत है और जीत के आगे आनंद। आप इसे परमानंद भी कह सकते हैं, मुझे कोई आपत्ति नहीं।

परिचय:
वृन्दावनवासी (मथुरा) आचार्य शिवम् 
(जन्म : 07 फरवरी 1993) संस्कृत भाषा एवं साहित्य के युवा विद्वान हैं। 

Abnish Singh Chauhan, M.Phil & Ph.D

Professor & Principal
BIU College of Humanities & Journalism

Bareilly International University
Bareilly-243006 (U.P.) India

Editor : Creation and Criticism

Editor : International Journal of Higher Education and Research


संपादक : पूर्वाभास 

Tukada Kagaz Ka (Hindi Lyrics)

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बुधवार, 25 दिसंबर 2019

विभिन्‍न सम्‍मान हेतु प्रविष्टियां आमंत्रित


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जा रहा हूँ

अशोक बाबू माहौर
 
 जा रहा हूँ 

तमाम चीजें 
साथ लेकर मस्तमौला 
चले जा रहा हूँ 
पता नहीं कहाँ? 
किस ओर? 
कलम कागज 
और रोटी का टुकड़ा रखे 
जेब में। 
न मंजिल 
न पथ का भरोसा 
बस पद बढ़ाते 
ओजस्वी मन लिए 
गाता गुनगुनाता 
शब्द जोड़ते 
बढ़ रहा हूँ आगे 
ठीक वैसे ही जैसे हवा में 
भटकता एक कागज का टुकड़ा। 

       परिचय 
संपर्क :ग्राम कदमन का पुरा, तहसील अम्बाह, जिला मुरैना (मप्र) 476111 
मो 8802706980

सोमवार, 23 दिसंबर 2019

रोहित ठाकुर की कविताएं

प्रार्थना और प्रेम के बीच औरतें

प्रार्थना करती औरतें
एकाग्र नहीं होती
वे लौटती है बार-बार
अपने संसार में
जहाँ वे प्रेम करती हैं
प्रार्थना में वे बहुत कुछ कहती है
उन सबके लिए
जिनके लिए बहती है
वह हवा बन कर
रसोईघर में भात की तरह
उबलते हैं उसके सपने
वह थाली में
चांद की तरह रोटी परोसती है
औरतें व्यापार करती हैं तितलियों के साथ
अपने हाथों से
रंगती है पर्यावरण  
फिर औरतें झड़ती है आँसुओं की तरह
कुछ कहती नहीं
इस विश्वास में है कि 
जब हम तपते रहेंगे वह झड़ेगी बारिश की तरह
एक दिन।।


 एक चुप रहने वाली लड़की

साइकिल चलाती एक लड़की
झूला झूलती हुई एक लकड़ी 
खिलखिला कर हँसने  वाली एक लड़की
के बीच एक चुप रहने वाली लड़की होती है
जो कॅालेज जाती है
अशोक राज पथ पर सड़क किनारे की पटरियों पर
कोर्स की पुरानी किताब खरीदती है
उसके चुप रहने से जन्म लेती है कहानी
उसके असफल प्रेम की
उसे उतावला कहा गया उन दिनों
वह अपने बारे में  कुछ नहीं कहती
चुप रहने वाली वह लड़की 
एक दिन बन जाती है पेड़
पेड़ बनना चुप रहने वाली
लड़की के हिस्से में ही होता है  
एक दिन पेड़ बनी हुई लड़की पर दौड़ती है गिलहरी
हँसता है पेड़ और हँसती है लड़की
टूटता है भ्रम आदमी दर आदमी
मुहल्ला दर मुहल्ला
एक चुप रहने वाली लड़की भी
जानती है हँसना।।

नदी  

पुरुष का अँधेरापन 
कम करती है औरत 
औरत के अँधेरेपन को
कम करता है पेड़ 
पेड़ के अँधेरेपन को
कम करती है आकाशगंगा 
तारों का जो अँधेरापन है
उसे सोख लेती है नदी 
नदी के अँधेरे को 
मछली अपने आँख में टाँक लेती है 
इस तरह यह विश्वास बना रहता है 
अँधेरे के ख़िलाफ़ 
एक नदी बहती है 
नदी पानी की एक चादर है
जिसे ओढ़ लिया करती है असंख्य मछलियाँ 
नदी कभी लौटती नहीं है 
नदी के पांव किसी ने देखा नहीं है 
मेरे मुहल्ले की एक लड़की 
नदी में पांव डाल कर घंटो बैठती थी 
उसके पैर कमल के फूल हो गये
बारिश से भींगी नदी 
इस धरती की पहली लड़की है
जिसके हाथ बहुत ठंडे थे
नदी का बचना
उस ठंडे हाथ वाली लड़की का बचना 
मुश्किल है इन दिनों   |


जीवन

एक साईकिल पर सवार आदमी का सिर 
आकाश से टकराता है 
और बारिश होती है 
उसकी बेटी ऐसा ही सोचती है 

वह आदमी सोचता है की उसकी बेटी के 
नीले रंग की स्कूल - ड्रेस की 
परछाई से 
आकाश नीला दिखता है 

बरतन मांजती औरत सोचती है 
मजे हुए बरतन की तरह 
साफ हो हर
मनुष्य का हृदय 

एक चिड़िया पेड़ को अपना मानकर 
सुनाती है दुख
एक सूखा पत्ता हवा में चक्कर लगाता है 
इसी तरह चलता है जीवन का व्यापार।।


लापता होती औरतें

जब औरतें लापता होती हैं
आस पास का पर्यावरण 
अपनी मुलायमियत 
खो देता है 
औरतें लापता हो रही है
भूख से 
फिर हिंसा से 
औरतें लापता हो रही है
असमय मौत से
औरतें ही बचा सकती है 
इस धरती पर
जो कुछ भी सुन्दर है 
पर वह
विपदा में है
किसी भी देश में 
जब खेतों और जंगलों को 
खत्म कर दिया जाता है 
वहाँ से औरतें लापता हो जाती है 
जहाँ सूख जाती है नदियों और झरनों 
का पानी 
वहाँ से औरतें लापता हो जाती है 
औरतें लापता हो जाती है
अभाव में 
औरतें अभाव को अभिव्यक्त नहीं करती 
और लापता हो जाती है
औरतें लापता हो रही है
क्रुर लापरवाही से   |

एक पुराने अलबम की तस्वीरें

मेरे पास उपनिषदों के 
सूत्र नहीं हैं
एक पुराना एलबम है 
जिसमें तस्वीरों के
चेहरे साफ़ नहीं हैं
फिर भी एक सम्मोहन है 
उन लोगों की तस्वीरें 
जो अलबम में हैं
उनकी रौशनी 
मेरे पास है 
इस रौशनी के बल पर 
मैं सभ्यता के 
उन अँधेरे कुओं से 
होकर गुज़र रहा हूँ 
जहाँ छुपाकर मनुष्यों ने 
रख छोड़ा है प्रेम की
सघन स्मृतियों को 
मैं उन्हें अपनी कविताओं में 
प्रकाशित करूँगा   |

एकांत में उदास औरत

एक उदास औरत चाहती है 
पानी का पर्दा 
अपनी थकान पर 
वह थोड़ी सी जगह चाहती है 
जहाँ छुपाकर रख सके
अपनी शरारतें 
वह फूलों का मरहम 
लगाना चाहती है 
सनातन घावों पर 
वह सूती साड़ी के लिए चाहती है कलप 
और 
पति के लिए नौकरी 
बारिश से पहले वह 
बदलना चाहती थी कमरा 
जाड़े में बेटी के लिए बुनना 
चाहती है ऊनी स्कार्फ 
बुनियादी तौर पर वह चाहती है 
थोड़ी देर के लिए  
हवा में संगीत  |

प्रकाश

विज्ञान में 
प्रकाश तय करता है दूरी 
जीवन में
प्रकाश पैदा करता है उल्लास 
निपट अंधेरे में 
प्रकाश जगाता है विश्वास
कविता में 
प्रकाश को सुरक्षित रख सकता है आदमी |

बनारस

समय का कुछ हिस्सा
मेरे शहर में रह जायेगा 
इस तरफ
नदी के 
जब मेरी रेलगाड़ी 
लाँघती रहेगी गंगा को
और हम लाँघते रहेंगे
समय की चौखट को
अपनी जीवन यात्रा के दौरान 
अपनी जेब में 
धूप के टुकड़े को रख कर 
शहर  - दर - शहर 
बनारस 
यह शहर ही मेरा खेमा है
अगले कुछ दिनों के लिये 
इस शहर को जिसे कोई
समेट नहीं सका 
इस शहर के समानांतर 
कोई कविता ही गुजर सकती है 
बशर्ते उस कविता को
कोई मल्लाह अपनी नाव पर 
ढ़ोता रहे घाटों के किनारे 
मनुष्य की तरह
कविता भी यात्रा में होती है।।



- परिचय -

जन्म तिथि - 06/12/ 1978 
शैक्षणिक योग्यता  -   परा-स्नातक राजनीति विज्ञान 
विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं हंस , आजकल , वागर्थ , इन्द्रप्रस्थ भारती , बया, दोआब , परिकथा , मधुमती ,  आदि  में कविताएँ प्रकाशित  ।
मराठी, पंजाबी  में  कविताओं का अनुवाद प्रकाशित  ।
कविता कोश  , भारत कोश  तथा लगभग 40 ब्लॉगों पर कविताएँ प्रकाशित ।
हिन्दुस्तान  , प्रभात खबर  , अमर उजाला आदि समाचार पत्रों में कविताएँ प्रकाशित  ।
विभिन्न कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ 
वृत्ति - शिक्षक
रूचि :  हिन्दी - अंग्रेजी साहित्य अध्ययन 
पत्राचार : C/O – श्री अरुण कुमार , सौदागर पथ,
काली मंदिर रोड , हनुमान नगर , कंकड़बाग़ ,
पटना , बिहार  , पिन कोड - 800026
मोबाइल नंबर-  9570352164
ई-मेल - rrtpatna1@gmail.com 

मैली धोती

 सतीश "बब्बा"


       बूढ़ी बाहों में आज धोती निचोड़ने की शक्ति नहीं थी. किसी तरह बूढ़े पति द्वारा हैंडपंप से पानी निकाल दिये जाने के कारण बूढ़ी काया में 2 लोटा पानी डालकर नहा लिया था. वह धोती नहीं फींच सकी और थककर फिर से चारपाई में पौढ़ गई. बुढ़वा भी अब थक थक चुका था. सिर्फ बहू बेटों पर आश्रित थे दोनों बेटे बहू ने माँ की धोती को छुआ तक नहीं, वल्कि पत्नी के भाई के कपड़े धो डाले थे. फिर भी माँ की धोती नहीं धो सके थे.दूसरे दिन माँ को धोती पहननी थी, देखा तो, हैंडपंप के ठीहे में ही एक कोने पर धोती उसी तरह पड़ी थी.
माँ ने बेटे को बुलाया, - "सोनू ओ सोनू, देख न बेटा, कल जी नहीं चल रहा था और मेरी धो...  ... ...!"
- "इतनी तो बेजार नहीं हो, देखती नहीं कितना काम है उसके लिए! झाड़ू पोंछा से लेकर खाना बनाने तक, फुरसत पाती है. तुम लोगों को काम धाम कुछ करना नहीं और ऊपर से, अरे तू थकी थी तो, पापा ही कर लेते." बीच में ही बेटे ने खरी खोटी सुना दिया. 
      बूढ़ी माँ पथरा कर रह गयी और बाप धम्म से जमीन में बैठ गया. 
      दोनों सोच रहे थे, 'इसी आशा को लेकर इसके लिए हमने रात दिन एक करके बेटे को पाला पोषा और शादी विवाह किया था.'

                                           
ग्राम + पोस्टाफिस = कोबरा, जिला - चित्रकूट 
( उ प्र  )पिनकोड - 210208.
मोबाइल - 94510485089369255051.
ई मेल - babbasateesh@gmail.com

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2019

नया उजाला

डॉ वन्दना गुप्ता

वह बहुत देर से कीचैन हाथ में लिए बैठा था। वह कोई ऐसा वैसा कीचैन नहीं था, बहुत स्पेशल था, कॉलेज के आखिरी दिन अविका ने दिया था। अविका और अवनीश दोनों प्रेमी युगल के रूप में पूरे कैंपस में मशहूर थे। इंजीनियरिंग की चार साल की पढ़ाई में साथ रहते हुए वे दोनों इतने नज़दीक आ चुके थे कि अलग होना मुश्किल था। दोनों के घर वाले शादी के लिए तैयार थे। कैंपस सिलेक्शन हो चुका था, अलग अलग कम्पनी में, और दोनों जानते थे कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना होता है, तो जिंदगी भर साथ रहने के लिए ये कुछ समय की दूरी बर्दाश्त करनी ही थी।
“सुनो! ये हार्ट शेप कीचैन है, दो भागों में बना हुआ, ये एक भाग तुम रखो और ये एक मैं रखूँगी… जब हम मिलेंगे तो ये जुड़कर एक हो जाएगा।” अविका ने उसकी और प्यार से देखते हुए कहा था।
“हाँजी यह तुम्हारा आधा दिल मेरे पास महफूज रहेगा और मेरा आधा दिल तुम भी सहेज कर रखना, हम जल्द ही एक होंगे।” अवनीश ने उसके ललाट पर प्यार की निशानी अंकित करते हुए कहा था।
वाकई वह दिन जल्दी ही आ गया था। दोनों ने अपनी पोस्टिंग एक ही शहर में करवा ली थी और धूमधाम से शादी के बाद जिंदगी का नया सफर शुरू हो गया था। समय के साथ जीवन बगिया में दो प्यारे प्यारे पुष्प खिले… अंशिका और अंशुल के रूप में। समय पंख लगा कर उड़ रहा था और दोनों अपनी जिंदगी से बहुत खुश थे। बच्चे भी काबिल… बेटी मेडिकल कॉलेज में और बेटा आई आई टी में चयनित हो हॉस्टल में रहते थे।
आजकल अविका जल्दी थकने लगी थी, पैरों में सूजन भी रहने लगी थी। सोचा था कि बच्चों के जाने से उदासी की वजह से खुद पर ध्यान नहीं दे रही है। डॉक्टर को दिखाया। दवाई के साथ ही कुछ मेडिकल जांचे लिख दीं। दवाई ली किन्तु जाँच को अनावश्यक समझा। अक्सर महिलाएँ शिक्षित होने के बाद भी खुद की उपेक्षा कर जाती हैं, जिसका खामियाजा बाद में भुगतना पड़ता है। इस बार दिवाली पर जब आंशिका और अंशुल घर आए, तब दोनों ने ही नोट किया कि मम्मी अब पहले जैसी उत्साहित और ऊर्जित नहीं हैं। अंशिका चूंकि मेडिको थी, उसने समझाया कि इस उम्र में रजोनिवृत्ति की अवस्था मे हार्मोन्स परिवर्तन से ऐसा होना सम्भव है। 
“बेटा! डॉक्टर को दिखाया था, दवाई ली तो कुछ दिन आराम रहा और अब फिर वही स्थिति है।” पापा की बात सुनकर अंशिका चिंतित हुई.. “मम्मी जो डॉक्टर ने प्रिस्क्रिप्शन लिखा था, वह दिखाइए।” 
पर्ची देखकर वह गुस्सा हो गयी… “डॉक्टर ने जाँच लिखी थीं, ये करवायीं?” 
“बेटा! डॉक्टर तो फालतू जांचे लिख देते हैं, क्या फायदा करवाने से, दवाई ले ली थी।” अविका ने कुछ निराशा से कहा।
“बस यही तो गलती करते हो आप लोग, आपकी बेटी मेडिकल में पढ़ रही है, पूछना भी जरूरी नहीं समझा।”
“अब पूछ लेते हैं बता क्या करना है, आजकल तो नयी नयी जाँचे चल गयीं हैं, कुछ नहीं होता, डॉक्टर्स को फालतू पैसा लूटना है बस और कुछ नहीं…” 
“मम्मी बस यहीं तो लोग गलती कर जाते हैं, ये नयी जाँचे फालतू नहीं हैं, चिकित्सा जगत की ये उपलब्धि उनके स्वास्थ्य की दृष्टि से जरूरी हैं… यदि कोई बीमारी हुई तो प्राथमिक अवस्था मे ही पता चलने से सही समय पर  इलाज शुरू हो जाता है, इसीलिए तो मृत्यु दर कम हो गयी है।”
“सही कहा बेटा, मम्मी मेरी बात तो सुनती नहीं हैं, अब कल ही चलते हैं, सब टेस्ट करवाते हैं।” अवनीश भी चिंतित स्वर में बोले थे।
अगले दिन टेस्ट के बाद जब रिपोर्ट्स आयीं तो पता चला कि अविका की दोनों किडनियां खराब हो चुकी हैं और जल्द ही डायलीसिस करवाना होगा। अंशिका बहुत गुस्सा हो रही थी और अविका निराश थी। अंशुल भी गुमसुम सा बैठा था.. यह दीवाली जैसे निराशा का गहन अंधेरा लेकर आयी थी… सब उस उजाले के इंतज़ार में थे जो इस तम को हर ले।
“सुनो बेटा, जो हुआ हम उसे बदल नहीं सकते, गुस्सा या निराशा इस परेशानी का हल नहीं है, अंशिका तुम डॉक्टर बनने वाली हो, तुम्हारे सीनियर्स से मशविरा करो फिर हम तय करेंगे कि आगे क्या करना है, अविका अब तुम अपनी नहीं हमारी मर्जी सुनोगी।” अवनीश ने एक जिम्मेदार पति और पिता की भूमिका का निर्वाह करते हुए कहा।
फिर जल्द ही तय हुआ कि नडियाद जाकर गुर्दा प्रत्यारोपण करवाया जाएगा। पैसे की चिंता थी नहीं, बस डोनर का इंतज़ाम करना था। जब कोई व्यवस्था नहीं हुई तो अवनीश ने एलान कर दिया कि वे अपनी एक किडनी अविका को देगा। परिजनों ने विरोध भी किया कि यदि प्रत्यारोपण सफल नहीं हुआ तो…? दोनों में से एक तो स्वस्थ रहे, अभी बच्चे भी उन पर निर्भर हैं, किन्तु अवनीश अपने फैसले पर अडिग रहा और डॉक्टर से मिलकर तारीख तय कर ली।
नियत समय पर ऑपरेशन हो गया। वह तो ठीक रहा किन्तु अविका का शरीर नयी किडनी को स्वीकार नहीं कर पा रहा था। कुछ न कुछ कंप्लीकेशन्स आ रहे थे। वह उस कीचैन को देखते हुए सोच रहा था कि क्या ये अब जुड़ पाएंगे, इसका एक हिस्सा अभी भी अविका के पास ही रखा है, अपना वाला हिस्सा वह साथ लेकर आया था। मन में निराशा के बादल छा रहे थे, वह अविका के बिना अपने वजूद की कल्पना भी नहीं कर पा रहा था। बीती हुई जिंदगी चलचित्र के समान आँखों के आगे से गुजर रही थी। सोचते सोचते उसकी आँखें नम होने लगीं। कन्धे पर अपनत्व का स्पर्श महसूस हुआ, उसने देखा अंशुल उसका हाथ पकड़कर उसे समझा रहा था…”पापा! हिम्मत रखिए, सब ठीक होगा, मम्मी अच्छी हो जाएंगी, कल नया साल शुरू हो रहा है, कल का सूरज एक नयी रोशनी लेकर आएगा।”
उम्मीद पर दुनिया कायम है, आशा नवजीवन का संचार करती है, सपने पूरे होने के लिए आशावादी होना जरूरी है….. इस तरह के बहुत से सूत्रवाक्य उसे याद आ रहे थे। ग्यारह बज चुके थे। वह वेटिंग रूम में बैठा था, तभी नर्स बुलाने आयी। धड़कते दिल से उसने वार्ड में प्रवेश किया… “पापा! मम्मी को होश आ गया है, अब चिंता की कोई बात नहीं है।” अंशिका की आवाज़ चहकती हुई लगी। वह लपक कर बेड के पास पहुंच गया… “ठीक हो तुम अवि?” 
“हाँ मैं ठीक हूँ, आप कैसे हैं?” कहते हुए अविका ने उसके हाथ में आधा कीचैन देखकर अपने तकिए के नीचे से आधा कीचैन निकाला।
“तुम भी यह लेकर आयीं थीं?” अवनीश आश्चर्यमिश्रित खुशी से बोला।
“हाँजी आपके दिल को कैसे छोड़ देती।”
दोनों के हाथ से कीचैन लेकर अंशुल ने उसे जोड़ दिया और बोला कि “लो अब आपका दिल फिर जुड़ गया।”
“साहबजादे हमारा दिल टूटा नहीं था, वह तो…..” अविका के इशारे से वह चुप हो गया तो अंशिका बोल पड़ी… “मेरे भाई तू बुद्धू है, वह तो मम्मी पापा एक दूसरे को फील करने के लिए ये सिंबॉलिक दिल अपने पास रखते थे… आधा आधा… है न मम्मी..?”
वे दोनों उसकी बात सुन मुस्कुरा पड़े… “हमारी बेटी समझदार हो गयी है… क्या बात है कहीं तूने भी ऐसा कीचैन तो नहीं खरीद लिया?” अविका ने मुस्कुराते हुए पूछा।
“मम्मी मैं आपको बता कर ही ख़रीदूंगी…” अंशिका का जवाब सुन सभी मुस्कुराने लगे।
“अच्छा दीदी! क्या मैं इस कीचैन को फिर अलग अलग कर दूँ, एक मम्मी का और एक पापा का….?” अंशुल ने शरारती स्वर में पूछा।
अविका ने इशारे से मना करते हुए कहा… “बेटा! अब इस सिंबॉलिक दिल की जरूरत नहीं है… अब तो पापा की किडनी वास्तव में मेरे पास है…” फिर अवनीश को देखकर बोली कि “आज आप सही मायने में मेरे अर्द्धांग बन गए हो…” अवनीश ने उसकी बात का समर्थन करते हुए कहा… “हाँ और तुम मेरी अर्द्धांगिनी….!”
घड़ी ने बारह बजने का संकेत दिया.. उस मधुर स्वरलहरी ने उनके जीवन को और मधुर कर दिया… नये साल की नयी भोर एक नया उजाला लेकर आने वाली थी।
 
उज्जैन (मध्यप्रदेश)